इंसान इतना असहिष्णु हो गया है..... आखिर क्यों?
क्यों "ऊष्मा" को उचक कर सीने से लगाता है,
लेकिन बर्ताव में हल्की-सी ठंढक भी "सह" नहीं पाता...
बर्फ़ का एक टुकड़ा छू भर जाए कि
मियादी बुखार के मरीज-सा झल्ला उठता है
और करने लगता है उल्टियाँ
अपने "बड़े" कामों की,
दिन-रात सीने पे चिपकाए फिरता है
अपना बड़प्पन ताम्र-पत्र-सा..
आखिर क्यों?
माना तुमने ये किया है, वो किया है
लेकिन सामने वाले ने कुछ और "ये" "वो" किया है,
न तुमने "वो" किया है,
न उसने "ये",
फिर काहे की ये "साँप-सीढी",
काहे का ये "पहाड़-पानी"...
तुम अपने घर खुश,
वह अपने घर खुश,
हाँ अगर रास्ते मिले कहीं
तो खुद को हाई-वे और उसे पगडंडी
साबित करने की ये कोशिश...... आखिर क्यों?
तुमने खुले मंच से अपने भाषण पढे
और तुम्हारे शब्द
उसके कान और नाक को नागवार गुजरे
कील-से चुभने लगे उसके पाचन-तंत्र में
तो उसने एक हल्की झिड़की
उड़ेल दी अपनी आँखो से
और तुम बरस पड़े दुगने भाषण के साथ...
यहाँ गलत क्या था?
तुम्हारा भाषण,
तुम्हारा भाषण उसका सुनना,
तुम्हारा भाषण उसे सुनाना,
तुम्हारे भाषण का उसे नागवार गुजरना
या वो हल्की-सी झिड़की?
तुम सोचो..
आखिर कुछ तो गलत था कि
संगीन हो उठा माहौल... आखिर क्यों?
- Vishwa Deepak Lyricist
1 comment:
आज किसी में भी सहिष्णुता कहाँ ... अच्छी प्रस्तुति
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