Saturday, September 22, 2012

ख़ुदा ने इश्क़ लिख भेजा था उनमें


आज तोड़ डालो मुझे परत-दर-परत
कि मैं बामियान के बुद्ध-सा निर्लज्ज खड़ा हूँ..

होते में हूँ तुम्हारे, अहाते में हूँ तुम्हारे..

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इस बार मैं जो आऊँ तो मकसद न पूछना,
बस घर को घूर लेना, मैं लौट जाऊँ जब..

दो-चार गर्द होंगे कम, दो-चार रंग जियादा

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बस करवटों में रात चली जाएगी शायद,
मैं साहिलों पे डूबता-उठता हीं रहूँगा?

इन सलवटों में एक किनारा तो हो तेरा...

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लिफाफे जिस्म के खोले बहुत पर,
कहीं भी रुह की चिट्ठी पढी तूने नहीं...

खुदा ने "इश्क़" लिख भेजा था उनमें...

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न मैं "मेहमान" हो पाया उस घर का,
न तुम हीं "परिवार" हो पाई मेरी..

दोनों घर अजनबी हो गए..बस...

- Vishwa Deepak Lyricist

1 comment:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

प्रथम और अंतिम त्रिदल बहुत गहन भाव लिए