"स्वर्णाक्षरों" में लिखता इतिहास मुझे भी,
पर घूस देने के लिए पीतल भी ना मिला..
अब मेरे होने का नहीं है सच कहीं ज़िंदा...
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मैं झूठ की कतरन चुनता हूँ
और "शॉल" बनाता हूँ सच की..
वो ओढकर चुप हो जाते हैं...
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मेरे सच को सच का दस्तखत दे दो,
मेरे झूठ को गिरा दो मेरी नज़रों से...
मुझे बदलो या बदलो झूठा सच मेरा..
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बेबाकियों का जश्न मनाते थे हम कभी,
बेबाकियों के बोझ ने सूरत बिगाड़ दी...
उम्मीद बेवज़ह की थी अपने उसूल से..
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चट कर लो आ के मेरी सोच को भी
कि ये तेवर कागज पे थोड़े नरम हैं...
किया मैने लावा..लिखा बस शरर है..
- Vishwa Deepak Lyricist
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