Friday, September 21, 2012

ज़िंदगी , मौत


उतार दूँ ज़िंदगी का ये चोंगा,
कि पैरहन मौत के लाजवाब-से हैं..

बस इक आलस ने रोक रखा है मुझे...

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रात तिनके-सी उड़ती आती है और
चिमटे-सी खींच कर ले जाती है साँस को...

मैं जलाता हूँ या जलता हूँ - मालूम हीं नहीं चलता...

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हंगल साहब के लिए:

इक "सन्नाटे" ने छोड़ा शोर का साथ,
अब आवाज़ को ऊँगली पकड़ाए कौन?

वो गया तो अदब-ओ-सुकून ले गया..

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उतार ले मुझको मेरी इस ज़ात से,
कि मैं उकता गया हूँ ज़ब्त हो-हो के...

कभी अश्क़ों की बेड़ी तो कभी बीड़ा है सपनों का...

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ज़िंदगी दो घूँट लूँ
या ज़िंदगी से छूट लूँ...

इख्तियार खुद पे न इख्तियार आप पे....

- Vishwa Deepak Lyricist

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