Monday, February 18, 2013

मुर्दानगी


मैं शांत हूँ..

मेरी भूख डाल दो
कुत्ते की अंतड़ियों में..

वह कम-से-कम झपटेगा तो..

मैं शांत हूँ..

मुझे शांत रहना विरासत में मिला है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

क्या मैं बजाया जा रहा हूँ?


फटती है बिवाई
तो मैं
निकल पड़ता हूँ चप्प्ल सिलवाने...

फसलों को मार जाता है पाला
तो मैं
हथेली पर रोपने लगता हूँ
नई उम्र के नए बिरवे..

चलती सड़क
गुलाटी मार
जब झपट पड़ती है मुझपे
तो मैं हाथ-पाँव झाड़
निपोड़ देता हूँ अपनी बत्तीसी
और
पकड़कर पगडंडियों की पूँछ
करने लगता हूँ चीटियों से कदम-ताल...

चीखती रातें
मुझे लगती हैं
बेताल-दर्शन का
स्पेशल टूर पैकेज...

मैं मुंडवा लेता हूँ सर
जब उलझने लगती हैं
मेरे बालों में सवाना घास,
फिर बेच डालता हूँ
अपने घर के सारे ढोलक, तबले, मृदंग...

मैं निकालता हूँ रोज़ नई धुन
अपनी झुकी पसलियों से
और वे कहते हैं कि
मैं बजाया जा रहा हूँ..

क्या मैं बजाया जा रहा हूँ?

मुझे नहीं लगता
लेकिन
वे दु:खी हैं कि मुझे दु:ख का दु:ख नहीं...

वे डाँट रहे हैं मुझे
और अब मैं सीख रहा हूँ
उनसे नए शब्द
अपनी कविताओं के लिए...

कल फिर से लिखूँगा -

"मेरे शिक्षकों.... शुक्रिया!!!"...

- Vishwa Deepak Lyricist

Wednesday, February 13, 2013

हद दर्जे का चापलूस


मैं अपने शुद्ध स्वरूप में हद दर्जे का चापलूस हूँ...

तैरती मछलियों से पूछ लेता हूँ
उनके जीने-मरने के भाव..

हर साल दो इंच चढते पहाड़ों को
बताता हूँ
आसमान फोड़ने की ओर अग्रसर
और
आसमान को कह आता हूँ कान में
कि ज़मीन के उथले बादल
खाक पहुँचेंगे तुम तक...

मेरे ख्वाब मानते हैं खुद को
नींद का तारणहार

और नींद?
नींद तो अनाथालय है -
दूधमुँहे बच्चों को देती है
छत और बिछावन...

मेरे सारे शब्द
या तो गूंगे हैं या अर्थहीन,
लेकिन यह बात इन्हें मालूम नहीं;
मैं इन्हें पिरोता हूँ कविताओं में
और सीने पर तमगे लिए
लौट आते हैं ये अपने-अपने बाड़ों में
कीचड़ सने सूअर के बच्चों की तरह...

मैं बताता हूँ इन्हें शेर
और जमाता रहता हूँ हर शाम एक सर्कस...

जानता हूँ मैं
कि मेरे अंदर का कवि
अपने शुद्ध स्वरूप में
चापलूस है हद दर्जे का...

यकीन मानिए-
आप भी समझदार पाठक हैं!!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

चोंगा नकली खुशियों का


चलो देश बदल लें..

गुस्से के सौ अम्ल ढल रहे
आँखों के कोयल-बादल में,
मौसम के घुन समा रहे हैं
हौसलों के गेहूँ-चावल में..

सड़ जाए खलिहान और मिट्टी
देह की ऊसर-सी हो जाए,
आओ इससे पहले हम-तुम
जीने के परिवेश बदल लें..

चोंगा नकली खुशियों का हम
अपने चेहरों से झट फेंकें,
अपने माथे के खंडहर से
आलस की हर चौखट फेंकें..

तोड़ पड़ें इस राग-धर्म के
रीत-रिवाज, हर मोह मिटा दें
और हटाकर सड़ी-सी केचुल
इस लम्हे हीं भेष बदल लें..

चलो... चलें...
यह देश बदल लें..

- Vishwa Deepak Lyricist