Tuesday, July 24, 2012

रात भर


इन अधूरी रातों के ख्वाब
चमगादड़-से
मेरी आँखों में लटके रहते हैं...

मैं ज़मीं पर पटकता हूँ अंगूठा
तो
आसमान फोड़ने लगते हैं
ये सारे चमगादड़..

एक बिजली उतरती है
आँखों के बरगद पे
और चीरकर पत्तों का सीना
समा जाती है
नींदों की कब्र में..

देखते हीं देखते
चैन-ओ-सुकून के
सारे सरमायेदार मेरे
कब्र में हीं हो जाते हैं
फिर से
लकवाग्रस्त...

मैं बटोरता हूँ उनकी हड्डियाँ
और बाँधकर उनसे चमगादड़ों को
खड़े कर देता हूँ
कई सारे "कागभगोड़े"...

फिर
लहलहा उठती है
खुदकुशी यकायक..

और
बदमिजाज़
डरपोक ज़िंदगी
पास भटकती भी नहीं
रात भर....

- Vishwa Deepak Lyricist

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