उस शायर के नाम,
जिसने
रदीफ़ और काफ़िया को इतनी दी तवज्जो
कि भूल गया
वज़न दुरूस्त करना...
इंसान तो बना डाला
लेकिन ईमान कसने में कर गया कंजूसी..
शायर,
आज तुम्हारी ग़ज़ल
जगह-जगह से चुभने लगी है,
ज़हरीले नाखून उग आए हैं उसमें..
ज़रा
एक बार तुम भी यह ग़ज़ल गुनगुना कर देखो,
लहुलूहान हो जाओगे..
.
.
.
दुनिया का यह मुशायरा
चाहता है ग़ज़लों की नई खेंप -
तंदुरुस्त, वज़नदार..
अपना पुराना दीवान फेंक दो
और नया लिखो सिरे से..
तुम सुन रहे हो ना शायर?
सुनो तो...
- Vishwa Deepak Lyricist
हमारे साथ हो तुम या
हमारे सर पे हो बोलो,
अगर हो साथ तो फिर तुम
कभी ऊँगली थमा भी दो,
या फिर गर सर पे हो तो बस
बरसते हीं हो क्यों हर पल,
कभी आशीष दे भी दो,
कभी पुचकार भी लो तुम,
हमेशा वार करते हो,
कभी तो प्यार कर लो तुम..
मेरे रहबर,
मेरे साथी,
मेरी परछाई बन लो तुम,
मुझे परछाई कर लो तुम..
.
.
.
(सुनो!
हमसे हीं तुम हो और
तुम्हारे होने से हम हैं,
हाँ, इतना ग़म है कि
लाठी
जो भरती थी मेरी मुट्ठी,
जिसे चलना था संग मेरे,
वो हाय मेरे माथे पे
हीं आ के चीख कर टूटी,
वो चीखी कि मैं हट जाऊँ,
इरादे तोड़ बंट जाऊँ..
खैर! अफसोस यह है कि
अगर तुम पत्थर-दिल हो तो
हमारे सर हैं पत्थर के,
हमारे सीने लोहे हैं,
है आँखों में दहकता जल,
भला लाठी करेगी क्या,
जली तब हीं, जलेगी फिर,
जभी हम पे उठेगी फिर..
जलेगी फिर,
जलेगी फिर,
जो भरती थी मेरी मुट्ठी,
अगर मुझपे उठेगी फिर..
मेरे साथी,
मेरी सरकार,
मेरे सर पे चढो तब हीं,
अगर सूरज-सा रहना हो,
मुझे परछाई देनी हो,
मेरे पैरों पे चलना हो..)
.
.
.
रहूँगा मैं तो बस तेरा -
मेरी परछाई बन लो तुम,
मुझे परछाई कर लो तुम..
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं तकरीबन हर उस किसी को प्यारा हूँ
जो मुझे "उस तरह" प्यार नहीं करती..
और जो करती थी बातें मुझे "उस तरह" प्यार करने की,
उसे इस तरह प्यारा हुआ मैं
कि आजकल
मुझसे नहीं करती बात तक;
शायद डरती है
कि कहीं कोई ठेस न लग जाए मुझे...
वह नहीं करती है बात
और यही बात मुझे चुभती है सबसे ज्यादा..
वे करती हैं बातें
जिन्हें मैं बहुत प्यारा हूँ,
लेकिन उनकी बातें मुझे न प्यार देती हैं और न हीं कोई ठेस..
अब सोचता हूँ
कि "प्यारा मानने" और "उस तरह प्यार करने" के बीच
क्यों है यह पुल
जो बदल देता है परिभाषा प्यार और ठेस की?
मैं पेंडुलम की तरह टहलते हुए इस पुल पर
कोसता हूँ उन्हें
जो या तो इस तरफ हैं या उस तरफ
और जो ज़मीन बाँट कर बैठी हुई हैं सौतनों की तरह...
मै ,
जिसे "प्यारा" कहने वाली "उस तरह" का प्यार नहीं करती,
फेरता हूँ निगाहें दोनों तरफों से
और कूद पड़ता हूँ
पुल के नीचे बहती
.
.
नफरत की नदी में...
इस नदी में
यकीन मानिए...... बेहद सुकून है....
- Vishwa Deepak Lyricist
उसने अपनी सारी आदतें उतार दीं हैं मेरे कारण...
अब वह बिगड़ने से पहले देख लेता है मेरा "मूड"..
हँसता ज्यादा है आजकल,
ज्यादातर खुद पर...
अकेले में बाँटना चाहता है ग़म मुझ से
और रख देता है दिल खोलकर..
वह अब मेरी "कड़वी" बातें भी सुन लेता है
और झुका लेता है सर...
वह झुका लेता है सर
और चिढ जाता हूँ मैं..
चिढता था मैं पहले भी,
जब वह ऐसा कतई न था..
वह बदल गया है
लेकिन मैं नहीं बदला...
वह जो मेरा "पिता" है,
मुझे आज भी लाजवाब कर जाता है!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
एरोप्लेन:
नाक नुकीली लिए फिर रहा
एरोप्लेन क्या सूंघ रहा है?
फाड़ के बादल रस पीएगा?
________________
बड़ी काई है आसमान में,
खुरपी लेकर चलो छील दें..
धार तेज़ है एरोप्लेन की..
________________
ज़िंदगी:
नींद तो दकियानूसी है,
खैर कि बागी है करवट..
प्यार जगाए रस्म तोड़ के...
________________
बचकानी है मेरी हँसी,
मेरा चुप रहना है सयानों-सा..
मेरा रोना... ज्ञान की चाभी है...
________________
खुश रहना बुरी लत है,
फिर कुछ भी बुरा नहीं दिखता....
खुश रहो कि "तुम" भी अच्छे हो..
________________
ज़िंदगी कंपकंपी से ज्यादा है,
मौत ओढूँ भी तो मिलेगा चैन नहीं..
खुदा! मौसम बदल या दे कंबल नया..
_______________
कविता:
चार दिन क़लम न उठाऊँ तो उग आते हैं खर-पतवार,
बड़ी जल्दी रहती है मेरे शब्दों को ऊसर होने की..
कतरता हूँ, छांटता हू, फिर टांकता हूँ कागज़ पर..
- Vishwa Deepak Lyricist
मुखौटा ओढकर हँसता रहता हूँ दिन भर..
रात को मुखौटा उतारता हूँ तो
छिली होती है झुर्रियाँ...
उम्र आँसू की आदी हो गई है शायद...
अब सुबह तक रोऊँगा तभी चेहरे का फर्श पक्का होगा,
जान आएगी सीमेंट में...
इतना तो अनुभव है;
मैं अनुभव से बोलता हूँ!!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
हंसिया को चाँद
या चाँद को हँसिया
कहने से
कविता तो बन जाएगी..... बात न बनेगी...
शब्द फसल से निकल आएँगे आगे
और
पूस की रात में ठिठुरता हल्कू
उन्हीं शब्दों की ओस में मरता रहेगा
दो बाली धान के लिए...
भले हीं
झंडों पर लहलहाएगा धान
लेकिन
हल्कू या होरी के पेट
खोखले हीं रह जाएंगें नारों और दोहों की तरह...
फिर किसी
जबरा की साँसों से लिपट कर सोएगा हल्कू
और हम
उस चौपाये को भैरव बाबा का अवतार कर देंगे घोषित..
पूजे जाएँगे बाबा,
लिखी जाएँगीं कविताएँ..
और नज़रों की 'ठेस' लिए कोने में पड़ा हीं रह जाएगा हमारा नायक......
- Vishwa Deepak Lyricist
इतिहास ताकता है खिड़की से
और देखता है सप्तर्षि,
कुछ सोचता है
फिर कर देता है घोषणा कि
"आसमान सात राजाओं से संचालित था"...
रात के तीसरे पहर में जब खुलती है उसकी नींद
तो भाग कर जाता है वह
दूसरी खिड़की पर
और पाता है एक पुच्छल तारा सरकता हुआ,
वह निकालता है बही
और इस बार लिखता है कि
"काले आसमान पर लाल रोशनी लिए उतरा था एक क्रांतिकारी"...
सुबह
दरवाजे के नीचे से
इतिहास को मुहैया कराई जाती है
एक थाली
जिसमें होती हैं रोटियाँ एक-दो विचारधाराओं की
और थोड़ी पनीली दाल जिसमें तैरता होता है सांप्रदायिकता का पीलापन...
इतिहास यह सब निगल कर अघा जाता है
और सुना देता है अपने हाकिमों को... सारा आँखों देखा हाल..
हाकिम खुशी-खुशी करार देते हैं कि
"पिछली रात जो कि अंधी और बहुराजक थी,
उसे ’फलां’ ने अराजक होने से बचाया".....
इतिहास की कालकोठरी की दूसरी तरफ की दीवार
जिधर न खिड़की है, न कोई झरोखा,
मौन रहकर घूरती है बस..
उसे याद है कि
पिछली शब "पूरनमासी" ने चाँदनी से भिंगो दिया था उसे...
इतिहास तैयारी में है अगली रात के लिए
और दीवार जानती है कि "चाँद फिर न दिखेगा इसे"...
.
.
.
.
महीनों बाद
इतिहास को अगवा कर ले गए "दूसरी" सोच वाले..
अब वह "अमावस" की रातों में निहारता है "नियोन लाईट्स"
और लिखता है कि "हज़ार चाँद हैं आसमान में"...
- Vishwa Deepak Lyricist
अब भी वहीं से पुकारती हो!!
दस कदम पीछे हटकर
उतर जाओ रास्ते से
या दस कदम बढकर
मुड़ जाओ मेरी तरफ...
यह कशमकश तोड़ो!!
जान लो -
मैं गुजर गया हूँ,
फिर भी तुम्हारा हूँ....
.
.
.
बँधा हूँ तुम्हारे अहद से,
इसलिए........ खुद लौट नहीं सकता!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
पिछले लम्हे की तरह बीत हीं जाओ तुम...
मालूम है कि धूप थी,
पर वह माज़ी की बात है..
मालूम है कि तुम अब भी पड़ी हो मेरे सीने में,
मगर चौंकती नहीं हर साँस के साथ,
बस चुभती हो ज़रा-सा..
मालूम है कि तुम्हें खो दिया है मैंने..
नहीं....
मुझे मालूम है तुम रख न पाई मुझे संजोकर
और अब
दोनों खीसे खाली हैं...
मालूम है कि जो हुआ..बुरा हुआ,
मगर एक पहचान काफी है हज़ार अच्छी सुबहों के लिए..
इसलिए
यह न कहूँगा कि अजनबी बन जाओ तुम..
बस
पिछले लम्हे की तरह बीत जाओ तुम
ताकि
सुकून मिले तुम्हें भी.....
- Vishwa Deepak Lyricist
थोड़ा बुझा, थोड़ा उड़ा,
आँखों में जो सपना गिरा,
पत्थर पे इक पत्थर पड़ा,
झरने चले, लावा उड़ा..
अच्छा हुआ, जैसा हुआ,
कसमें खुलीं, किस्सा खुला,
रस्में खुलीं, रस्ता खुला,
सहरा तले दरिया खुला..
- Vishwa Deepak Lyricist
अगर कभी बस लिखने के लिए लिखो
तो
मत लिखो..
क्योंकि
लिखने के लिए लिखा
तुम्हारा नहीं होता
वह उसका होता है
जो तुम बनके की कोशिश में है
वह उसका होता है
जो तुम बनते जा रहे हो...
