मुझे खंडित कर दो,
मैं इस कालखंड का नहीं...
मेरे शिल्पी!
मुझे तुम्हारी अनभिज्ञता का
नहीं था बोध,
यदि होता
तो मैं
उस कालखंड को हीं
खंडित कर देता
जब तुमने किया था
मेरा सृजन...
मैं तुम्हारी भूल
या फिर
बाध्यता से
सारी कुंठाओं का
शब्दकोष हो चला हूँ,
हीनता के सैकड़ों
पर्यायवाची
विचर रहे हैं
मेरे पृष्ठों पर
और मैं क्षुब्ध हूँ
असफलता के अतिक्रमण से..
मेरे इर्द-गिर्द
विचारधाराओं की
अनगिनत दुंदुभियाँ हैं
जो
मस्तिष्क फोड़कर
ठूंसती हैं
कर्णदोष, दृष्टिदोष
और नहीं आने देतीं
शब्दों को मेरे
वचन से... कर्म तक...
इस तरह मैं
मनसा..वाचा..कर्मणा
हो रहा हूँ....अकर्मण्य..
ऊबकर
मेरी जिजीविषा
और
मेरे विचारों के सैनिकों ने
डाल दिए हैं धनुष-बाण
फिर
बाँधकर पाजेब
करने लगे हैं नर्तन
मृत्यु के अंत:पुर में..
(कलियुग के इस कालखंड में
मृत्यु
वैतरणी नहीं
मेरे शिल्पी!
ना हीं यह जीवन है
कोई यज्ञ-वेदी..
जीवन-मरण
मात्र एक भाग-दौड़ है
एक वेश्यालय से दूसरे वेश्यालय तक की..
आश्चर्य!
तुम्हें हीं ज्ञात नहीं
जबकि तुमने हीं गढी हैं वेश्याएँ...)
हाँ तो
इससे पहले कि
टूट जाएँ
पाजेबों के मेरूदंड
और मृत्यु
लूट ले मेरी जिजीविषा,
तुम सिल दो एक अर्थी
मेरे हेतु
और
खंडित कर दो मुझे..
खंडित कर दो मुझे,
मैं इस कालखंड का नहीं...
(मैं
ऋणी रहूँगा तुम्हारा
सदैव
मेरे अनभिज्ञ शिल्पी....)
- Vishwa Deepak Lyricist
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