त्राहिमाम...
सन्नाटे रात के
चीखते हैं
जब कूद्ती हैं उनपे
सौ कानों में ठेली गईं
तुम सब की
चापलूसी आवाज़ें..
भाई,
भेड़ियाधसान
भीड़ है यहाँ
विचारधाराओं की
और तुम
हर क्रॉश, हर त्रिशूल, हर चाँद पर
अपनी अमूल्य सोच का
लेबल चिपकाते फिरते हो..
हज़ार... हज़ार एक...हज़ार दो...हज़ार तीन,
चलो
तुम भी कर लो गंगा-स्नान
और बजा के अपनी दुंदुभि
फोड़ दो
रात के इयर-ड्रम्स...
दिन तो
मर हीं चुका है
पीलिये से,
अब रात के कानों से भी
खींचकर खून
कर दो उसे मरीज़
एनीमिया का...
मैं नहीं कहता,
लेकिन
ऐसे में
इंसानियत की दिनचर्या
किसी से लोहा न ले पाए... तो मत कहना!!
- Vishwa Deepak Lyricist
1 comment:
आक्रोश से भरी गहन प्रस्तुति
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