अक्षरों को खुली छूट दो,
अक्षर इंसान नहीं
कि रंग बदलें घड़ी-घड़ी..
अक्षर इंसान नहीं
कि मुकर जाएँ अपनी पहचान से भी..
इसलिए लिखने दो अक्षरों को,
तुम न लिखो
और बस लिखने के लिए
तो कतई नहीं...
- Vishwa Deepak Lyricist
कह कि तेरे कहने से कहना बुरा हो जाएगा,
कह कि तेरे कहने से चुप्पी का सूरज छाएगा...
कह कि तेरे कहने की बातें बड़ी बड़बोली हैं,
कह कि तेरे कहने की आदत न नापी-तौली है..
कह कि तेरे कहने से नीयत का रंग खुल जाएगा,
कह कि तेरे कहने से मुझको सबक मिल जाएगा...
- Vishwa Deepak Lyricist
गर इश्क़ मुझे हो जावे तो..
टुकड़े-टुकड़े दिल कर देना,
पत्थर पे माथा धर देना,
किस्मत में कालिख भर देना..
पर भूल के भी
सुन लो मेरे
प्रश्नों का न कुछ उत्तर देना,
न सपनों को हीं पर देना..
न जुनूं को मेरे घर देना...
बस
चिथड़े-चिथड़े दिल कर देना..
गर इश्क़ मुझे हो जावे तो!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
चलो मान लिया
कि
तुम सच हो,
हर सोच तुम्हारी सच्ची है...
तो मान भी लो -
हर अहद मेरा
सच्चा है बिल्कुल तुम-सा हीं,
क्योंकि जो भी कुछ मेरा है
सब जुड़ा तुम्हारी सोच से है,
सब बना तुम्हारी सोच से है...
मैं भी अब अलग कहाँ तुमसे...
जो तुम सच तो मैं भी सच हूँ
- Vishwa Deepak Lyricist
रेवड़ी के भाव
या
चाय-चानी के सही अनुपात में
हर साँस
तुम्हें तौलना-मापना होता है
मेरा प्यार...
मैं गुलाब-जल या केवड़े की तरह
अपनी नसों में
महसूसता रहता हूँ
तुम्हारी मौजूदगी...
तुम समष्टि में व्यष्टि ढूँढती हो
और मैं व्यष्टि में समष्टि..
बस इतना हीं फर्क है
मेरे चाहने
और तुम्हारे
चाहे जाने की चाह रखने में...
बस इतना हीं फर्क है
जो
दो फांक किए हुए है... हम दोनों को!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
चलो, कुम्हलाया जाए...
हिस्से की हम धूप खा चुके,
रात से "मन" भर ओस पा चुके,
भौरों के संग धुनी रमा चुके,
खाद-पानी के भोग लगा चुके,
आसमान से मेघ ला चुके,
हुआ बहुत, अब जाया जाए,
चलो, कुम्हलाया जाए....
अब औरों को हक़ लेने दो,
गगन का सूरज तक लेने दो,
हवा की चीनी चख लेने दो,
नसों में माटी रख लेने दो,
उन्हें भी थोड़ा थक लेने दो,
सुनो, ज़रा सुस्ताया जाए,
चलो, कुम्हलाया जाए....
चलो!!!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
तब रोया था वो...
पाँव लफ़्ज़ के उलझ पड़े थे,
छिटक के साँसें - सांय - गिरी थीं,
आँखों के फिर आस्तीन पर
प्यार की मीठी चाय गिरी थी,
बर्फ ख्वाब के पिघल गए तब,
पलक से बूँदें हाय, गिरी थीं..
हाँ, रोया था वो...
- Vishwa Deepak Lyricist
चाँद पत्थर है,
आसमां पानी,
रात लहरों का उठना-गिरना है...
रात उतरेगी,
आके मुझमें हीं.
मेरी आँखों में सारे साहिल हैं...
चाँद भारी है..
चोट तीखी है..
मेरी यादें हैं...... उसने फेंकी हैं...
- Vishwa Deepak Lyricist
खास बात ये है कि
मैं खास हो चला था जब,
हालात थे तेरे हाथ में
तुझे रास आ गया था तब..
आँखें तेरी थी बाज-सी
जो बाज़ आती थीं नहीं,
बस ढूँढती थी खामियाँ
सीने की मेरी खोह में,
रहती थी इसी टोह में
कि गर जो कुछ ज़िंदा दिखे,
तो फिर न आईंदा दिखे..
कुचले पड़े थे सब मेरे
जज़्बात तेरे दर पे जब,
हाँ, खास बात ये है कि
मैं खास हो चला था तब...
- Vishwa Deepak Lyricist
रात भर तुम्हें सोचता रहा..
रात भर तुम्हारी बादामी आँखें बढाती रहीं मेरी याददाश्त..
रात भर बुनता रहा तुम्हारी पलकों से एक कंबल, एक बिस्तर..
रात भर लेता रहा करवटें तुम्हारे चेहरे के चारों ओर..
रात भर उधेड़ता रहा दो साँसों के बीच के धागे को..
रात भर बस जीता रहा तुम्हें... और हारता रहा अपनी नींदें...
रात भर कातता रहा मैं एक रात,
तुम्हारे ख्वाब में!!
- Vishwa Deepak Lyricist
आओ चलें उफ़क़ की ओर..
रात सजा के,
चाँद जला के,
दिन हो जब तो
धूप उगा के,
धूप गिरे तो
छांव टिका के,
आस की लाठी
हाथ में धर के,
चलें... हम चलें... नए सफ़र पे..
कंकड़-पत्थर
टालते जाएँ,
पथ पे पदचर
डालते जाएँ,
नव-संवत्सर
ढालते जाएँ,
एक-एक पल अपने हिस्से
कर लें नभ के पंख कतर के,
चलें... हम चलें... नए सफ़र पे..
चलो चलें हम
उफ़क़ की ओर,
शफ़क रखें हम
शफ़क़ की ओर,
कदम बढाएँ
अदब की ओर,
नई नब्ज़ से, नए लफ़्ज़ ले,
बढें.. हम बढें और निखर के,
चलें... हम चलें... नए सफ़र पे..
- Vishwa Deepak Lyricist
तुम परिभाषा में अटकी हो,
मुझे भाषा तक का ज्ञान नहीं,
मैं अभिलाषा को जीता हूँ,
तुम्हें आशा तक का ज्ञान नहीं....
मैं प्रत्याशा पर अटका हूँ!!!
तुम परिभाषा में अटकी हो!!
- Vishwa Deepak Lyricist
तीन-तेरह करने वाले इस वक़्त का मुहाफ़िज़ है कौन?
क्या वह हो चुका है नौ-दो ग्यारह?
गर आपसे वो कभी दो-चार हो तो पूछ लेना
कि दो जून की ज़िंदगी
चौथे पहर में मिलेगी
या आठवें
या कभी नहीं?
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं तुम्हारी एक बूँद हँसी के लिए,
डाल सकता हूँ कोल्हू में अपनी दो "मन" साँसें...
जानता हूँ कि
तेल निकलेगा और चढेगा किसी देवता पर..
देवता,
जो कतई मैं नहीं!!!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
कुम्हार की मिट्टी पे कुकुरमुत्ते-सा खड़ा हूँ मैं...
गदहे की टाँगों के इर्द-गिर्द पड़ा हूँ मैं...
कुम्हार ने उठाई खुरपी,
गदहे ने उठाई टांग,
और लो.. कोने में मरा हूँ मैं..
पर ये क्या...
मेरे अंदर का आदमी बोले
कि
गदहे की पीठ पर का घड़ा हूँ मैं..
तब तो कद में
गदहे से भी बड़ा हूँ मैं....
कुकुरमुत्ते-सा खड़ा हूँ मैं...
- Vishwa Deepak Lyricist
वे आस्तिक हैं..... हमें धर्म से डराते हैं..
ये नास्तिक हैं... हमें "हमारे" धर्म से डराते हैं
और खींचना चाहते हैं अपने धर्म की ओर
जहाँ हर दूसरा धर्म कचरा है
और "कचरा" बताना हीं इनका धर्म है,
ऐसा कहकर ये मजबूत कर रहे होते हैं
अपने धर्म की इमारत, मूर्तियाँ और "अध-कचरी" विचारधारा...
वे आस्तिक हैं... धर्म में.. धर्म-ग्रंथों में... अपने हिसाब से...
ये नास्तिक हैं, जो सारे धर्म-ग्रंथों को खारिज़ करके
लिखते हैं अपना हीं एक "धर्म-ग्रंथ"
जिसे "अंध-विश्वास" की हद तक
निगल लेते हैं इन्हें मानने वाले... "अफीम" के साथ;
अफीम, जो इनके किसी "क्रांतिकारी" ने
आस्तिकों के हीं आस्तीन से उठाई थी....
अब नशे में हैं... आस्तिक,नास्तिक... दोनों हीं..
दोनों ने सवाल करना छोड़ दिया है अपने-अपने धर्म से..
इस तरह...
आस्तिक हो गए हैं दोनों हीं.. किसी-न-किसी धर्म में..
और
हम धर्म-भीरू पिसे जा रहे हैं.. .दोनों धर्मों के पाटों के बीच...
हम..जिनके लिए धर्म का मतलब कुछ और हीं होना था!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
उधर मत ताकना,
कंजंक्टिवाईटिस (conjunctivitis) है दुनिया को..
आँखें छोटी किए
बुन रही है
अपनी सहुलियत से हीं
रास्ता, रोड़े, रंग, रोशनी, रूह, रिश्ते... सब कुछ...
देख रही है
अपने हिसाब से हीं
तुझमें तुझे, मुझमें मुझे...
देख रही है
अभी तुझे हीं... आँखें लाल किए..
उधर मत ताकना,
बरगला लेगी तुझे भी;
बना लेगी
तुझे भी..खुद-सा हीं....
- Vishwa Deepak Lyricist
बहुत हद तक जानता हूँ मैं तुम्हें,
तुम वही हो ना जो जानता है सब कुछ हीं...
ना ना, खुदा नहीं..खुशफहम हो..गप्पी हो..
_________________
यक-ब-यक मैं बोल दूँ तुझको भी अपने-सा जो गर,
यक-ब-यक फिर तेरा भी अपना-सा मुँह हो जाएगा...
अपना-सा मुँह हो जाएगा तो खुद हीं मुँह की खाएगा...
________________
लिखने की ख्वाहिश छोड़ो भी,
लिखके ख्वाहिश बढ जाती है..
बढके ख्वाहिश मर जाती है..
________________
तुम्हें चाहिए हिन्दी! क्यों?
तुम्हें सा’ब नहीं बनना क्या?
'प्लीज़' कहो तो कृपा मिलेगी....
_________________
उम्र झांक रही है तेरे चेहरे से,
खोल रही है जंग लगी खिड़कियाँ सभी..
नमी, नमक के गुच्छे हैं झुर्रियों के पीछे..
(अहसासों के सावन में ऐसे बंद न रहा करो)
- Vishwa Deepak Lyricist
हाँ ये ज़ाहिर है कि तू मेरा नहीं, उसका तो है,
उस खुदा का जिसने मेरा दिल है तेरा कर दिया...
क्या कहूँ इस कुफ़्र को- थोड़ी अदा, थोड़ी जफ़ा?
_________________
तुम जीते-जी जी न पाए,
मैं मरता था, सो मर न पाया....
