Sunday, September 02, 2012

महाराज का राजमहल


आपकी तशरीफ को जब भूख लगी
तो आपने
माँग लीं हमारे हिस्से की बेंच-कुर्सियाँ भी..

हम माटी से खींचकर फांवड़े-कुदाल
और समेटकर अपनी सारी उम्र
लौट गए
गर्भ की गहराईयों में,
बाँध लीं हमने गर्भ-नालें,
जन्मने के लिए फिर से कहीं और...

अब आपको भूख लगी है पेट की;
आपकी कुर्सियाँ, आपके अर्दली, आपके रसिक
नहीं उगा सकते नारों और घुंघरूओं में धान, गेहूँ,
नहीं बाँध सकते बाँध का पानी अपने बाजुओं से,
नहीं उगा सकते अपनी हथेलियों पर कल-कारखाने...

इनकी हथेलियों पर तो उगती हैं बस सोने की रेखाएँ..

कहिए...आप वही खाएँगे क्या?

नहीं ना?
तो फिर खींच लीजिए
हलक से अपनी अंतड़ियाँ
और भून कर निगल लीजिए भूख के साथ,
शायद ऐसे में तर हो जाए आपका पेट..
न बने इतने में भी
तो निगल लीजिए कुर्सियाँ, अर्दली , ज़मीन सब कुछ...

वैसे भी ये अर्दली आपके
न पीस सकते हैं आटा
जिसे आप डाल दें अपने "राज"-महल की नींव में
ताकि सेंध लगाने न आ पाएँ चीटियाँ...

चीटियाँ
जो आती हैं उत्तर से बस आपके लिए,
है ना "महा""राज"?

- Vishwa Deepak Lyricist

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