Sunday, September 08, 2013

तो तुम भी कौन से तोपची हो?


भाई,
मानता हूँ कि
मैं कुछ नहीं करता..

तो तुम भी कौन से तोपची हो?

सपनों में बंकर के बंकर बुनते हो
और शब्दों में मोर्टार दागते हो उनपे..

ज़रा-सी कलम हिल जो जाती है
तो कांप उठते हो..

चिल्लाते हो ... भूकंप,
पुकारते हो.... प्रभु,
करते हो... त्राहिमाम

हद है,
कैसे ढूँढते हो आश्रय
उस कलंकित सत्ता में,
जो फुंफकारती है जड़ों में सांप्रदायिकता की...

ख़ैर..
तुम्हारी दुनिया में
परमज्ञानी हो तुम
और इसीलिए
बुद्धिजीवियों के मानिंद
महज कहते हो........ करते नहीं कुछ..

हाँ भईया,
मैं भी कुछ नहीं करता;
नकारे हैं दोनों के दोनों...

फिर कैसे श्रेष्ठ है तुम्हारी बुद्धि
हम निरे गंवारों से..

तुम भी तमाशबीन,
हम भी तमाशबीन..

हाँ मगर हम लाचार है,
तुम नहीं..

समझे!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, September 06, 2013

सब हैं चुप शब की तरह


तमाशबीनों का शहर है..
सब हैं चुप शब की तरह..

बुझ रहा है हर दीया,
हर मोड़ पर अंधियारे की
आस्तीन लाल है,
लाश सूरज की लिए
हर सहर हीं बेहाल है...

तमाशबीनों का शहर है,
सब हैं चुप शब की तरह..

और
हम भी तुर्रम खां कहाँ!!
(हम भी बस बकते हीं हैं)

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, August 04, 2013

देह नया है


वही धूप,
वही परछाई..
देह नया है... लेकिन अब

वही उम्र,
ज़रा अलसाई..
नेह नया है... लेकिन अब

लफ़्ज़ वही हैं,
वही हैं मानी,
सोए पड़े थे
ये अभिमानी..

अब जाग गए हैं... सब के सब..

देह नया है... देखो अब

- Vishwa Deepak Lyricist

Saturday, July 20, 2013

मर नहीं तो जाओगे?


मेरे पन्ने मुझसे पूछते हैं,
ज़िंदगी रूक गई है या सोच की ज़मीन हीं
हो चली है बंजर अब..

गर नहीं है ऐसा तो
किस लिए शब्दों के दो
पाँव गुम हैं राह से..

मौन है क्यूँ लेखनी
या कि लकवा-ग्रस्त है
जो टूटती है आह से..

बोलते हैं पन्ने कि
चीरकर अहसास को लिख पड़ो कुछ भी इधर
या कि लोहू घोल दो अपनी हीं पहचान में
भोंककर खंजर अब..

सोंच की ज़मीन हीं जो हो चुकी है बंजर अब
तो छोड़ दो शायरी..

मर नहीं तो जाओगे?

मर नहीं हीं जाओगे!!

बोलते हैं पन्ने कि -
रतजगों में ऐसे भी
सोच के मर जाने से बेहतर है मरना हुनर का...

मर जाएगा ज्योहिं हुनर,
तुम जीकर क्या करोगे फिर?

मेरे पन्ने मुझसे बोलते हैं....

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, July 19, 2013

मैं सरल हूँ


मैं तरल हूँ!

मुझे टुकड़ों में बाँटो
और पी जाओ..

मैं चुभूंगा नहीं..

बस खुली रखना
अपनी सिकुड़ी नलिकाएँ..

उतरूँगा शाखाओं में
मैं
और तुम्हें
कर दूँगा ठोस..

मैं सरल हूँ!!

मुझे प्रिय हैं
खंडहरों की नींवें
और तुम्हारा चढता-उतरता व्यक्तित्व...

