तु्म्हें जानते-जानते
भूल गया हूँ खुद को
ठीक उसी तरह
जिस तरह
दरिया सौंप दे अपना होना समंदर को..
मैं पत्ते की लकीरों में लेता रहता हूँ साँस,
तुम जड़ बनके डालती रहती हो
मेरे सीने में ईंधन..
मैं पल-दर-पल धूप बेलता हूँ
और तुम
चंपई रंग लेकर उतर आती हो उसमें
अपनी सारी उष्मा-सहित;
दिन ऐसे हीं तो बुनते हैं हम..
मैं लिखता हूँ नज़्म -
डुबोता हूँ तुम्हारी हँसी में अपनी लेखनी
और उकेर देता हूँ तुम्हारे होठों पर
दो-चार अनकहे अल्फ़ाज़;
तुम्हारे होठों से झड़े ये नज़्म
खिल जाते हैं क्यारी-क्यारी..
तुम अब भी अनबूझ हो
या शायद बूझ गया हूँ तुम्हें -
मालूम नहीं
पर
रात के इक्के पर
चढकर
तुम जब आती हो मेरी आँखों में
तो
चाँद के दो चक्के
मेरे दिल तक बढ आते हैं;
इश्क़ यकीनन यही है -
इतना तो जान गया हूँ..
अब तुम भी जान लो!!!
भूल गया हूँ खुद को
ठीक उसी तरह
जिस तरह
दरिया सौंप दे अपना होना समंदर को..
मैं पत्ते की लकीरों में लेता रहता हूँ साँस,
तुम जड़ बनके डालती रहती हो
मेरे सीने में ईंधन..
मैं पल-दर-पल धूप बेलता हूँ
और तुम
चंपई रंग लेकर उतर आती हो उसमें
अपनी सारी उष्मा-सहित;
दिन ऐसे हीं तो बुनते हैं हम..
मैं लिखता हूँ नज़्म -
डुबोता हूँ तुम्हारी हँसी में अपनी लेखनी
और उकेर देता हूँ तुम्हारे होठों पर
दो-चार अनकहे अल्फ़ाज़;
तुम्हारे होठों से झड़े ये नज़्म
खिल जाते हैं क्यारी-क्यारी..
तुम अब भी अनबूझ हो
या शायद बूझ गया हूँ तुम्हें -
मालूम नहीं
पर
रात के इक्के पर
चढकर
तुम जब आती हो मेरी आँखों में
तो
चाँद के दो चक्के
मेरे दिल तक बढ आते हैं;
इश्क़ यकीनन यही है -
इतना तो जान गया हूँ..
अब तुम भी जान लो!!!
4 comments:
बहुत खूबसूरत कविता...तुलना नहीं करनी चाहिए, पर मेरे हिसाब से अभी तक की सर्वश्रेष्ठ कविताओं मे से एक!! बधाई स्वीकारें!
अंकल जी, बहुत-बहुत शुक्रिया।
अगर सच कहूँ तो यह सबसे जल्दी में लिखी गई कविता है। आज ऑफिस के लिए निकलने से पहले १० मिनट में हीं इसका निपटारा कर दिया था :)
शायद सच हीं कहते हैं कि जिस चीज़ पर ज्यादा मेहनत न करो और जो भी करो दिल से करो, वह अच्छा हीं बन कर निकलता है।
फिर से शुक्रिया!!
बहुत सुन्दर कविता। धन्यवाद।
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गयी लाल!
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