तुम्हारी विचारधारा
सर कटे मुर्गे की तरह है,
जो चार लम्हों के लिए चलता तो है
लेकिन
न दिशा जानता है, न हीं दशा..
तुम
जाल में फँसे उस तोते की तरह मुखर हो
जो
पिंजड़े में सिमटने के बाद भी
रटता रहता है एक हीं मंत्र-
"बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा ,
दाना डालेगा , हमें बुलाएगा,
हम नहीं जायेंगे, हम नहीं फँसेगे !"
तुम्हें चुभती है
लिखाई किसी पन्ने की
तो जला डालते हो
पूरी की पूरी किताब
और ताले चढवा देते हो पुस्तकालयों पे
ताकि "म्युटेट" न हो जाए फिर कोई "सेल्फ",
लेकिन नहीं झांकते
अपने घर के तहखानों में
जहाँ सदियों से शोर कर रहे हैं हज़ार छापाखाने....
मैं
तुम्हारे शब्दों को
जोड़ता हूँ जब
चाल-चलन से तुम्हारी,
तो खड़ा हो जाता है एक पिरामिड,
जिसमें लेप डालकर लिटाई मिलती है
सच्चाई, जिम्मेदारी और इंसानियत
"मिश्र की ममी" के लिबास में...
मैं
घूरता हूँ तुम्हारी जिह्वा पर लदे पिरामिड को
और सुनता हूँ उसकी बदौलत
तुम्हें पढते मर्सिया...
शायद यह सच न हो
या मेरी कोरी कल्पना हो मात्र,
लेकिन अगले हीं पल,
अगले हर पल
तुम्हारे छापाखाने दागते हैं सवाल
तुम्हारे उस्तरों पर
और
पन्नों का रंग लौट आता है तुम्हारी रगों की ओर...
फिर नहीं कटता कोई मुर्गा
और खोल में समा जाती है
तुम्हारी विचारधारा
नमक लगे घोंघे की तरह...
वैसे
नमक ज्यादा हो तो
मर भी जाते हैं घोंघे....
- Vishwa Deepak Lyricist
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