- Vishwa Deepak Lyricist

Thursday, March 14, 2013

एक छटांक सूरज


मुँह अंधेरे
आँखों का आबनूसी रंग
उड़ेल दिया
मेरी उतरती पलकों पर..

शर्म से गुलाबी हो गए गाल
और लब सुर्ख..

तुमने डिंपलों में डुबोई
अपनी उंगलियाँ
और एक छटांक सूरज निकालकर
भर दी मेरी मांग..

एक बार फिर
फैल गया फागुन
चारों ओर..

काश!
हर दिन की होली यूँ हीं बनी रहे...

आमीन!!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, March 01, 2013

मैं एक दिन


मैं एक दिन लिखूँगा खुद को

तुम उस दिन भी नकार देना
मेरे लिखे को
आदतन..

और मैं
निकल जाऊँगा
तुम्हारी अपेक्षाओं से परे

बिल्कुल अपनी कविताओं की तरह

हँसते हुए........ तुमपे!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, February 18, 2013

मुर्दानगी


मैं शांत हूँ..

मेरी भूख डाल दो
कुत्ते की अंतड़ियों में..

वह कम-से-कम झपटेगा तो..

मैं शांत हूँ..

मुझे शांत रहना विरासत में मिला है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

क्या मैं बजाया जा रहा हूँ?


फटती है बिवाई
तो मैं
निकल पड़ता हूँ चप्प्ल सिलवाने...

फसलों को मार जाता है पाला
तो मैं
हथेली पर रोपने लगता हूँ
नई उम्र के नए बिरवे..

चलती सड़क
गुलाटी मार
जब झपट पड़ती है मुझपे
तो मैं हाथ-पाँव झाड़
निपोड़ देता हूँ अपनी बत्तीसी
और
पकड़कर पगडंडियों की पूँछ
करने लगता हूँ चीटियों से कदम-ताल...

चीखती रातें
मुझे लगती हैं
बेताल-दर्शन का
स्पेशल टूर पैकेज...

मैं मुंडवा लेता हूँ सर
जब उलझने लगती हैं
मेरे बालों में सवाना घास,
फिर बेच डालता हूँ
अपने घर के सारे ढोलक, तबले, मृदंग...

मैं निकालता हूँ रोज़ नई धुन
अपनी झुकी पसलियों से
और वे कहते हैं कि
मैं बजाया जा रहा हूँ..

क्या मैं बजाया जा रहा हूँ?

मुझे नहीं लगता
लेकिन
वे दु:खी हैं कि मुझे दु:ख का दु:ख नहीं...

वे डाँट रहे हैं मुझे
और अब मैं सीख रहा हूँ
उनसे नए शब्द
अपनी कविताओं के लिए...

कल फिर से लिखूँगा -

"मेरे शिक्षकों.... शुक्रिया!!!"...

- Vishwa Deepak Lyricist

Wednesday, February 13, 2013

हद दर्जे का चापलूस


मैं अपने शुद्ध स्वरूप में हद दर्जे का चापलूस हूँ...

तैरती मछलियों से पूछ लेता हूँ
उनके जीने-मरने के भाव..

हर साल दो इंच चढते पहाड़ों को
बताता हूँ
आसमान फोड़ने की ओर अग्रसर
और
आसमान को कह आता हूँ कान में
कि ज़मीन के उथले बादल
खाक पहुँचेंगे तुम तक...

मेरे ख्वाब मानते हैं खुद को
नींद का तारणहार

और नींद?
नींद तो अनाथालय है -
दूधमुँहे बच्चों को देती है
छत और बिछावन...

मेरे सारे शब्द
या तो गूंगे हैं या अर्थहीन,
लेकिन यह बात इन्हें मालूम नहीं;
मैं इन्हें पिरोता हूँ कविताओं में
और सीने पर तमगे लिए
लौट आते हैं ये अपने-अपने बाड़ों में
कीचड़ सने सूअर के बच्चों की तरह...

मैं बताता हूँ इन्हें शेर
और जमाता रहता हूँ हर शाम एक सर्कस...

