चलो देश बदल लें..
गुस्से के सौ अम्ल ढल रहे
आँखों के कोयल-बादल में,
मौसम के घुन समा रहे हैं
हौसलों के गेहूँ-चावल में..
सड़ जाए खलिहान और मिट्टी
देह की ऊसर-सी हो जाए,
आओ इससे पहले हम-तुम
जीने के परिवेश बदल लें..
चोंगा नकली खुशियों का हम
अपने चेहरों से झट फेंकें,
अपने माथे के खंडहर से
आलस की हर चौखट फेंकें..
तोड़ पड़ें इस राग-धर्म के
रीत-रिवाज, हर मोह मिटा दें
और हटाकर सड़ी-सी केचुल
इस लम्हे हीं भेष बदल लें..
चलो... चलें...
यह देश बदल लें..
- Vishwa Deepak Lyricist
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