खेल-खिलवाड़ के इस दौर में
कंचे की शक्ल में
नज़र आती है मुझे
यह दुनिया..
यह दुनिया
जो आजकल
थैली में है हमारी..
या तो हमने
अंटी मारी है
या
मगरूरियत में
मारा गया है वो
जिसने बनाया था यह खेल...
उसने हारकर
लगा ली है फाँसी,
समा गया है
कई सारे कोपभवनों में..
और हम?
जीतकर हार रहे हैं
क्योंकि
हमें कंचे से ज्यादा
फिक्र है
उन कोपभवनों की
हम शिकार हो रहे हैं
अपने डर
और उसके बड़प्पन का,
हम शिकार हो रहे हैं
उसके डर
और अपने बड़प्पन का..
सनद रहे!
उसके शमशान
सजाए हैं हमने,
पर हमारे शमशान?
हमारे हारने पर
कोई उतारने भी नहीं आएगा
हमें
क्रॉश से..
इसलिए
इससे पहले कि
कंचे-सी यह दुनिया
जेबों और हथेलियों में घिसकर
किरकिरी हो जाए,
आओ खींचे इसे हम
दो मंझली ऊँगलियों से
और उछाल दें आसमान में..
जो थम गई है
उसकी सीढियों पर,
जो थम गई है
हमारी थैलियों में,
उसे उतार दें एक धक्के से
सूरज के इर्द-गिर्द..
क्या कहते हो
कॉपरनिकस?
गैलीलियो?
हमारी मेहनत सफल तो होगी ना?
खैल-खिलवाड़ के इस दौर में...
- Vishwa Deepak Lyricist
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