जानता हूँ मैं
कि मेरे अंदर का कवि
अपने शुद्ध स्वरूप में
चापलूस है हद दर्जे का...

यकीन मानिए-
आप भी समझदार पाठक हैं!!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

चोंगा नकली खुशियों का


चलो देश बदल लें..

गुस्से के सौ अम्ल ढल रहे
आँखों के कोयल-बादल में,
मौसम के घुन समा रहे हैं
हौसलों के गेहूँ-चावल में..

सड़ जाए खलिहान और मिट्टी
देह की ऊसर-सी हो जाए,
आओ इससे पहले हम-तुम
जीने के परिवेश बदल लें..

चोंगा नकली खुशियों का हम
अपने चेहरों से झट फेंकें,
अपने माथे के खंडहर से
आलस की हर चौखट फेंकें..

तोड़ पड़ें इस राग-धर्म के
रीत-रिवाज, हर मोह मिटा दें
और हटाकर सड़ी-सी केचुल
इस लम्हे हीं भेष बदल लें..

चलो... चलें...
यह देश बदल लें..

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, January 22, 2013

ज़ेरोक्स करके रख लूँ मैं


आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स करके रख लूँ मैं..

आईये
कुछ बोलिये,
आँखों को मेरी खोलिये,
मुझको खिलौना कीजिए,
हाथों से टोना कीजिए..

पलकों पे साँसें मारिये,
कानों में झांसे मारिये,
मैं टोकूँ तो हँस दीजिए,
जो बोलूँ कि बस कीजिए
तो रूठ के चल दीजिए..

फिर लौट के खुद आईये
और आते हीं भिड़ जाईये...

आईये
आ जाईये,
आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स कर के रख लूँ मैं..

ख्वाब में आती है जो
आपकी हमनाम एक
आप-सी दिखती तो है
पर हैं हुनर उन्नीस हीं..

बीस तो बस आप हैं..

ख्वाब के उस ’आप’ को
आप करने के लिए
आईये
आ जाईये,
आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स कर के रख लूँ मैं..

देखिए,
साँस की खुराक का सवाल है!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, January 21, 2013

सोने दो इसे


ज़रा-सी आँख लगी है,
सोने दो
इसे..

तुम अपनी हवाओं की बांसुरी
फूंको
पहाड़ों के कानों में,
रोशनी के छींटे उड़ेल आओ
फूलों पे
गुलमोहर के,
जाकर निहारो एक-टक
रात भर बतियाते
मस्जिद-मंदिर के गुंबदों को,
पाँव चूमो
नीम-नींद में डूबी
गिलहरियों के -
तुम्हारी रचनाएँ तो वे भी है,
जाओ
उन पर नाज़ करो
इस वक़्त..

माँग लो
गौरैये से उसके पंख
और पहली उड़ान की तरह
निकल जाओ क्षितिज नापने..

निश्चिंत रहो-
तुम्हारी यह कविता
कर रही है मेरी डायरी में आराम..

मुझे प्यार पढने दो..

तुम आना कल सुबह
सूरज के साथ
और गुनगुना लेना इसे
गुनगुनी धूप की गिलौरी निगलकर..

तब तक
सोने दो इसे,
ज़रा-सी आँख लगी है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

मेरी हूर


सोयी हूरें
नहीं मिलती किताबों में भी..

सबको देखनी होती हैं
उनकी
घूरती आँखें,
घेरती बांहें
और थिरकते पाँव...

वे सारी हूरें
अभिशप्त हैं जागने के लिए
क्योंकि सोयी हैं
उनके मुरीदों की कल्पनाएँ..

मेरी हूर
सोयी है
सामने
और मैं रंगता जा रहा हूँ सफ़हे,
हज़ारों हज़ार सफ़हे -
उसके चेहरे पे,
अपने सीने में...

कविताएँ
उठकर बैठ रही हैं हर पल,
हुस्न जाग रहा है,
हूर सोयी है..

