Monday, July 30, 2012

मैनहोल


अब भी तुम उसी "मैनहोल" पे खड़े हो,
जहाँ डूबती आई हैं
तुम्हारी लाखों पीढियाँ...

करोड़ों बजबजाते कीड़ें
उनके कानों में
करते रहे हैं गजर-मजर
लेकिन तुम्हारी पीढियाँ
बेसुध-सी
निहारती रही हैं
आसमान के रंगीन अमलतासों को
कि कब एक पत्ता टूटे
और उनकी आँखें
उस पत्ते पर बैठकर
कर आएँ दुनिया की सैर...

तुम भी तो
गुलमोहर पर बैठी
उस हारिल में
ढूँढ रहे हो
सोने के कारखाने..

तुम!
जिसने न चलना सीखा है,
न उड़ना
और जो खड़ा है एक "मैनहोल" पे...

- Vishwa Deepak Lyricist

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