मुझे इस बात पे रोना पड़ा है
कि यूँ जज़्बात को ढोना पड़ा है..
जिसे बुनियाद का पत्थर कहा था,
पकड़ के आज वो कोना, पड़ा है..
जो हर एक ख़्वाब में शामिल रहा था,
उसे हर याद में खोना पड़ा है..
दिल-ए-महबूब से कू-ए-हवस तक,
मुझे बदनाम हीं होना पड़ा है..
(ख़ुदा के दैर से काफ़िर-गली तक,
मुझे बदनाम हीं होना पड़ा है..)
जवां उस चाँद के थे सब, मगर अब
उसे भी रात में सोना पड़ा है..
(यहीं फुटपाथ पे सोना पड़ा है..)
- Vishwa Deepak Lyricist
No comments:
Post a Comment