गुस्ताख निगाहों से तकता है वह तुम्हें
और तुम
अपनी नाकामयाबी का सारा ठीकरा
फोड़ देते हो उसके सर..
उसकी कालिंदी में डूबते-उबरते हो हर लम्हा
लेकिन
कतराते हो उसके किनारों कि छुअन तक से,
भूल जाते हो कि
उसी कालिंदी-कूल-कदंब की डालियों पे तुमने
मर्म जाना था कभी
कदम फूंक-फूंक रखने का..
वह उम्र भर के तमाम झंझावातों को
जज़्ब करता रहा है अब तलक,
ऐसे में कभी जो
फाड़ कर दिल की ज़मीं
निकल आई है झुंझलाहट
तो वह
मनमानी नहीं,
मजबूरी है एक-
खामियाज़ा है महज
किसी शिशुपाल की सौवीं भूल का..
वह जो बलराम-सा हल लिए
जोतता रहता है तुम्हारे खेत,
खेत तुम्हारी ज़िंदगी का,
खेत तुम्हारे मुस्तकबिल का;
उसकी ज़िंदगी की शाम में
तुम उसे आध दिहाड़ी तक नहीं देते -
वह कोई बंधुआ मजदुर तो नहीं,
पिता है तुम्हारा...
पिता है मेरा,
पिता है मेरा!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
और तुम
अपनी नाकामयाबी का सारा ठीकरा
फोड़ देते हो उसके सर..
उसकी कालिंदी में डूबते-उबरते हो हर लम्हा
लेकिन
कतराते हो उसके किनारों कि छुअन तक से,
भूल जाते हो कि
उसी कालिंदी-कूल-कदंब की डालियों पे तुमने
मर्म जाना था कभी
कदम फूंक-फूंक रखने का..
वह उम्र भर के तमाम झंझावातों को
जज़्ब करता रहा है अब तलक,
ऐसे में कभी जो
फाड़ कर दिल की ज़मीं
निकल आई है झुंझलाहट
तो वह
मनमानी नहीं,
मजबूरी है एक-
खामियाज़ा है महज
किसी शिशुपाल की सौवीं भूल का..
वह जो बलराम-सा हल लिए
जोतता रहता है तुम्हारे खेत,
खेत तुम्हारी ज़िंदगी का,
खेत तुम्हारे मुस्तकबिल का;
उसकी ज़िंदगी की शाम में
तुम उसे आध दिहाड़ी तक नहीं देते -
वह कोई बंधुआ मजदुर तो नहीं,
पिता है तुम्हारा...
पिता है मेरा,
पिता है मेरा!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
7 comments:
झकझोर देने वाली रचना ... बहुत सुंदर
जी शुक्रिया.... संगीता जी...
बहुत खूब ... मन में हलचल सी मचा जाती है रचना ... झंझोड जाती है अंदर तक ...
उद्विग्न करती कविता!
bahut prabhaavshali rachna.
बहुत गंभीर रचना
अंतर में जब उफान आता है तो इसी प्रकार व्यक्त होता है !
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