असर अलग पर हश्र एक-से..
________________
वह वहीं होता है जहाँ मेरी भनक बसती है,
वह वहीं होता है जहाँ मेरी तलब उठती है..
तलबगार भी वही है, तलब भी तो है वही...
________________
चलो दूरियों को अपनाएँ,
चलो खामखा झगड़ा कर लें..
यही दवा है ग़म-ए-इश्क़ की..
_________________
मुद्दत हुई, मैंने तुझे देखा न उस तरह,
हरेक तरह देखा है पर, मुद्दत से तुझे हीं..
मुद्दत हुई हर इक तरह में "वह" तरह रखे...
- Vishwa Deepak Lyricist
कमाल का है पैरहन दुनिया की ज़ात का,
उधड़े कि या साबूत हो - उरियाँ हीं है रखे...
रिश्तों के जो रेशे हैं रिसते हैं हर घड़ी...
_________________
हत्थे से हीं उखड़ गई वो जड़ ये जान के
कि फूल-पत्तियों ने खुद को उससे लाज़िमी कहा...
तुम गए तो साथ मेरी मिट्टी भी तो ले गए..
________________
पत्थर या नमक दे जाती है,
हर लहर जो मुझ तक आती है...
मैं रेत के साहिल जैसा हूँ...
________________
राह में तेरी रखी होंगीं ये आँखें उम्र भर,
जब उतर आओ अनाओं से बता देना इन्हें...
सात जन्मों का समय है, कोई भी जल्दी नही...
_________________
मुझे एक टीस ने ज़िंदा रखा है,
तुम्हें एक टीस से मरना पड़ा था...
मिटा दूँ टीस तो मर जाऊँ मैं भी...
- Vishwa Deepak Lyricist
आज तोड़ डालो मुझे परत-दर-परत
कि मैं बामियान के बुद्ध-सा निर्लज्ज खड़ा हूँ..
होते में हूँ तुम्हारे, अहाते में हूँ तुम्हारे..
_________________
इस बार मैं जो आऊँ तो मकसद न पूछना,
बस घर को घूर लेना, मैं लौट जाऊँ जब..
दो-चार गर्द होंगे कम, दो-चार रंग जियादा
________________
बस करवटों में रात चली जाएगी शायद,
मैं साहिलों पे डूबता-उठता हीं रहूँगा?
इन सलवटों में एक किनारा तो हो तेरा...
________________
लिफाफे जिस्म के खोले बहुत पर,
कहीं भी रुह की चिट्ठी पढी तूने नहीं...
खुदा ने "इश्क़" लिख भेजा था उनमें...
_________________
न मैं "मेहमान" हो पाया उस घर का,
न तुम हीं "परिवार" हो पाई मेरी..
दोनों घर अजनबी हो गए..बस...
- Vishwa Deepak Lyricist
उतार दूँ ज़िंदगी का ये चोंगा,
कि पैरहन मौत के लाजवाब-से हैं..
बस इक आलस ने रोक रखा है मुझे...
_________________
रात तिनके-सी उड़ती आती है और
चिमटे-सी खींच कर ले जाती है साँस को...
मैं जलाता हूँ या जलता हूँ - मालूम हीं नहीं चलता...
________________
हंगल साहब के लिए:
इक "सन्नाटे" ने छोड़ा शोर का साथ,
अब आवाज़ को ऊँगली पकड़ाए कौन?
वो गया तो अदब-ओ-सुकून ले गया..
________________
उतार ले मुझको मेरी इस ज़ात से,
कि मैं उकता गया हूँ ज़ब्त हो-हो के...
कभी अश्क़ों की बेड़ी तो कभी बीड़ा है सपनों का...
_________________
ज़िंदगी दो घूँट लूँ
या ज़िंदगी से छूट लूँ...
इख्तियार खुद पे न इख्तियार आप पे....
- Vishwa Deepak Lyricist
मुझे मत दिखाओ सिगरेट का बुझा हुआ ठूंठ,
मैं खुद हीं जलके बुझता हूँ फिल्टर-सा हर समय...
सौ लफ़्ज़ गुजरते हैं.. जलती है शायरी तब..
_________________
मानी छांट के लफ़्ज़ वो टांकता है पन्नों पे,
संवारके हर हर्फ़ फिर वह शायरी सजाता है..
चार "आह-वाह" लोग अर्थी पे डाल आते हैं...
________________
मैंने लिखते-लिखते चार-पाँच उम्रें तोड़ डालीं,
यह वक्त इसी हद तक मुझपे मेहरबान था...
कुछ और गर जो होता तो जीता मैं भी आज
________________
सोच हलक में अटकी है,
शब्द चुभे हैं सीने में..
दर्द की हिचकी आती है..
_________________
क्या सुनेगा वो मेरी फरियाद को,
जो खुद हीं फरियादों से है लापता...
क्या ख़ुदा? कैसा ख़ुदा? किसका खु़दा?
- Vishwa Deepak Lyricist
बनारस की सीढियों को
छूकर जगता सूरज
अंजुरी में पानी ले
करता है - आचमन या वज़ू,
टेरता है
"हे भगवान"
या फिर "या अल्लाह"?
क्या पता!
बनारस की सीढियों पर
दिन भर ऊँघता सूरज
अघाता है चखकर
"केसरिया तर" मलइयो
या हरा पान
या फिर "केसर-पिस्ता" लौंगलता?
क्या पता!
बनारस की सीढियों से
लुढककर गिरते सूरज को
"मिर्ज़ापुर" संभालता है
या "गाज़ीपुर"
या फिर
हो जाता है सूरज भस्म वहीं
"मणिकर्णिका" घाट पर?
क्या पता!
बनारस की सीढियाँ जानती हैं
बस "बाबा लाल बैरागी" को
या "दारा शिकोह" को भी
जो सीखता था उससे उपनिषद
और
पढता था नमाज़.....पाँच दफ़ा?
क्या पता!
क्या मालूम -
बनारस की सीढियाँ तकती हैं किधर?
पूरब या मगरिब?
कौन जाने... क्या पता!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
पत्थर या नमक दे जाती है,
हर लहर जो मुझ तक आती है...
मैं रेत के साहिल जैसा हूँ...
_________________
वह उड़ते-उड़ते बैठ गया मेरी आँखों में,
तब से हीं मेरी आँखों में कोई ख्वाब नहीं...
गिद्ध घरों पे बैठे तो मौत का आलम होता है..
________________
इश्क़ की बेरूखियों को रखता आया पन्नों पे,
सर पटक के आज हर्फ़ों ने किया है आत्मदाह..
मैं जलूँ या तुझको सीने से निकालूँ, तू हीं कह..
________________
सुबह से तुम्हारी यादों की हो रही हैं उल्टियाँ,
एक "हिचकी" की दवा दे जाओ कि चैन आए..
याद कर-करके मुझे मार हीं दो तो बेहतर हो..
_________________
तुम सुधर गए हमें बिगाड़ते-बिगाड़ते,
हम उधड़ गए तुम्हें संवारते-संवारते..
प्यार तो था हीं नहीं, बस नीयतों की जंग थी...
- Vishwa Deepak Lyricist
एक झिल्ली है पतली
जिसकी एक ओर है तुम्हारा होना,
दूसरी ओर - न होना
और जिनमें भरे हैं द्रव
प्यार और नफरत के...
तुम बदलती रहती हो
घनत्व इन द्रवों के..
बदलती रहती हैं परिस्थितियाँ..
बदलता रहता हूँ मैं भी
और होता रहता हूँ
इस-उस पार
"ऑस्मोसिस" या "रिवर्स-ऑस्मोसिस" की बदौलत...
इस तरह
रिश्ते की वह पतली झिल्ली
झेलती रहती है
"सोल्वेंट", "सोल्युट" का खेल
और मज़े लेता रहता है "मनो""विज्ञान".....
- Vishwa Deepak Lyricist
तेरी आँखों में डूबा जब हीं,
तब से न उभर मैं पाया हूँ..
तेरी आँखें "ब्लैक होल" हैं री...
_________________
बदरंग-सी थी हर शय अब तक,
तेरे कदम पड़े..रंग फैल गया..
तू हुस्न की "हिग्स बोसॉन" है क्या?
________________
हुनर मेरा लापता है तब से,
जब से हुआ मैं हुनरमंद हूँ...
शायर ने अब इश्क़ किया है....
________________
तेरा नाम आधा लिखकर तुझे सोचता हूँ मैं,
फिर सोचता हूँ कि ये पूरा नहीं मेरे बिना...
हर्फ़ थोड़े तुम भरो, हर्फ़ थोड़े मैं भरूँ....
_________________
उसे अच्छा दिखने का शौक़ है
और मुझे... उसे देखने का..
ज़ौक़ दोनों का एक हीं तो है.
- Vishwa Deepak Lyricist
"स्वर्णाक्षरों" में लिखता इतिहास मुझे भी,
पर घूस देने के लिए पीतल भी ना मिला..
अब मेरे होने का नहीं है सच कहीं ज़िंदा...
_________________
मैं झूठ की कतरन चुनता हूँ
और "शॉल" बनाता हूँ सच की..
वो ओढकर चुप हो जाते हैं...
________________
मेरे सच को सच का दस्तखत दे दो,
मेरे झूठ को गिरा दो मेरी नज़रों से...
मुझे बदलो या बदलो झूठा सच मेरा..
________________
बेबाकियों का जश्न मनाते थे हम कभी,
बेबाकियों के बोझ ने सूरत बिगाड़ दी...
उम्मीद बेवज़ह की थी अपने उसूल से..
_________________
चट कर लो आ के मेरी सोच को भी
कि ये तेवर कागज पे थोड़े नरम हैं...
किया मैने लावा..लिखा बस शरर है..
- Vishwa Deepak Lyricist
ना चमड़ी है जो खून जने,
ना दमड़ी हीं जो सिंदुर दे..
ले भटकोइयां और मांग सजा...
*भटकोइयां = खर-पतवार श्रेणी का एक पौधा जिसपे "मटर-दाने" की तरह के फूल उगते है और जिन्हें फोड़ने पर लाल रंग निकलता है
____________________
वो काटता है जब माटी को,
माटी-सा कटता जाता है...
सोना सोता है संसद में..
____________________
गदगद हैं पूँछ उगाकर सब,
जो कल तक मुझ-से इंसां थे..
मैं जम्हूरियत का बागी हूँ...
____________________
तालीम जहां की ऐसी है,
हर शख्स करैला नीम-चढा..
चुप्पी भी ज़हर उगलती है..
- Vishwa Deepak Lyricist
मैंने लिखना छोड़ दिया है!
साँस चला के रात-रात भर,
आँख जला के रात-रात भर,
बात बढा के बात-बात पर
मैंने टिकना छोड़ दिया है!
वक़्त से किरचे नोच-नोच कर,
ख्वाब के परचे नोच-नोच कर,
हवा में पुलिये सोच-सोच कर,
मैंने बिकना छोड़ दिया है!
मैंने लिखना छोड़ दिया है।
आँख में तेरी डूब-डूब कर,
साँस में तेरी डूब-डूब कर,
प्यास से तेरी खूब-खूब पर
मैंने सपना जोड़ लिया है,
तुझसे लिखना... जोड़ लिया है...
- Vishwa Deepak Lyricist
उन्हें सुनाने से कुछ नहीं हासिल,
मगर सुना दूँ कि चोट पैदा हो..
