मैं अपने शुद्ध स्वरूप में हद दर्जे का चापलूस हूँ...
तैरती मछलियों से पूछ लेता हूँ
उनके जीने-मरने के भाव..
हर साल दो इंच चढते पहाड़ों को
बताता हूँ
आसमान फोड़ने की ओर अग्रसर
और
आसमान को कह आता हूँ कान में
कि ज़मीन के उथले बादल
खाक पहुँचेंगे तुम तक...
मेरे ख्वाब मानते हैं खुद को
नींद का तारणहार
और नींद?
नींद तो अनाथालय है -
दूधमुँहे बच्चों को देती है
छत और बिछावन...
मेरे सारे शब्द
या तो गूंगे हैं या अर्थहीन,
लेकिन यह बात इन्हें मालूम नहीं;
मैं इन्हें पिरोता हूँ कविताओं में
और सीने पर तमगे लिए
लौट आते हैं ये अपने-अपने बाड़ों में
कीचड़ सने सूअर के बच्चों की तरह...
मैं बताता हूँ इन्हें शेर
और जमाता रहता हूँ हर शाम एक सर्कस...
जानता हूँ मैं
कि मेरे अंदर का कवि
अपने शुद्ध स्वरूप में
चापलूस है हद दर्जे का...
यकीन मानिए-
आप भी समझदार पाठक हैं!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
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