आज तोड़ डालो मुझे परत-दर-परत
कि मैं बामियान के बुद्ध-सा निर्लज्ज खड़ा हूँ..
होते में हूँ तुम्हारे, अहाते में हूँ तुम्हारे..
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इस बार मैं जो आऊँ तो मकसद न पूछना,
बस घर को घूर लेना, मैं लौट जाऊँ जब..
दो-चार गर्द होंगे कम, दो-चार रंग जियादा
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बस करवटों में रात चली जाएगी शायद,
मैं साहिलों पे डूबता-उठता हीं रहूँगा?
इन सलवटों में एक किनारा तो हो तेरा...
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लिफाफे जिस्म के खोले बहुत पर,
कहीं भी रुह की चिट्ठी पढी तूने नहीं...
खुदा ने "इश्क़" लिख भेजा था उनमें...
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न मैं "मेहमान" हो पाया उस घर का,
न तुम हीं "परिवार" हो पाई मेरी..
दोनों घर अजनबी हो गए..बस...
- Vishwa Deepak Lyricist
1 comment:
प्रथम और अंतिम त्रिदल बहुत गहन भाव लिए
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