चलो छोड़ो..
शाम यूँ हीं
शरबत-से समुंदर पर
शक्कर-से सूरज-सी
सरकती हुई
बुझ जाएगी..
तुम्हें क्या!
तुम तो
रात की चटाई पे
राई-से तारों को
बिछाकर
चुनने लगोगे
कालिखों के ढेले,
गर कभी चाँद
हाथ आया भी तो
कहकर
उजला कंकड़
फेंक दोगे उसे
उफ़क की नालियों में...
सुबह होते-होते
तारे
समा चुके होंगे
कोल्हू में
और फैल चुका होगा
चंपई तेल
आसमान पर..
सुबह होते-होते
तुम भी
बन चुके होगे
एक कोल्हू...
खैर छोड़ो,
तुम्हें क्या...
- Vishwa Deepak Lyricist
No comments:
Post a Comment