मुझे पता है कि वो हैं इकरंगी,
समझ चढा लें कि खोट पैदा हो..
कहाँ "महा’"राज" उत्तर या दक्खिन,
अगर नफ़ा हो ना नोट पैदा हो..
अजब मठाधीश है तेरा "मानुष",
तुझे भुला दे जब वोट पैदा हो..
उसे भगाओगे किस तरह "तन्हा",
हवा-ज़मीं में जो लोट पैदा हो..
- Vishwa Deepak Lyricist
आपकी तशरीफ को जब भूख लगी
तो आपने
माँग लीं हमारे हिस्से की बेंच-कुर्सियाँ भी..
हम माटी से खींचकर फांवड़े-कुदाल
और समेटकर अपनी सारी उम्र
लौट गए
गर्भ की गहराईयों में,
बाँध लीं हमने गर्भ-नालें,
जन्मने के लिए फिर से कहीं और...
अब आपको भूख लगी है पेट की;
आपकी कुर्सियाँ, आपके अर्दली, आपके रसिक
नहीं उगा सकते नारों और घुंघरूओं में धान, गेहूँ,
नहीं बाँध सकते बाँध का पानी अपने बाजुओं से,
नहीं उगा सकते अपनी हथेलियों पर कल-कारखाने...
इनकी हथेलियों पर तो उगती हैं बस सोने की रेखाएँ..
कहिए...आप वही खाएँगे क्या?
नहीं ना?
तो फिर खींच लीजिए
हलक से अपनी अंतड़ियाँ
और भून कर निगल लीजिए भूख के साथ,
शायद ऐसे में तर हो जाए आपका पेट..
न बने इतने में भी
तो निगल लीजिए कुर्सियाँ, अर्दली , ज़मीन सब कुछ...
वैसे भी ये अर्दली आपके
न पीस सकते हैं आटा
जिसे आप डाल दें अपने "राज"-महल की नींव में
ताकि सेंध लगाने न आ पाएँ चीटियाँ...
चीटियाँ
जो आती हैं उत्तर से बस आपके लिए,
है ना "महा""राज"?
- Vishwa Deepak Lyricist
एक उम्र तक की राह तो तुम देख लो पहले,
फिर सोच लेना कौन है तेरे साथ के काबिल..
एक उम्र तक की राह है पर उम्र से लम्बी,
एक साँस भर का हमसफर हीं है मेरी मंज़िल..
एक उम्र तक की राह जो तुम देखोगे ’तन्हा’,
तो जान लोगे पाँव किनके हो गएँ बुज़्दिल..
एक उम्र तक की राह फिर क्यों देखने बैठूँ,
जब इल्म हो कि रहबरों से कुछ नहीं हासिल..
- Vishwa Deepak Lyricist
सद्यजन्मा भाई को गोद लिए
जब पूछेगी वो
कि
"अब तो खुश ना?
अब तो नहीं कटेंगी ना मेरी परछाईयाँ?",
तो क्या जवाब दोगे तुम?
क्या जवाब दोगे तुम
गर वो कुछ पूछे हीं नहीं,
बस निहारे अपने भाई को एकटक
और दबी ज़बान में कहे -
"बड़ी देर की आने में.... खैर... शुक्रिया!"
- Vishwa Deepak Lyricist
नन्हीं ऊँगलियों पे वह गिनती है
लिजलिजे घर से उजले आंगन तक की दूरी
और झेंप कर हल्का
करती है
सफर के समय का हिसाब..
थक गई है बेचारी
फिर भी नही भूलती
हाथ हिलाकर खबर देना
अपनी सलामती का
उस "आसमां" वाले अपने रहबर को..
खैर
एकटक
निहार रही है अभी
आँगन की आदमकद मूर्तियों को,
फूँक रही है उनमें जान
और बड़े हीं "दो टूक" लहजे में
कह रही है अपनी "तुलसी" को
कि
"मैं हीं आनी थी गोद भरने तुम्हारी... कोई और नहीं"
कह रही है
वह "दो घंटे" की "भांजी" मेरी..
- Vishwa Deepak Lyricist
__________________________
सुबह 6:30 में लिखी यह कविता... उसके जन्म के दो घंटे बाद...
जो कमबख्त पत्थर थे कल तक मेरे घर,
वो फूलों में तब्दील होने लगे हैं..
इलाही ये क्या माज़रा है बता दो,
बियाबां जो सब झील होने लगे हैं...
हूँ ज़िंदा या मुर्दा कि वो सारे सादिक़
मुखौटों को यूँ छील, होने लगे हैं..
सादिक़ = pure, honest, true
- Vishwa Deepak Lyricist
मुझे छीन ले मेरी ज़ात से,
मुझे छोड़ दे तेरी रूह में...
मुझे तोड़ ले मेरी ज़ीस्त से,
मुझे बाँध ले तेरी साँस से...
मुझे दर्द दे हमदर्द बन,
हमदर्द बन... आ दर्द बन...
मुझे रात दे, मुझे नींद दे,
मुझे ख्वाब दे, मुझे "आप" दे...
मुझे सौंप दे तेरे "आप" को....
मुझे सौंप दे.. मुझे छीन ले....
- Vishwa Deepak Lyricist
माटी के माधो
रंग ले
अब माटी तेरी..
तू हो ले हरा,
या केसरिया
या उजला, पीला,
चितकबरा..
तू रख कोई भी
रंग यहाँ..
बस ना रहना बेरंग,
नहीं तो
फट जाएगी छाती तेरी..
माटी के माधो!!!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
मेरे मस्तिष्क
कहीं और चल!
ना देह को तेरा ज्ञान है,
ना रूह को तेरी कद्र है,
अस्तित्व तेरा
धुंध है,
है धार भी तो
कुंद है,
इस घर में तेरा मोल क्या,
इस घर में सब हीं तेज़ हैं,
सब जानते हैं सोचना,
क्या सोचते हैं.. जान के
बदनाम होने से भला
मेरे मस्तिष्क
कहीं और चल!
- Vishwa Deepak Lyricist
आज आए तुम,
मेरे कान खींचे,
कुछ फुसफुसाए
और निकल लिए...
मैं अभी तक सोंच में हूँ
कि तुमने समझाया मुझे
या बहका दिया... पिछली बार-सा..
कहीं फिर से मैं
एक-आध हँसी के बाद
सीख न लूँ खुश रहना...
इस ईद भी!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
नाहक़ तुम घबराती हो,
इत-उत आँख छुपाती हो,
फूलों की बातें करके
धूलों-सी बिखरी जाती हो..
मैं जानता हूँ इस मौसम को,
पर गर तुम जो शर्मिंदा हो,
तो मेरी इतनी बात सुनो -
ये सब्ज़ा बस पल भर का है..
- Vishwa Deepak Lyricist
आँख उतर रही है सीढियों से,
नींद चढ जाएगी ऊपर..दबे पाँव..बिल्लियों की तरह...
घंटियाँ ख्वाब की बँधी हों तो ज़रा चौंकूं भी...
घंटियाँ ख्वाब की गूंगी हैं, बहरी आँखें हैं,
नींद मखमल है तलवों तक रेशों से..
कौन रोकेगा? चढेगी माथे में.... चूहे खाएगी..
चूहे खाएगी,
सोंच खाएगी,
नोंच खाएगी,
रोज़ खाएगी,
आँख उतरते-उतरते... उतर जाएगी...
- Vishwa Deepak Lyricist
तालीम के सरमायेदार!
बेरोज़गार फिर रहे
हैं लफ़्ज़ बेमानी हज़ार...
सूखे की मार!!
आँखों में दरिया काट के
जब से दिया सहरा उतार..
तालीम क्या, तहरीर क्या,
तहज़ीब... नाउम्मीदवार..
जा रे सुखनवर
अबकी बार,
बनके शुतुरमुर्ग रेत में
सर डालना जो ज़ार-ज़ार,
एक बूंद भर हीं थूक में
हो जाना गर्क बेइख्तियार...
ईमां के पार..
हैं कूच कर गए सभी
दानिश्वर क़ुव्वत उजाड़..
तालीम के सरमायेदार,
तारीक़ के सरमायेदार..
- Vishwa Deepak Lyricist
शाम की खिड़कियाँ खोल के,
साज़ में मुरकियाँ घोल के,
आ उतर जा गोरी चाँदनी,
आँख की झिड़कियाँ तोल के...
बेहिसी में पड़ी
ख्वाहिशें बावरी
दो पलक मोड़ के
ताकती हैं हर घड़ी -
पूछती हैं कब मिले
रोशनी के काफिले,
खोजती हैं कब दिखे
ज़िंदगी के सिलसिले -
ज़र्द इनकी देह पर
रख दे दो-इक अंगुली
ओ री भोली चाँदनी,
नर्म-सी कुछ बोलियाँ बोल के...
साज़ में मुरकियाँ घोल के..
- Vishwa Deepak Lyricist
मुझमें ढूँढे तू खालीपन?
मैं तुझसे तुझतक फैला हूँ!
मैं हूँ तो तू खाली कैसे?
तू है तो मैं खाली कैसे?
ना खला कहीं... हरसू हम हैं..
___________________
तुझसे होकर मैं यूँ गुजर जाऊँ,
तेरी बाहों में सोऊँ, मर जाऊँ...
इक सिरा मेरी रूह का
अटका हो मेरे सहरे से
दूसरा सिरा लेके मैं
तेरे साहिलों से उतर जाऊँ..
तेरी बाहों में सोऊँ.. मर जाऊँ..
तू काँटें दे या फूल हीं
या बंद कर ले पंखुड़ी
मैं ओस बनके आज तो
तेरी क्यारियों में बिखर जाऊँ..
तेरी बाहों में सोऊँ.. मर जाऊँ..
- Vishwa Deepak Lyricist
गर
मालूम हो कि
दो कदम पर मौत हो
और
कदम दर कदम
तुम चल रही हो साथ मेरे...
तो
किस तरह
उतार दूँ ज़िंदगी?
तुम्हारा रहना
कचोटता रहेगा मुझे
और
तुम्हारा जाना
भी तो
मौत से कम नहीं....
____________________
तुम्हें छोड़ आया हूँ वहीं
जहाँ तुमने कभी छोड़ा था मुझे...
अबकी बार
चलो
साथ चलें दोनों
और लौट आएँ अपने-अपने रास्ते..
फिर
न तुम पर कोई इल्जाम,
न मुझ पर कोई इल्जाम...
- Vishwa Deepak Lyricist
सड़क तो अब भी है,
पर तुम सरक सको तो मानूँ!!!
तुम चलने हीं वाले थे
कि मैंने
तोड़ दी रीढ की हड्डी..
बस इन माँस के लोथड़ों से
तुम उचक सको तो मानूँ...
सड़क तो अब भी है...
- Vishwa Deepak Lyricist
मैंने सौ चेहरे रखे,
एक-दो गहरे रखे..
बोलती बाज़ी रही,
बेज़ुबां मोहरे रखे..
लफ़्ज़ बेमानी रहे,
मायने दुहरे रखे..
डूबती आँखें रहीं,
ख्वाब पर ठहरे रखे..
भागती "तन्हा"ई थी,
दर्द पर पहरे रखे..
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं कैसे लिखूँगा कुछ अच्छा-खराब,
मुझे इस अदब की समझ हीं नहीं है..
मुझे ज़िद्द पड़ी है समझ लूँ उसे मैं,
उसे इस तलब की समझ हीं नहीं है..