कवि ज़िंदा है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, January 18, 2013

ज़िंदगी आपकी ज़मीन पर है चल पड़ी


ज़िंदगी जुए से है निकल पड़ी,
ज़िंदगी धुएँ से है निकल पड़ी..

ज़िंदगी अब होश में है,
आपकी ज़मीन पर चल रही है,
जोश में है..

फूल के लिबास में,
ओस के कयास में,
खुशबूओं से खेलती
जूही, अमलतास में,
ज़िंदगी
धूप की छुअन से है मचल पड़ी...

ज़िंदगी लिजलिजी धुंध से निकल पड़ी..

ज़िंदगी अशर्फ़ी हुई कारण आपके,
रूह में मिलाकर देह को खिला दूँ,
अनमोल बर्फ़ी हुई कारण आपके...

आपके..

ज़िंदगी आपकी आँख में है ढल पड़ी..

हारे हुए जुए से जीतकर निकल पड़ी,
काले हुए धुएँ से बीतकर निकल पड़ी,
ज़िंदगी आपकी ज़मीन पर जो चल पड़ी...

ज़िंदगी..

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, January 13, 2013

तुम्हारी मुहर लगी साँसें


वो तुम्हारे लबों से "हाय, मर जावां" का फूटना
और मेरा मर जाना.. उसी दम...

याद रहेगा मुझे आवाज़ों का दौर गुजर जाने के बाद भी..

तुम बस इन छल्लेदार लबों से चूमती रहना हवाएँ,
मैं तुम्हारी मुहर लगी उन साँसों की बदौलत जीता-मरता रहूँगा...

बस तुम इशारों के उस दौर में मत भूलना
"हाय" कहना आँखों से,
मैं पढ लूँगा तुम्हारी अदाएँ टटोलकर "ब्रेल लिपि" में
और
और
मर जाऊँगा फिर से.......उसी दम

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, January 08, 2013

ओक भर की आँख में


नाटे कद की ज़िंदगी
फैलती है जा रही..

आसमां से बोल दो
नए रिश्ते ना बाँधा करे,
हाथ की ऊँचाई अब
है देह को छका रही..

नाटे कद की ज़िंदगी..

शाम की ढलान पे
हैं सुर्ख लब सिमट रहे,
ओक भर की आँख में
है रात छलछला रही..

नाटे कद की ज़िंदगी..

वो वहीं से बिन कहे
लौट गए आज भी,
हमने "प्यार" सुन लिया,
अब साँस बड़बड़ा रही..

नाटे कद की ज़िंदगी,
फैलती है जा रही...

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, January 07, 2013

गिरा है औंधे मुँह रिश्ता



तेरी आँखें कारखाना हैं क्या,
अहसास कारीगर हैं जिनमें..

फिर रोज़-रोज़ का रोना क्यों?

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कभी शिकवों पे हँसते थे,
अभी हँस दें तो शिकवे हों..

गिरा है औंधे मुँह रिश्ता..

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कल पर निकल आएँगे कानों के भी,
आज सुन लो मुझे गर सुनना हो..

मैं बोल के उड़ जाऊँगा यूँ भी...

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उसे ग़म है कि उसकी खुशियों का कद छोटा है,
मुझे खुशी है कि ग़म की पकड़ कमज़ोर हुई..

मैं ज़िंदा हूँ और वो मरता है खुशी रखकर भी..

_________________


कुछ झांकता है अंदर, कुछ भागता है बाहर,
मैं खुद से अजनबी-सा यह खेल देखता हूँ..

सीने में जंग छिड़ी है ईमां और बुज़्दिली में...

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, January 04, 2013

दिशाहीन


तुम्हारी विचारधारा
सर कटे मुर्गे की तरह है,
जो चार लम्हों के लिए चलता तो है
लेकिन
न दिशा जानता है, न हीं दशा..

तुम
जाल में फँसे उस तोते की तरह मुखर हो
जो
पिंजड़े में सिमटने के बाद भी
रटता रहता है एक हीं मंत्र-
"बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा ,
दाना डालेगा , हमें बुलाएगा,
हम नहीं जायेंगे, हम नहीं फँसेगे !"

