ज़रा-सी आँख लगी है,
सोने दो
इसे..
तुम अपनी हवाओं की बांसुरी
फूंको
पहाड़ों के कानों में,
रोशनी के छींटे उड़ेल आओ
फूलों पे
गुलमोहर के,
जाकर निहारो एक-टक
रात भर बतियाते
मस्जिद-मंदिर के गुंबदों को,
पाँव चूमो
नीम-नींद में डूबी
गिलहरियों के -
तुम्हारी रचनाएँ तो वे भी है,
जाओ
उन पर नाज़ करो
इस वक़्त..
माँग लो
गौरैये से उसके पंख
और पहली उड़ान की तरह
निकल जाओ क्षितिज नापने..
निश्चिंत रहो-
तुम्हारी यह कविता
कर रही है मेरी डायरी में आराम..
मुझे प्यार पढने दो..
तुम आना कल सुबह
सूरज के साथ
और गुनगुना लेना इसे
गुनगुनी धूप की गिलौरी निगलकर..
तब तक
सोने दो इसे,
ज़रा-सी आँख लगी है!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
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