मैं बे-ज़ौक़ हूँ गर तो ये क्या है कम कि
मुझे शौक है कुछ नया कहता जाऊँ,
वो बे-कैफ़ कहके हीं सुन लें तो वल्लाह!
मैं तारीफ़ मानूँ, बयां करता जाऊँ..
मेरे वास्ते तो ये रांझे की बातें
मेरे रूबरू हीं बनी हैं, चली हैं..
ना मालूम उसे क्यों लगे कुछ अजब-सा,
कि हीरें जहां की सभी बावली हैं...
मैं चाहूँ कि हम दोनों चाहें यही पर,
उसे इस कसक की समझ हीं नहीं है..
मुझे ज़िद्द पड़ी है समझ लूँ उसे मैं,
उसे इस तलब की समझ हीं नहीं है...
- Vishwa Deepak Lyricist
ना, तुम्हारे पन्नों पे नहीं बसता मैं...
तुम्हारे पन्नों पे
या तो हैं राजप्रासाद
किन्हीं किन्नर-किन्नरियों के,
या हैं स्नानागर
ऋषि-मुनियों के
जो परखते रहते हैं
कमल का कौमार्य
या फिर
हैं दूतावास
सुर-असुरों के
जिनके कबूतर
छोड़ जाते हैं पंख
बहेलियों की लेखनी के लिए...
तुम्हारे पन्नों पे
नहीं बसता.... मुझ-सा कोई मनुष्य
जिसे चुभता है
पेंसिल का ग्रेफाइट भी
और जिसे स्याही की कालिख
मंहगी है
दो जून के कोयले से...
तुम्हारे पन्नों पे
नहीं बसता... वह हर कोई
जो राजसूय के घोड़े की
नाल से बंधा है
या पिसा जा रहा है
घास की टूटती तलवारों के बीच...
ना, तुम्हारे पन्नों पे नहीं बसता मैं...
- Vishwa Deepak Lyricist
तथास्तु!
और तभी
क्षणभंगुर हो गया
क्षण..
मैं तब से
ढूँढ रहा हूँ उस सुख को
जिसके दंभ ने
तोड़ दी थी
दु:ख की सहनशक्ति
और
तप उठा था दु:ख
समय के तपोवन में...
एक तथास्तु
और
क्षणभंगुर हो गए थे
क्षण,
सुख,
दु:ख.... सभी....
मैं तभी से व्यथित हूँ
उस सुख से
जिसने न छोड़ा
दु:ख को भी
क्षण से अधिक का...
दु:ख-
ऋणी हूँ जिसका मैं
सदियों से
वह एक क्षण का मात्र?
क्या प्रयोजन,
वृथा है..
उससे श्रेयस्कर तो है
सुखकर मृत्यु...
और क्या!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं उस वक़्त
बरगद के उसी तने में
धँसा जा रहा था
जिसकी चौहद्दी में
बाँधती आई हो तुम
उम्मीदों के अनगिनत धागे...
उन धागों से
छिल-छिलकर
बरगद की छालें
समाती जा रही थीं
मेरे सीने में
और काटती जा रही थीं
साँसों के बेहया फंदों को,
फिर भी साँसें मुँह तक आकर
लौट जाती थीं सीने में
और रेंगने लगती थीं
आहिस्ता-आहिस्ता..
मैं या तो पत्तों के रास्ते
हो जाना चाहता था धुँआ
या पानी-पानी होकर
बह जाना चाहता था
जड़ की बेबस गलियों में
लेकिन मुझे न तो
ज़मीन नसीब थी
न हीं आसमान..
वे
जिस वक़्त नोंच रहे थे
तुम्हारे कपड़े
और उनके इरादे
पहुँच चुके थे
रात की अंदरूनी ग्रंथियों तक,
उस वक़्त मैं
नीरो-सा
शहतूत की उसी डाल पर
बैठकर बजा रहा था बांसुरी
जिसपे अगली सुबह
तब्दील होने थे
कुछ लार्वे प्युपाओं में...
उन नामुरादों ने
न सिर्फ
धज्जियाँ की
तुमसे लिपटे
सूत के कुछ रेशों की
बल्कि उनने तो
शहतूत की शाख हीं काट डाली
और
अगले हीं पल
मेरे हीं पैरों से दबकर
मर गए वे लार्वे,
मर गए वे सिल्क-वर्म्स
बालिग होने से पहले हीं...
कुछ लम्हात बाद
तुमने जब
ओढी थी चुप्पी की चादर
और लौट रही थी
घर
अपनी चीखों की
लावारिस लाशों के साथ
तो वहीं तुम्हारी परछाई से
दो गज ज़मीन नीचे
मैं उन रेशम के कीड़ों को दफना रहा था...
रेशम के कीड़े
जो हर पल बता रहे थे मुझे
कि मेरी औकात
ज़मीन के कीड़ों से बढकर
कुछ भी नहीं..
रेशम के कीड़े
जो हर साल
तुम्हारी ऊँगलियाँ छूकर
आ जाते थे
मेरी कलाई की कमर कसने...
रेशम के कीड़े
जिन्हें इस बार
राखी बनना गंवारा न था...
- Vishwa Deepak Lyricist
तुम क्यों देखते हो ख्वाब..
क्या ख्वाब में उतरता है कोई आदिपुरूष
और धर जाता है तुम्हारी नींद की सीपियों में
सच्चाई, सफलता और संभावनाओं के मोती..
क्या ख्वाब में
तुम्हारे गाँव के बरगद पर लौट आती हैं,
पिछली पतझड़ में भागी हुई गिलहरियाँ..
क्या ख्वाब में अंबर का इद्रधनुष
थमा देता है अपनी प्रत्यंचा तुम्हें
ताकि
बेध कर आसमान
उतार लो तुम
गंगा एक बार फिर..
क्या ख्वाब में
आँगन की तुलसी
सूखते-सूखते
पकड़ लेती है जड़ तुम्हारी मिट्टी की
और खींचकर सबकी आँखों से संवेदनाएँ
फुदकने लगती है फिर से..
शायद हाँ
तुमने यह सब देखा है
बंद आँखों से
और जब खोली हैं आँखें
तो खो चुका होता है वसंत,
कुचली जा रही होती हैं तुलसियाँ
और
अंबर का बाण खींचा होता है
तुम्हारी तरफ हीं..
तुमने जब खोली हैं आँखें
तो जा चुका होता है आदिपुरूष..
तुम्हें उसी आदिपुरूष की तलाश है,
बस इसलिए
तुम देखते हो ख्वाब!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
तुमसे सीखता हूँ,
तुमसे जलता हूँ
और यूँ
भरता रहता हूँ अपने लफ़्ज़ों की ऐश-ट्रे...
तुम मुझे "रोल" करते रहो ऐसे हीं..
यह नशा मौत दे तो भी बेहतर..
बस तुम कभी
किसी कश में
आदतन
कह मत देना कि
"धुम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है"...
तुम "आइडल" हो मेरे
"गार्जियन" नहीं,
समझे ना!!
- Vishwa Deepak Lyricist
अब भी तुम उसी "मैनहोल" पे खड़े हो,
जहाँ डूबती आई हैं
तुम्हारी लाखों पीढियाँ...
करोड़ों बजबजाते कीड़ें
उनके कानों में
करते रहे हैं गजर-मजर
लेकिन तुम्हारी पीढियाँ
बेसुध-सी
निहारती रही हैं
आसमान के रंगीन अमलतासों को
कि कब एक पत्ता टूटे
और उनकी आँखें
उस पत्ते पर बैठकर
कर आएँ दुनिया की सैर...
तुम भी तो
गुलमोहर पर बैठी
उस हारिल में
ढूँढ रहे हो
सोने के कारखाने..
तुम!
जिसने न चलना सीखा है,
न उड़ना
और जो खड़ा है एक "मैनहोल" पे...
- Vishwa Deepak Lyricist
परिवर्तन
एक पिंजड़े की तरह है
जिसमें कैद है भविष्य का कोई तोता,
वह तोता जो रंग बदलता है
अपने इर्द-गिर्द की हवा के हिसाब से,
वह तोता
जिसकी तन्दुरूस्ती का पलड़ा
उसके जायके से भारी है
और उसके हाव-भाव
इसपर निर्भर करते हैं कि उसे
चना मिला है या मिला है
आखिरी रोटी का आखिरी निवाला...
यूँ कहें तो
परिवर्तन की खुशहाली या तंगहाली
उसके रहनुमाओं, उसके रखवालों
के हाथों में है..
लेकिन हमें
उस तोते का इतना ख्याल होता है
कि हम
हर पल डरते होते हैं
एक अनदिखे, अनसुने बाज से..
इसलिए हम
निकाल कर उन खिड़कियों की सलाखें,
वहाँ चुनवा देते हैं दीवारें
ताकि
उस तोते के तोते न उड़ जाएँ...
फिर तो बस
साँस हीं लेता रह जाता है वह तोता
या शायद... उतना भी नहीं,
हम इस तरह भूल जाते हैं तोते को
और नज़र रखते हैं बस पिंजड़े पर...
अब यह पिंजड़ा
तब्दील हो चुका होता है
भानुमति के पिटारे में...
इस पिटारे से फिर
कब, क्या, कैसा तोता निकले,
ज़िंदा या मुर्दा
किसे पता...
ऐसे में
भविष्य बन जाता है बोझ
परिवर्तन के लिए
और परिवर्तन हमारे लिए...
चलो आओ
इस पिंजड़े की खिड़कियाँ खोलें
और दें
भविष्य के तोते को
ज़िंदादिली के जामुन,
फिर देखो कैसे उचककर
परवाज़ भरता है यह तोता
परिवर्तन के पिंजड़े के साथ...
फिर देखो....काहे का बोझ...
- Vishwa Deepak Lyricist
वह बेरहम मालिक-मकान
कल निकाल देगा मुझे
इस कमरे से...
आज भर का छप्पर है,
आज भर का बिस्तर है..
आज भर हीं नखरे हैं...
कल से मर-मर जीना होगा,
कल से साँसें लेनी होंगी..
कल कहीं बसेरा करना होगा,
किसी कोख में जाना होगा..
वो कोख भी तो उकता जाएगी.....
- Vishwa Deepak Lyricist
सब मरने के लिए हीं जन्मे हैं,
इसलिए
पेट पे गमछा और
मुँह पे लार
बाँधके
बार-बार यूँ
घिघियाया मत करो कि
तुम्हें मार रही है तुम्हारी भूख...
तुम्हारी खपत
थोक भर घोंघों
और मुट्ठी भर नमक से ज्यादा
तो होगी नहीं,
इसलिए खूरों से खेत की मिट्टी
और नाखूनों से कछार की तलछट्टी
खुरचते वक़्त
आसमान में अठन्नी देख
नज़रें लपलपाया मत करो,
बड़बड़ाया मत करो
कि तुम्हें मालूम नहीं
सूरजमुखी का सुनहला स्वाद,
कि तुम्हें हासिल नहीं
इन्द्रधनुष की रंगीन हवामिठाई...
सुनो!
नाली के पानी से
धो हीं लेते हो
अपना खुरदरा चेहरा
और कभी-कभार उतर हीं आती हैं
बारिशें
तुम्हारी झोपड़ी में
लेकर अपने लाव-लश्कर,
फिर
समय-कुसमय मेरे पौधों
की जड़ पकड़कर ऐसे
अपनी आँखों से तालाब
उबीछा मत करो,
उबाला मत करो
मेरे गमलों के "मनी-प्लांट" को..
