Friday, July 13, 2012

ये मुर्दा मर्दानगी


तुम्हारे पुरखों ने
रात भर
जलाई थी चिलम,
रात भर
ऊँगलियों से
फोड़ा था तारों को
और रात भर
रेगनी के काँटों को
तोड़कर नाखूनों से
दी थीं माँ-बहन की गालियाँ..

ये
तुम्हारे पुरखें
फड़फड़ाते रहते थें
रात भर
पर-लगी चींटियों की तरह
और आखिर में
समा जाते थे
किन्हीं कोटरों में
तिलचट्टों-से..

उन्हीं रातों में
जब तुम्हारे पुरखे
बेशर्मी की फटी चादरों पे
उतारते होते थे
अपना बड़बोलापन,
कोई
ठूंस जाता था तुम्हें
तुम्हारी
महतारियों की कोख में...

और तुम कमबख्त,
आधे क्लीव
और आधे कोयले की संतानें,
निहारते रहते थे
रात भर
अपनी माँओं की
प्रसव-ग्रंथियाँ,
नोचते रहते थे
रात भर
अपनी माँओं के जिस्म..

नोचते रहते हो
आज भी
अपनी माँओं के जिस्म
सरेआम सड़कों पे..

काश!
तुम्हें गर्भ-नाल से तोड़कर
और खींचकर चिमटे से
डाल लिया होता
तुम्हारे पुरखों ने
चिलम में..

फिर
लेते एक कश
और हो जाती
तुम्हारी मर्दानगी... हवा!

काश!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

3 comments:

Nikhil Anand Giri said...

गुस्सा बनाए रखिए वीडी भाई...यही काम आएगा एक दिन...

विपुल said...

बहुत ज़बर्दस्त वी. डी. भाई.. बडे दिनो बाद असली वी.डी. भाई से मिलना हुअ आज.. :) :)

विपुल said...

बहुत ज़बर्दस्त वी. डी. भाई.. बडे दिनो बाद असली वी.डी. भाई से मिलना हुअ आज.. :) :)