हाँ ये ज़ाहिर है कि तू मेरा नहीं, उसका तो है,
उस खुदा का जिसने मेरा दिल है तेरा कर दिया...
क्या कहूँ इस कुफ़्र को- थोड़ी अदा, थोड़ी जफ़ा?
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तुम जीते-जी जी न पाए,
मैं मरता था, सो मर न पाया....
असर अलग पर हश्र एक-से..
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वह वहीं होता है जहाँ मेरी भनक बसती है,
वह वहीं होता है जहाँ मेरी तलब उठती है..
तलबगार भी वही है, तलब भी तो है वही...
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चलो दूरियों को अपनाएँ,
चलो खामखा झगड़ा कर लें..
यही दवा है ग़म-ए-इश्क़ की..
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मुद्दत हुई, मैंने तुझे देखा न उस तरह,
हरेक तरह देखा है पर, मुद्दत से तुझे हीं..
मुद्दत हुई हर इक तरह में "वह" तरह रखे...
- Vishwa Deepak Lyricist
2 comments:
तुम जीते-जी जी न पाए,
मैं मरता था, सो मर न पाया....
असर अलग पर हश्र एक-से..
बहुत खूब ..... सभी त्रिवेणियाँ बहुत अच्छी
bahot achcha likha hai......
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