अच्छा है कि तुम
खोदते हो अपनी आँखें,
खोदो.. जितना मन हो खोदो..
निकालते रहो नमक मन भर
और यही
नमक-पानी खा-पीकर
खूब मौज करो,
मस्त रहो...
बस
घिघियाया मत करो कि
तुम्हें मार रही है तुम्हारी भूख...
- Vishwa Deepak Lyricist
इन अधूरी रातों के ख्वाब
चमगादड़-से
मेरी आँखों में लटके रहते हैं...
मैं ज़मीं पर पटकता हूँ अंगूठा
तो
आसमान फोड़ने लगते हैं
ये सारे चमगादड़..
एक बिजली उतरती है
आँखों के बरगद पे
और चीरकर पत्तों का सीना
समा जाती है
नींदों की कब्र में..
देखते हीं देखते
चैन-ओ-सुकून के
सारे सरमायेदार मेरे
कब्र में हीं हो जाते हैं
फिर से
लकवाग्रस्त...
मैं बटोरता हूँ उनकी हड्डियाँ
और बाँधकर उनसे चमगादड़ों को
खड़े कर देता हूँ
कई सारे "कागभगोड़े"...
फिर
लहलहा उठती है
खुदकुशी यकायक..
और
बदमिजाज़
डरपोक ज़िंदगी
पास भटकती भी नहीं
रात भर....
- Vishwa Deepak Lyricist
मुझे खंडित कर दो,
मैं इस कालखंड का नहीं...
मेरे शिल्पी!
मुझे तुम्हारी अनभिज्ञता का
नहीं था बोध,
यदि होता
तो मैं
उस कालखंड को हीं
खंडित कर देता
जब तुमने किया था
मेरा सृजन...
मैं तुम्हारी भूल
या फिर
बाध्यता से
सारी कुंठाओं का
शब्दकोष हो चला हूँ,
हीनता के सैकड़ों
पर्यायवाची
विचर रहे हैं
मेरे पृष्ठों पर
और मैं क्षुब्ध हूँ
असफलता के अतिक्रमण से..
मेरे इर्द-गिर्द
विचारधाराओं की
अनगिनत दुंदुभियाँ हैं
जो
मस्तिष्क फोड़कर
ठूंसती हैं
कर्णदोष, दृष्टिदोष
और नहीं आने देतीं
शब्दों को मेरे
वचन से... कर्म तक...
इस तरह मैं
मनसा..वाचा..कर्मणा
हो रहा हूँ....अकर्मण्य..
ऊबकर
मेरी जिजीविषा
और
मेरे विचारों के सैनिकों ने
डाल दिए हैं धनुष-बाण
फिर
बाँधकर पाजेब
करने लगे हैं नर्तन
मृत्यु के अंत:पुर में..
(कलियुग के इस कालखंड में
मृत्यु
वैतरणी नहीं
मेरे शिल्पी!
ना हीं यह जीवन है
कोई यज्ञ-वेदी..
जीवन-मरण
मात्र एक भाग-दौड़ है
एक वेश्यालय से दूसरे वेश्यालय तक की..
आश्चर्य!
तुम्हें हीं ज्ञात नहीं
जबकि तुमने हीं गढी हैं वेश्याएँ...)
हाँ तो
इससे पहले कि
टूट जाएँ
पाजेबों के मेरूदंड
और मृत्यु
लूट ले मेरी जिजीविषा,
तुम सिल दो एक अर्थी
मेरे हेतु
और
खंडित कर दो मुझे..
खंडित कर दो मुझे,
मैं इस कालखंड का नहीं...
(मैं
ऋणी रहूँगा तुम्हारा
सदैव
मेरे अनभिज्ञ शिल्पी....)
- Vishwa Deepak Lyricist
खेल-खिलवाड़ के इस दौर में
कंचे की शक्ल में
नज़र आती है मुझे
यह दुनिया..
यह दुनिया
जो आजकल
थैली में है हमारी..
या तो हमने
अंटी मारी है
या
मगरूरियत में
मारा गया है वो
जिसने बनाया था यह खेल...
उसने हारकर
लगा ली है फाँसी,
समा गया है
कई सारे कोपभवनों में..
और हम?
जीतकर हार रहे हैं
क्योंकि
हमें कंचे से ज्यादा
फिक्र है
उन कोपभवनों की
हम शिकार हो रहे हैं
अपने डर
और उसके बड़प्पन का,
हम शिकार हो रहे हैं
उसके डर
और अपने बड़प्पन का..
सनद रहे!
उसके शमशान
सजाए हैं हमने,
पर हमारे शमशान?
हमारे हारने पर
कोई उतारने भी नहीं आएगा
हमें
क्रॉश से..
इसलिए
इससे पहले कि
कंचे-सी यह दुनिया
जेबों और हथेलियों में घिसकर
किरकिरी हो जाए,
आओ खींचे इसे हम
दो मंझली ऊँगलियों से
और उछाल दें आसमान में..
जो थम गई है
उसकी सीढियों पर,
जो थम गई है
हमारी थैलियों में,
उसे उतार दें एक धक्के से
सूरज के इर्द-गिर्द..
क्या कहते हो
कॉपरनिकस?
गैलीलियो?
हमारी मेहनत सफल तो होगी ना?
खैल-खिलवाड़ के इस दौर में...
- Vishwa Deepak Lyricist
नींद के दरवाज़े खोलकर
आई वो धीरे से...
न चश्मा उतारा,
न कपड़े बदले,
न हँसी,
न रोई,
न हिचकी,
न ठिठकी..
बस मुड़ी मेरी ओर
और
खींच कर मुझे
समा गई बिस्तर में...
बदचलन मौत!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
तुम्हारे पुरखों ने
रात भर
जलाई थी चिलम,
रात भर
ऊँगलियों से
फोड़ा था तारों को
और रात भर
रेगनी के काँटों को
तोड़कर नाखूनों से
दी थीं माँ-बहन की गालियाँ..
ये
तुम्हारे पुरखें
फड़फड़ाते रहते थें
रात भर
पर-लगी चींटियों की तरह
और आखिर में
समा जाते थे
किन्हीं कोटरों में
तिलचट्टों-से..
उन्हीं रातों में
जब तुम्हारे पुरखे
बेशर्मी की फटी चादरों पे
उतारते होते थे
अपना बड़बोलापन,
कोई
ठूंस जाता था तुम्हें
तुम्हारी
महतारियों की कोख में...
और तुम कमबख्त,
आधे क्लीव
और आधे कोयले की संतानें,
निहारते रहते थे
रात भर
अपनी माँओं की
प्रसव-ग्रंथियाँ,
नोचते रहते थे
रात भर
अपनी माँओं के जिस्म..
नोचते रहते हो
आज भी
अपनी माँओं के जिस्म
सरेआम सड़कों पे..
काश!
तुम्हें गर्भ-नाल से तोड़कर
और खींचकर चिमटे से
डाल लिया होता
तुम्हारे पुरखों ने
चिलम में..
फिर
लेते एक कश
और हो जाती
तुम्हारी मर्दानगी... हवा!
काश!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
चलो छोड़ो..
शाम यूँ हीं
शरबत-से समुंदर पर
शक्कर-से सूरज-सी
सरकती हुई
बुझ जाएगी..
तुम्हें क्या!
तुम तो
रात की चटाई पे
राई-से तारों को
बिछाकर
चुनने लगोगे
कालिखों के ढेले,
गर कभी चाँद
हाथ आया भी तो
कहकर
उजला कंकड़
फेंक दोगे उसे
उफ़क की नालियों में...
सुबह होते-होते
तारे
समा चुके होंगे
कोल्हू में
और फैल चुका होगा
चंपई तेल
आसमान पर..
सुबह होते-होते
तुम भी
बन चुके होगे
एक कोल्हू...
खैर छोड़ो,
तुम्हें क्या...
- Vishwa Deepak Lyricist
छल और मर्यादा के बीच
कृष्ण का वह पाँव
खड़ा है
जो हुआ था छलनी
जरा के बाणों से..
(वही पाँव
जिसने एक ठोकर में
ठेल दिया था
बलि को पाताल में
तो दूजी में
अहिल्या को
दिया था
जीवन-दान..)
बाण तब भी चले थे
जब कृष्ण ने छुपा लिया था
बरबरीक से एक पत्ता..
तब क्यों न बिंधा वह पाँव?
(तब तो कटा था
एक निरपराध का सर..)
कृष्ण ने तो
एक पग में हीं
नाप लिया था
सारा का सारा कुरूक्षेत्र..
वह पाँव
तभी गिरा
जब रूक जाना था
थक कर उसे..
छलनी होना तो
एक छलावा था मात्र,
मर्यादा का मन
और
छल का मान रखने के लिए...
- Vishwa Deepak Lyricist
त्राहिमाम...
सन्नाटे रात के
चीखते हैं
जब कूद्ती हैं उनपे
सौ कानों में ठेली गईं
तुम सब की
चापलूसी आवाज़ें..
भाई,
भेड़ियाधसान
भीड़ है यहाँ
विचारधाराओं की
और तुम
हर क्रॉश, हर त्रिशूल, हर चाँद पर
अपनी अमूल्य सोच का
लेबल चिपकाते फिरते हो..
हज़ार... हज़ार एक...हज़ार दो...हज़ार तीन,
चलो
तुम भी कर लो गंगा-स्नान
और बजा के अपनी दुंदुभि
फोड़ दो
रात के इयर-ड्रम्स...
दिन तो
मर हीं चुका है
पीलिये से,
अब रात के कानों से भी
खींचकर खून
कर दो उसे मरीज़
एनीमिया का...
मैं नहीं कहता,
लेकिन
ऐसे में
इंसानियत की दिनचर्या
किसी से लोहा न ले पाए... तो मत कहना!!
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं शायद तुम्हारी नब्ज नहीं जानता..
तुम्हारे ललाट की बारीक रेखाओं
और उनकी गुत्थम-गुत्थी
में हीं उलझा रहता हूँ मैं,
न देख पाता हूँ
उस ललाट के आसपास की सजावट,
छूट जातीं है मुझसे
तरतीब में सजी
तुम्हारी भौहों की समतल क्यारी
और वहीं
बगल से गुजरती
काजलों की पगडंडी,
न सुन पाता हूँ
"आवारे सज्दे" करतीं
तुम्हारी बालियों की
बेटोक धमाचौकड़ी
और
तुम्हारी आवाज़ की
असरदार घंटियाँ
क्योंकि मैं
तुम्हारी खामोशियों से हीं
अलिफ़, बे चुनता रहता हूँ..
तुम्हारे आईने
करते हैं तुम्हारी खुशामद
और मैं जब
तफ्सील से
बताता हूँ तुम्हें
तो
कुरेदने लगती हो तुम
हमारा रिश्ता
पैर के नाखूनों से
और मेरी हथेली पर
लगाकर
नासमझी का ठप्पा
दबाने लगती हो
अपने तलवे से
मेरी भलमनसाहत;
मैं ताकता रह जाता हूँ तुम्हें
और तौलने लगता हूँ
तुम्हारी आँखों में अपनी परछाई..
मैं बेरोक
बुनता रहता हूँ
अपनी धड़कनों से तुम्हारी धमनियाँ
और खींचता रहता हूँ
ज़हरीले जज़्बात
तुम्हारी शिराओं से
अपनी साँसों में..
