मैं शायद तुम्हारी नब्ज नहीं जानता..
तुम्हारे ललाट की बारीक रेखाओं
और उनकी गुत्थम-गुत्थी
में हीं उलझा रहता हूँ मैं,
न देख पाता हूँ
उस ललाट के आसपास की सजावट,
छूट जातीं है मुझसे
तरतीब में सजी
तुम्हारी भौहों की समतल क्यारी
और वहीं
बगल से गुजरती
काजलों की पगडंडी,
न सुन पाता हूँ
"आवारे सज्दे" करतीं
तुम्हारी बालियों की
बेटोक धमाचौकड़ी
और
तुम्हारी आवाज़ की
असरदार घंटियाँ
क्योंकि मैं
तुम्हारी खामोशियों से हीं
अलिफ़, बे चुनता रहता हूँ..
तुम्हारे आईने
करते हैं तुम्हारी खुशामद
और मैं जब
तफ्सील से
बताता हूँ तुम्हें
तो
कुरेदने लगती हो तुम
हमारा रिश्ता
पैर के नाखूनों से
और मेरी हथेली पर
लगाकर
नासमझी का ठप्पा
दबाने लगती हो
अपने तलवे से
मेरी भलमनसाहत;
मैं ताकता रह जाता हूँ तुम्हें
और तौलने लगता हूँ
तुम्हारी आँखों में अपनी परछाई..
मैं बेरोक
बुनता रहता हूँ
अपनी धड़कनों से तुम्हारी धमनियाँ
और खींचता रहता हूँ
ज़हरीले जज़्बात
तुम्हारी शिराओं से
अपनी साँसों में..
फिर भी
तुम्हारी चूड़ियों में
नहीं उतरता मेरे खून का लाल रंग..
मैं
टटोलकर देखता हूँ
तुम्हारी कलाई,
तुम झल्लाती हो
और
खुल जाती हैं
बहत्तर में से छत्तीस
खिड़कियाँ किसी और के लिए..
मैं यकीनन तुम्हारी नब्ज नहीं जानता..
- Vishwa Deepak Lyricist
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