सब मरने के लिए हीं जन्मे हैं,
इसलिए
पेट पे गमछा और
मुँह पे लार
बाँधके
बार-बार यूँ
घिघियाया मत करो कि
तुम्हें मार रही है तुम्हारी भूख...
तुम्हारी खपत
थोक भर घोंघों
और मुट्ठी भर नमक से ज्यादा
तो होगी नहीं,
इसलिए खूरों से खेत की मिट्टी
और नाखूनों से कछार की तलछट्टी
खुरचते वक़्त
आसमान में अठन्नी देख
नज़रें लपलपाया मत करो,
बड़बड़ाया मत करो
कि तुम्हें मालूम नहीं
सूरजमुखी का सुनहला स्वाद,
कि तुम्हें हासिल नहीं
इन्द्रधनुष की रंगीन हवामिठाई...
सुनो!
नाली के पानी से
धो हीं लेते हो
अपना खुरदरा चेहरा
और कभी-कभार उतर हीं आती हैं
बारिशें
तुम्हारी झोपड़ी में
लेकर अपने लाव-लश्कर,
फिर
समय-कुसमय मेरे पौधों
की जड़ पकड़कर ऐसे
अपनी आँखों से तालाब
उबीछा मत करो,
उबाला मत करो
मेरे गमलों के "मनी-प्लांट" को..
अच्छा है कि तुम
खोदते हो अपनी आँखें,
खोदो.. जितना मन हो खोदो..
निकालते रहो नमक मन भर
और यही
नमक-पानी खा-पीकर
खूब मौज करो,
मस्त रहो...
बस
घिघियाया मत करो कि
तुम्हें मार रही है तुम्हारी भूख...
- Vishwa Deepak Lyricist
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