फिर भी
तुम्हारी चूड़ियों में
नहीं उतरता मेरे खून का लाल रंग..
मैं
टटोलकर देखता हूँ
तुम्हारी कलाई,
तुम झल्लाती हो
और
खुल जाती हैं
बहत्तर में से छत्तीस
खिड़कियाँ किसी और के लिए..
मैं यकीनन तुम्हारी नब्ज नहीं जानता..
- Vishwa Deepak Lyricist
तुम लिख लेते हो..
रात भर या तो तिलचट्टे
के बादामी बदन,
छह टांगों
और कागज़ी पंखों
में ढूँढते रहते हो
बदरंग और
बजबजाती किस्मत के रहस्य,
जो भागते रहते हैं तुमसे
बिलबिलाकर..
या फिर किसी तिलमिलाते
"तिल" की
तरेरती आँखों में
गोंद डालकर
चिपकाते रहते हो
अपना प्रणय-निवेदन
और हार जाने पर
उन्हीं आँखों के मटियल पानी में
चप्पु थमाकर
उतारते रहते हो
अपनी कुंठा
ताकि
जितनी आगे बढे
तुम्हारी छिछली सोच,
उतनी हीं छिलती जाए
"उन" आँखों की अना..
अफ़सोस!
तुम न तो
कर पाते हो
अपनी किस्मत पे काबू,
न हीं उड़ेल पाते हो
"उन" आँखों में अमावस..
फिर भी,
करते हुए
तिल का ताड़,
तुम
लिखते रहते हो..
तुम लिख लेते हो!!
- Vishwa Deepak Lyricist
बदचलन मेरी आदतें
गर आपकी
अर्दली हो जाएँ तो
मेरे माथे पे चढाया
बेहयाई का ये परचम
कुछ झुकेगा
या नहीं?
बोलिए तो...
आपकी गर मानें तो
मेरी इन हथेलियों के
आड़े-टेढे रास्तों पे
जो उतरते हीं नहीं है
आफताबी सात घोड़े
वो मेरी बदरंग तबियत
की मेहर है..
इसलिए गर
आपकी तदबीर से
माँगकर कुछ कोलतार
डाल दूँ इन
सरफिरी पगडंडियों पे
और कर दूँ
पक्की सड़कें मैं इन्हें
तो मेरी
माटी भरी तकदीर का
हो पड़ेगा काया-कल्प
या नहीं?
बोलिए तो...
बदसलूकी करते मेरे
अल्फ़ाज़ ये
आपके हम्माम में
धुलने लगें हर रोज़ तो
"बेरूखी" और "बेबसी" के हर्फ़ सब
बह जाएँगें..
यूँ हुआ तो
आपके खलिहान के
किसी छोर पे
इक लेखनी के वास्ते
एक-आध हीं सरकंडे मेरे
बोलिए
उग पाएँगे
या नहीं?
बोलिए तो...
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं यहीं कहीं मिलूँगा
किसी कनस्तर में
पड़ा हुआ
औंधे मुँह..
सड़ता हुआ
या सड़ चुका..
तुमने छुपाया था मुझे
अपने मुस्तकबिल के लिए
बड़े जतन से..
बचाया था मुझे
लम्हा-लम्हा बटोरकर..
कभी जोड़कर
हँसी की दो कतरनें
तो कभी उम्मीदों के
दो बेतरतीब धागे
गूँथकर
तो कभी सहेजकर
आँखों से गिरतीं
कई बेमोल गिन्नियाँ..
मैं हर गिन्नी, हर धागे, हर कतरन
में ज़िंदा था
किसी हौसले-सा..
और तुम
उसी हौसले से
अपना ख्याली महल गढे जा रहे थे..
उस महल में सेंध लग गई
जब
पिछली अमावस
तुम्हारे अपने हीं
बहुरूपिए कारीगरों ने
कुतर डालीं वे कनस्तरें...
और आज जब
मायूसियों की मुर्दानगी
उतर आईं हैं इन खंडहरों में
और कालिखों ने
नोच डाली हैं दीवारें
अपने नाखूनों से
तो उस चूरन से दबकर
यहीं कहीं पड़ा हूँ मैं औंधे मुँह..
अफसोस!
अब न बचेगा तुम्हारा मुस्तकबिल!!
न बचेगा तुम्हारा महल!!!
मेरा क्या..
मेरी क़ीमत सिफर थी पहले.... औरों के लिए
सिफर हो गई आज...तुम्हारे लिए भी..
मैं अबूझ था पहले,
अबूझ हूँ आज भी.....यकीनन!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
चलो चाँद की चाहरदीवारी तोड़ आएँ,
चलो लूट लें एकबारगी हक़ शायरों का...
चलो जाग लें जुगनू की रोशनी तले,
चलो छीन लें खामोशियाँ सब रात से...
चलो जान लें है जानलेवा ज़िंदगी,
चलो जान दे के मौत से रेहन छुड़ा लें...
चलो बात कर के शब्द को बेमानी कर दें,
चलो शांत रह के छोड़ दें सागर नदी में...
चलो नींद पी के ख्वाब को जबरन उठा लें,
चलो ख्वाब ला के नींद को जी भर धुनें...
चलो आस रख के फिर से लुट जाएँ यहाँ,
चलो प्यार कर के आखिरी जेवर गवां दें...
चलो...
चलो चाँद की चाहरदीवारी तोड़ आएँ...
चलो प्यार कर के आखिरी जेवर गवां दें...
- Vishwa Deepak Lyricist
पत्थर है कि ख़ुदा है,
इंसान जाने क्या है!
टूटेंगीं मूरतें अब,
मंदिर का सर झुका है..
शब्दों की धांधली है,
मुर्दा भी जी चला है..
छूटोगे मुझसे कैसे,
"तन्हा" तो एक बला है...
- Vishwa Deepak Lyricist
उसने तुम्हारी बात नहीं मानी
तो तुमने
उसकी गर्भ-नाल की पवित्रता पर
डाल दिए प्रश्न-चिन्ह!
वह जब तक चुप रहा,
जब तक
देता रहा तुम्हारे अहम को आँच,
जब तक
उसने छुपाई रखी तुम्हारी नपुंसकता,
तब तक
तुमने उसे जगह दी अपनी मूंडेर पे
और वह कौए-सा
करता रहा
तुम्हारे हर दोमुँहेपन का स्वागत
चाहे-अनचाहे!
और आज..
आज जब उसने
पाँव की कील से
ज्यादा अहमियत दी
अपने पाँव को
तो तुमने
डाल दिए प्रश्न-चिन्ह
उसकी गर्भ-नाल की पवित्रता पर!!
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं रात की जेब में चाँद छोड़ आया था...
बादल के झीने कपड़ों से झांकते चाँद को
धड़ दबोचा था बेहया चांदनी ने
सुबकते चाँद की आँखों में
चुभो डाले उसने दो मखमली लब..
अंधी होते-होते रह गई थी रात...
उस रात का चाँद रोता है अब भी..
तुम ओस चुनते हो,
मैं आँसू पोछता हूँ!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
चार पल के चोचले हैं,
फिर वही हम दिलजले हैं...
बेनियाज़ी आज होगी,
बेमुरव्वत हौसले हैं...
तुम कहाँ के बादशाह हो,
हम कहाँ के बावले हैं...
दिल जियेगा किस लिए अब,
साँस में जब आबले हैं...
बे-बहर की ये ग़ज़ल है,
शेर सारे मनचले हैं...
- Vishwa Deepak Lyricist
रहेगा रास्तों में हीं उलझकर,
हमेशा जो सहारों पे जिया है...
************************
रहेंगे रास्तों में हीं उलझकर,
कहाँ मंज़िल पे ऐसी वादियां हैं...
उड़ेगी खाक तो सूरज डरेगा,
बड़ी गफ़लत में तेरी आंधियां हैं...
बड़े जो हो चले हैं बाजुओं सें,
बिना चप्पु की उनकी कश्तियां हैं...
तरफदारी करेंगी क्या हमारी,
कलाकारों की झूठी हस्तियां हैं...
हटा दो ज़िंदगी से ये लड़कपन,
कि अब शाइस्तगी की बाज़ियां हैं...
शाइस्तगी = culture, सभ्यता
- Vishwa Deepak Lyricist
मुझे इस बात पे रोना पड़ा है
कि यूँ जज़्बात को ढोना पड़ा है..
जिसे बुनियाद का पत्थर कहा था,
पकड़ के आज वो कोना, पड़ा है..
जो हर एक ख़्वाब में शामिल रहा था,
उसे हर याद में खोना पड़ा है..
दिल-ए-महबूब से कू-ए-हवस तक,
मुझे बदनाम हीं होना पड़ा है..
(ख़ुदा के दैर से काफ़िर-गली तक,
मुझे बदनाम हीं होना पड़ा है..)
जवां उस चाँद के थे सब, मगर अब
उसे भी रात में सोना पड़ा है..
(यहीं फुटपाथ पे सोना पड़ा है..)
- Vishwa Deepak Lyricist
साँस में
उठते हुए धुएँ से कालिख काट के,
कैक्टस की शाख से काँटों का राशन छांट के,
रेत की बेचैनी को बहती नदी से बाँट के,
तालु की बिवाई और जिह्वा की दूरी पाट के
जी उठूँगा मैं जभी
जान लेना बस तभी
दर पे मेरे आई है...... मौत तकरीबन!!
आँख के
खलिहान की फसलों से पानी लूट के,
होश की अमराई पे मंजर चढा के झूठ के,
रीढ की चट्टान से पीपल के जैसे फूट के ,
रात की अलमारियों में नींद भर के, छूट के,
सो चलूँगा मैं जभी
जान लेना बस तभी
सर पे मेरे आई है..... मौत तकरीबन!!
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं जैसे ठहर-सा गया हूँ..
समुंदर में गोते लगाते हुए भी
यूँ लगता है मानो
पानी की सतह पे जम-से गए हैं मेरे पाँव..
मैं बस एक बूँद को तकता रहता हूँ..
या तो उस बूँद से निजात मिले
या
उड़ चले वह बूँद भी मेरे साथ-साथ..
अबके मानसून में मैं छूना चाहता हूँ आसमान को..
- Vishwa Deepak Lyricist
रात की तराजू ले
घोड़े बेचकर
नींदें खरीदने का रिवाज़
गुजर गया है शायद..
आजकल
नहीं समाते
एक हीं पलड़े पर
नींद और ख्वाब..
कमबख्त
छटांक भर का ख्वाब
मन भर के नींद पर
कितना भारी है!
सोचता हूँ
ख्वाब बेचकर नींदें खरीद लूँ
या बेच दूँ नींदों को
ख्वाबों की खातिर?
बेशक़
मुहावरे के सारे घोड़े
बेमोल, कम-वज़न हो गए हैं,
जब से सपनों ने सीख लिया है उड़ना
- Vishwa Deepak Lyricist
लटें
कान के पीछे,
कुछ-कुछ आँखों पर,
एक-दो नाक के ऊपर
हसुली जैसे
एक-चौथाई चाँद-सी,
दो-चार चूमती गालों को
और
बाकी जंगल के अनछुए रस्तों की तरह
गरदन के इर्द-गिर्द
तो कुछ गरदन के परे
फ़लक से ज़मीं की ओर....
