एक साल पहले बोया था जिसे,
आज उस पेड़ की शाखें बउरा गई हैं,
बिरवे आए हैं उनपे..
बियाबान में तुमने जल का सोता डाला था तब,
उसी की बदौलत
आज देखो यह पेड़ खींच लाया है बारिशों को..
पतझड़ की बुनकरी चलती रहे भले हीं,
यह बहार जाने न ना पाए,
यह बहार बनी रहे.... यूँ हीं..
2 comments:
बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|
आप कविता का सोता यूं ही बहाते रहोगे तो आनंद की बारिशें होती रहेंगी!! क्या खूब कहा है, दीपक जी!
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