मैं यहीं कहीं मिलूँगा
किसी कनस्तर में
पड़ा हुआ
औंधे मुँह..
सड़ता हुआ
या सड़ चुका..
तुमने छुपाया था मुझे
अपने मुस्तकबिल के लिए
बड़े जतन से..
बचाया था मुझे
लम्हा-लम्हा बटोरकर..
कभी जोड़कर
हँसी की दो कतरनें
तो कभी उम्मीदों के
दो बेतरतीब धागे
गूँथकर
तो कभी सहेजकर
आँखों से गिरतीं
कई बेमोल गिन्नियाँ..
मैं हर गिन्नी, हर धागे, हर कतरन
में ज़िंदा था
किसी हौसले-सा..
और तुम
उसी हौसले से
अपना ख्याली महल गढे जा रहे थे..
उस महल में सेंध लग गई
जब
पिछली अमावस
तुम्हारे अपने हीं
बहुरूपिए कारीगरों ने
कुतर डालीं वे कनस्तरें...
और आज जब
मायूसियों की मुर्दानगी
उतर आईं हैं इन खंडहरों में
और कालिखों ने
नोच डाली हैं दीवारें
अपने नाखूनों से
तो उस चूरन से दबकर
यहीं कहीं पड़ा हूँ मैं औंधे मुँह..
अफसोस!
अब न बचेगा तुम्हारा मुस्तकबिल!!
न बचेगा तुम्हारा महल!!!
मेरा क्या..
मेरी क़ीमत सिफर थी पहले.... औरों के लिए
सिफर हो गई आज...तुम्हारे लिए भी..
मैं अबूझ था पहले,
अबूझ हूँ आज भी.....यकीनन!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
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