इन्हीं लटों ने
बाँध रखा है मुझे.
कभी उतार देती हैं आँखों में
तो कभी कराती हैं सैर जिस्म की..
इनसे छूटूँ तो सोचूँ -
जहां में और क्या है,
इनसे बंधकर
तो जहां है... बस तुझसे तुझ तक....
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं नहीं जानता इस "मैं" को!
मैं एक "मैं" को जानता था पहले,
जानता था तब तक
जब तक तुम्हें नहीं सौंपी थी मैंने
उस "मैं" की जिम्मेदारी..
अब न तुम हो,
न वो "मैं" है
और जो आजकल
मुझमें "मैं" बनकर रहता है
वह या तो सौतेला है मेरा
या रहता है सातवें आसमान पर..
या फिर दोनों है...
क्या मालूम!
सुनो,
मेरे उस "मैं" से मन भर गया हो
तो भेज दो बैरंग
या
ले आओ साथ में..
मैं बेचैन हूँ -
अपना यह नया "मैं"
सौंपने के लिए तुम्हें,
तुम्हारे हीं लायक है
खूब जमेगा तुम पर...
- Vishwa Deepak Lyricist
मुझमें पनपता है गुस्सा हर दिन
और रात तक यह चाह उग आती है
कि इस गुस्से की पूँछ पकड़
खींच लूँ अपनी पेशानी से
और फेंक आऊँ किसी "नामुराद" के कानों में..
यह कनगोजर वहीं का बाशिंदा है,
रह लेगा वहाँ मज़े से..
लेकिन फिर सोचता हूँ कि
यह चाह वापस न ले आए
इस परजीवी को फिर मुझ तक..
यह गुस्सा रहे तो भी आफत,
जाए तो भी आफत...
- Vishwa Deepak Lyricist
चलो
यहीं
इर्द-गिर्द
दो खेमें बाँट लें हम...
तुम उस तरफ़,
मैं इस तरफ़,
तुम माटी-माटी राग दो,
मैं पानी-पानी झाग दूँ,
तुम ढीठ हो लो ऐश में,
मैं रीढ मोड़ूँ तैश में,
ना भाऊँ मैं तुम्हें आँख एक,
ना मानूँ मैं भी धाक एक
और आएँ जब हम सामने
तो यूँ लगे कि ना कहीं
अब एक-दूसरे के हीं
दो कान काट लें हम...
दो खेमे बाँट लें हम...
जब यूँ कदम दो ओर हों,
ना दुश्मनी का तोड़ हो,
जब सारा जग या तो इधर
या उस तरफ़ उस छोर हो,
जब सब कहें कि दो बुरे
में से कोई एक हम चुनें,
तो इर्द-गिर्द झांक के,
गुड़-चीनी गिन्नी फांक के,
जो पुल बना हो बीच में,
उसको नखों से खींच के
वहीं खाई में हम डाल दें,
और इस तरह इक चाल से
उन दूरियों को तब हीं तब
खुश हो के पाट लें हम...
दो खेमे बाँट लें हम...
- Vishwa Deepak Lyricist
अब कि
तुम्हारे फिसलनदार कोटरों में
वह माद्दा नहीं कि
मेरी परछाई तक तो थाम सकें...
ये तुम्हारी दो "गज़ाल-सी आँखें"
नदी भर-भर रोती रहें
या डूब मरें उन्हीं में,
मैं किनारे के पत्थर-सा
बैठा रहूँगा वहीं,
भले तुम भिंगोती रहो मुझे,
लेकिन मैं न राह दूँगा... न हीं हाथ...
हाँ, इतनी मेहरबानी करूँगा
कि
जब तुम सर या पैर दे मारो मुझपे,
तो मैं
सहेज के रख लूँ खून के कुछ कतरे
जो यकीनन हैं मेरे हीं...
याद है? -
मेरी उस दुनिया
की चूने वाली दो दीवारों पर
कत्थई रंग से तुमने लिखा था
मेरा नाम कभी
और मैं हर बार अपने नाम के रस्ते
तुम्हारे नाम, तुम्हारी पहचान में उतर आता था
और इस तरह मुकम्मल हो जाता था मैं,
मुझे लगता था
कि दो पहचानों ने एक पहचान को जना है...
तुमने न जाने कब
उन दीवारों में खिड़कियाँ ठूंस डालीं,
न जाने कितनी बार
खुल चुकीं है वे खिड़कियाँ अब तक..
आह!
कत्थई को कालिख कर दिया तुमने!!!
अब
तुम्हारी इन फिसलनदार कोटरों में
वही ठहर सकता है
जो नाखून टिका दे इनकी ज़मीं पे
या छील आए इन्हें
जैसे कोई हटाता है
काई अपने आंगन से..
मैं न कर पाऊँगा ऐसा
क्योंकि इन कोटरों में
कभी रहा था मैं
अपना हक़ जानकर...
- Vishwa Deepak Lyricist
इंसान इतना असहिष्णु हो गया है..... आखिर क्यों?
क्यों "ऊष्मा" को उचक कर सीने से लगाता है,
लेकिन बर्ताव में हल्की-सी ठंढक भी "सह" नहीं पाता...
बर्फ़ का एक टुकड़ा छू भर जाए कि
मियादी बुखार के मरीज-सा झल्ला उठता है
और करने लगता है उल्टियाँ
अपने "बड़े" कामों की,
दिन-रात सीने पे चिपकाए फिरता है
अपना बड़प्पन ताम्र-पत्र-सा..
आखिर क्यों?
माना तुमने ये किया है, वो किया है
लेकिन सामने वाले ने कुछ और "ये" "वो" किया है,
न तुमने "वो" किया है,
न उसने "ये",
फिर काहे की ये "साँप-सीढी",
काहे का ये "पहाड़-पानी"...
तुम अपने घर खुश,
वह अपने घर खुश,
हाँ अगर रास्ते मिले कहीं
तो खुद को हाई-वे और उसे पगडंडी
साबित करने की ये कोशिश...... आखिर क्यों?
तुमने खुले मंच से अपने भाषण पढे
और तुम्हारे शब्द
उसके कान और नाक को नागवार गुजरे
कील-से चुभने लगे उसके पाचन-तंत्र में
तो उसने एक हल्की झिड़की
उड़ेल दी अपनी आँखो से
और तुम बरस पड़े दुगने भाषण के साथ...
यहाँ गलत क्या था?
तुम्हारा भाषण,
तुम्हारा भाषण उसका सुनना,
तुम्हारा भाषण उसे सुनाना,
तुम्हारे भाषण का उसे नागवार गुजरना
या वो हल्की-सी झिड़की?
तुम सोचो..
आखिर कुछ तो गलत था कि
संगीन हो उठा माहौल... आखिर क्यों?
- Vishwa Deepak Lyricist
सनद रहे!!!
आसमां की अंतड़ियों में
अम्ल डाल के बैठे हैं जो
उनकी नाजुक जिह्वाओं पे
अमलतास के बीज पड़ेंगे -
ऐसे ख्वाब संजोने वाले
उन सारे कापुरूषों पे अब
जीर्ण-शीर्ण हीं सही मगर कुछ
खंडहर बनने को आतुर
मेरे भूत के पुण्य दो-महले
उसी अम्ल की बारिश चुनकर
सर से नख तक ठप-ठप, ढप-ढप
बनकर कई सौ गाज़ गिरेंगे..
हाँ
हाँ
आज के आज गिरेंगे...
सनद रहे!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
मेरे तमाम शब्द काल-कवलित हो गए हैं...
मैं अब लम्हों की लाठी लिए चल रहा हूँ बस,
कोई कागज़ की ज़मीन दे तो मैं उन लम्हों को गाड़ आऊँ
और कोल्हू के बैल की तरह बाँध आऊँ अपनी लेखनी को उस खूँटे से..
सालों तक घिसकर कम से कम एक शब्द तो बह निकलेगा -
या तो खून से या पसीने से लथपथ!!!
शब्दों के बिना मैं अपाहिज़
"अथाह शून्य" में लोटपोट कर रहा हूँ
सदियों से....
- Vishwa Deepak Lyricist
गुस्ताख निगाहों से तकता है वह तुम्हें
और तुम
अपनी नाकामयाबी का सारा ठीकरा
फोड़ देते हो उसके सर..
उसकी कालिंदी में डूबते-उबरते हो हर लम्हा
लेकिन
कतराते हो उसके किनारों कि छुअन तक से,
भूल जाते हो कि
उसी कालिंदी-कूल-कदंब की डालियों पे तुमने
मर्म जाना था कभी
कदम फूंक-फूंक रखने का..
वह उम्र भर के तमाम झंझावातों को
जज़्ब करता रहा है अब तलक,
ऐसे में कभी जो
फाड़ कर दिल की ज़मीं
निकल आई है झुंझलाहट
तो वह
मनमानी नहीं,
मजबूरी है एक-
खामियाज़ा है महज
किसी शिशुपाल की सौवीं भूल का..
वह जो बलराम-सा हल लिए
जोतता रहता है तुम्हारे खेत,
खेत तुम्हारी ज़िंदगी का,
खेत तुम्हारे मुस्तकबिल का;
उसकी ज़िंदगी की शाम में
तुम उसे आध दिहाड़ी तक नहीं देते -
वह कोई बंधुआ मजदुर तो नहीं,
पिता है तुम्हारा...
पिता है मेरा,
पिता है मेरा!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
कुछ कहानियों का मुझे औचित्य हीं नहीं मालूम चलता... बड़ी बेबाकी से बारीकियों तक वे इस कदर समा जाते हैं मानो देह के ऊपरी तल्ले से नीचले तल्ले तक का रास्ता बस उन्हें हीं पता हो और ऊपर वाले ने उन्हें यह उत्तरदायित्व सौंपा हो कि बड़े या खुले मंच पर इन परतों को खोल आओ ताकि अपनी "शारीरिक संचरना" से अनभिज्ञ जनता इस तिलिस्मी जानकारी से लाभ ले सके
हाल-फिलहाल में खुले मंच पर ऐसी दो कहानियाँ खुली पाईं मैने... खुली थीं तो पढ ली.. पढ लीं तो अब तलक सोच हीं रहा हूँ कि...
कोई बताए मुझे कि क्या हर चीज़ परदे के पार आ जानी चाहिए... क्या इसे हीं प्रगति करना कहते हैं..अगर ऐसा है तो भई मैं तो रूढिवादी या छोटी सोच का इंसान हूँ...... यकीनन!!
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दीवान-ए-खास को हैं वो दीवान-ए-आम कर गए,
बेगानों की गली में जो बिस्तर नीलाम कर गए...
कागज़ पे जिस्म खोल के लाखों की लेखनी ली,
आखर जो ढाई थे उन्हें कौड़ी के दाम कर गए...
पत्थर के पीछे आईने रखते गए, चखते गए,
किस्से खुले तो आप को झटके में राम कर गए..
जिनके लिए सदियों की हैं बेड़ी-से उनके पैरहन,
रस लेके उनके देह से उनको हीं जाम कर गए..
यूँ तो हैं आध-एक हीं लफ़्ज़ों के सिकंदर मगर,
भूसे में बन के आग वो अपना हैं काम कर गए..
माना कि है हुनर इक रखना बेबाक सब कुछ,
पर जो थे बे-लिबास वो इज़्ज़त तो थाम कर गए..
Vishwa Deepak Lyricist
*आप = अपने-आप, खुद
पैरहन = कपड़ा