हमारे साथ हो तुम या
हमारे सर पे हो बोलो,
अगर हो साथ तो फिर तुम
कभी ऊँगली थमा भी दो,
या फिर गर सर पे हो तो बस
बरसते हीं हो क्यों हर पल,
कभी आशीष दे भी दो,
कभी पुचकार भी लो तुम,
हमेशा वार करते हो,
कभी तो प्यार कर लो तुम..
मेरे रहबर,
मेरे साथी,
मेरी परछाई बन लो तुम,
मुझे परछाई कर लो तुम..
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(सुनो!
हमसे हीं तुम हो और
तुम्हारे होने से हम हैं,
हाँ, इतना ग़म है कि
लाठी
जो भरती थी मेरी मुट्ठी,
जिसे चलना था संग मेरे,
वो हाय मेरे माथे पे
हीं आ के चीख कर टूटी,
वो चीखी कि मैं हट जाऊँ,
इरादे तोड़ बंट जाऊँ..
खैर! अफसोस यह है कि
अगर तुम पत्थर-दिल हो तो
हमारे सर हैं पत्थर के,
हमारे सीने लोहे हैं,
है आँखों में दहकता जल,
भला लाठी करेगी क्या,
जली तब हीं, जलेगी फिर,
जभी हम पे उठेगी फिर..
जलेगी फिर,
जलेगी फिर,
जो भरती थी मेरी मुट्ठी,
अगर मुझपे उठेगी फिर..
मेरे साथी,
मेरी सरकार,
मेरे सर पे चढो तब हीं,
अगर सूरज-सा रहना हो,
मुझे परछाई देनी हो,
मेरे पैरों पे चलना हो..)
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रहूँगा मैं तो बस तेरा -
मेरी परछाई बन लो तुम,
मुझे परछाई कर लो तुम..
- Vishwa Deepak Lyricist
2 comments:
आक्रोश भरे शानदार भाव
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार 25/12/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है ।
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