Saturday, June 16, 2012

बे-लिबास

कुछ कहानियों का मुझे औचित्य हीं नहीं मालूम चलता... बड़ी बेबाकी से बारीकियों तक वे इस कदर समा जाते हैं मानो देह के ऊपरी तल्ले से नीचले तल्ले तक का रास्ता बस उन्हें हीं पता हो और ऊपर वाले ने उन्हें यह उत्तरदायित्व सौंपा हो कि बड़े या खुले मंच पर इन परतों को खोल आओ ताकि अपनी "शारीरिक संचरना" से अनभिज्ञ जनता इस तिलिस्मी जानकारी से लाभ ले सके 

हाल-फिलहाल में खुले मंच पर ऐसी दो कहानियाँ खुली पाईं मैने... खुली थीं तो पढ ली.. पढ लीं तो अब तलक सोच हीं रहा हूँ कि...

कोई बताए मुझे कि क्या हर चीज़ परदे के पार आ जानी चाहिए... क्या इसे हीं प्रगति करना कहते हैं..अगर ऐसा है तो भई मैं तो रूढिवादी या छोटी सोच का इंसान हूँ...... यकीनन!!

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दीवान-ए-खास को हैं वो दीवान-ए-आम कर गए,
बेगानों की गली में जो बिस्तर नीलाम कर गए...

कागज़ पे जिस्म खोल के लाखों की लेखनी ली,
आखर जो ढाई थे उन्हें कौड़ी के दाम कर गए...

पत्थर के पीछे आईने रखते गए, चखते गए,
किस्से खुले तो आप को झटके में राम कर गए..

जिनके लिए सदियों की हैं बेड़ी-से उनके पैरहन,
रस लेके उनके देह से उनको हीं जाम कर गए..

यूँ तो हैं आध-एक हीं लफ़्ज़ों के सिकंदर मगर,
भूसे में बन के आग वो अपना हैं काम कर गए..

माना कि है हुनर इक रखना बेबाक सब कुछ,
पर जो थे बे-लिबास वो इज़्ज़त तो थाम कर गए..

Vishwa Deepak Lyricist

*आप = अपने-आप, खुद
पैरहन = कपड़ा

2 comments:

Smart Indian said...

वाह! कही बढिया, अनकही उससे भी बढिया!

आलोक उपाध्याय said...

bahut achche ... achchi rachna