मेरे पन्ने मुझसे पूछते हैं,
ज़िंदगी रूक गई है या सोच की ज़मीन हीं
हो चली है बंजर अब..
गर नहीं है ऐसा तो
किस लिए शब्दों के दो
पाँव गुम हैं राह से..
मौन है क्यूँ लेखनी
या कि लकवा-ग्रस्त है
जो टूटती है आह से..
बोलते हैं पन्ने कि
चीरकर अहसास को लिख पड़ो कुछ भी इधर
या कि लोहू घोल दो अपनी हीं पहचान में
भोंककर खंजर अब..
सोंच की ज़मीन हीं जो हो चुकी है बंजर अब
तो छोड़ दो शायरी..
मर नहीं तो जाओगे?
मर नहीं हीं जाओगे!!
बोलते हैं पन्ने कि -
रतजगों में ऐसे भी
सोच के मर जाने से बेहतर है मरना हुनर का...
मर जाएगा ज्योहिं हुनर,
तुम जीकर क्या करोगे फिर?
मेरे पन्ने मुझसे बोलते हैं....
- Vishwa Deepak Lyricist
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