तुम्हें चुभती है
लिखाई किसी पन्ने की
तो जला डालते हो
पूरी की पूरी किताब
और ताले चढवा देते हो पुस्तकालयों पे
ताकि "म्युटेट" न हो जाए फिर कोई "सेल्फ",
लेकिन नहीं झांकते
अपने घर के तहखानों में
जहाँ सदियों से शोर कर रहे हैं हज़ार छापाखाने....

मैं
तुम्हारे शब्दों को
जोड़ता हूँ जब
चाल-चलन से तुम्हारी,
तो खड़ा हो जाता है एक पिरामिड,
जिसमें लेप डालकर लिटाई मिलती है
सच्चाई, जिम्मेदारी और इंसानियत
"मिश्र की ममी" के लिबास में...

मैं
घूरता हूँ तुम्हारी जिह्वा पर लदे पिरामिड को
और सुनता हूँ उसकी बदौलत
तुम्हें पढते मर्सिया...

शायद यह सच न हो
या मेरी कोरी कल्पना हो मात्र,
लेकिन अगले हीं पल,
अगले हर पल
तुम्हारे छापाखाने दागते हैं सवाल
तुम्हारे उस्तरों पर
और
पन्नों का रंग लौट आता है तुम्हारी रगों की ओर...

फिर नहीं कटता कोई मुर्गा
और खोल में समा जाती है
तुम्हारी विचारधारा
नमक लगे घोंघे की तरह...

वैसे
नमक ज्यादा हो तो
मर भी जाते हैं घोंघे....

- Vishwa Deepak Lyricist

Thursday, January 03, 2013

दादी जी


पोरों में बर्फ जम जाए
तो टूट जाता है पत्थर भी,
कट-कटा उठते हैं दाँत लोहे के
जब सर पर काबिज़ होता है कुहासा...

फिर वह तो एक सौ-साला इमारत थी..

हाय!
छत उठ गई पोते-पोतियों के सर से,
भगवान घर की आत्मा को शांति दे...

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, January 01, 2013

बदलाव


कैलेण्डर बदल लिया है,
अब दिन-रात भी बदल लें..

पिरोयें रोशनी सुबह में
और सांझ के डूबते सूरज से
रात की अंधी-खुरदरी पगडंडियों के लिए
माँग लें धूप की टॉर्च,
परछाईं की चप्पलें...

सड़ती और सड़ी-गली सोच को
न सिर्फ हटाएँ शब्दों से,
बल्कि माथे में थमे हुए तालाब को भी
कर दें हरी काई और शैवालों से मुक्त,
उगाएँ सिंघाड़ें या फिर कमल
ताकि धमनियाँ और शिरे
ज़िंदा रहें, जागरूक रहें
और धड़कता-महकता रहे शरीर
आपादमस्तक...

सजाएँ जीने के ख्याल
और पलट दें
"मैरियाना ट्रेंच" तक धँसे हौसलों को
ताकि हर आह में खड़ा हो
एक नया एवरेस्ट;
तान दें अपनी आँखों के सामने
दो हथेलियाँ
और चढकर उनपे
बढा लें अपना कद
पौने दो या दो गुणा...

बदल दें रात और दिन,
क्षण, पक्ष, महीने
लेकिन सबसे पहले
बदलें खुद को -
अंदर की पलकें खोल
खंगालें हृदय ,
हटाकर हाड़-माँस
गूँथ लें फूल, पत्तियाँ,
सागर, आसमान, पड़ाड़
और आस-पास के
करोड़ों चेहरें, लाखों बुत, एक इंसानियत...

कैलेण्डर बदल लिया है,
अब बदल लें
कागज़, रोशनाई, आँसू, मुस्कान,
नज़र, नज़रिया
और सबसे बढकर
परिभाषा........बदलाव की...

- Vishwa Deepak Lyricist