उतार दूँ ज़िंदगी का ये चोंगा,
कि पैरहन मौत के लाजवाब-से हैं..
बस इक आलस ने रोक रखा है मुझे...
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रात तिनके-सी उड़ती आती है और
चिमटे-सी खींच कर ले जाती है साँस को...
मैं जलाता हूँ या जलता हूँ - मालूम हीं नहीं चलता...
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हंगल साहब के लिए:
इक "सन्नाटे" ने छोड़ा शोर का साथ,
अब आवाज़ को ऊँगली पकड़ाए कौन?
वो गया तो अदब-ओ-सुकून ले गया..
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उतार ले मुझको मेरी इस ज़ात से,
कि मैं उकता गया हूँ ज़ब्त हो-हो के...
कभी अश्क़ों की बेड़ी तो कभी बीड़ा है सपनों का...
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ज़िंदगी दो घूँट लूँ
या ज़िंदगी से छूट लूँ...
इख्तियार खुद पे न इख्तियार आप पे....
- Vishwa Deepak Lyricist
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