रात की तराजू ले
घोड़े बेचकर
नींदें खरीदने का रिवाज़
गुजर गया है शायद..
आजकल
नहीं समाते
एक हीं पलड़े पर
नींद और ख्वाब..
कमबख्त
छटांक भर का ख्वाब
मन भर के नींद पर
कितना भारी है!
सोचता हूँ
ख्वाब बेचकर नींदें खरीद लूँ
या बेच दूँ नींदों को
ख्वाबों की खातिर?
बेशक़
मुहावरे के सारे घोड़े
बेमोल, कम-वज़न हो गए हैं,
जब से सपनों ने सीख लिया है उड़ना
- Vishwa Deepak Lyricist
1 comment:
सोचता हूँ
ख्वाब बेचकर नींदें खरीद लूँ
या बेच दूँ नींदों को
ख्वाबों की खातिर?
वाह ॥बहुत सुंदर ... और गहन भाव
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