Tuesday, August 07, 2012

तुम्हारे पन्नों पे


ना, तुम्हारे पन्नों पे नहीं बसता मैं...

तुम्हारे पन्नों पे
या तो हैं राजप्रासाद
किन्हीं किन्नर-किन्नरियों के,
या हैं स्नानागर
ऋषि-मुनियों के
जो परखते रहते हैं
कमल का कौमार्य
या फिर
हैं दूतावास
सुर-असुरों के
जिनके कबूतर
छोड़ जाते हैं पंख
बहेलियों की लेखनी के लिए...

तुम्हारे पन्नों पे
नहीं बसता.... मुझ-सा कोई मनुष्य
जिसे चुभता है
पेंसिल का ग्रेफाइट भी
और जिसे स्याही की कालिख
मंहगी है
दो जून के कोयले से...

तुम्हारे पन्नों पे
नहीं बसता... वह हर कोई
जो राजसूय के घोड़े की
नाल से बंधा है
या पिसा जा रहा है
घास की टूटती तलवारों के बीच...

ना, तुम्हारे पन्नों पे नहीं बसता मैं...

- Vishwa Deepak Lyricist

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