वे आस्तिक हैं..... हमें धर्म से डराते हैं..
ये नास्तिक हैं... हमें "हमारे" धर्म से डराते हैं
और खींचना चाहते हैं अपने धर्म की ओर
जहाँ हर दूसरा धर्म कचरा है
और "कचरा" बताना हीं इनका धर्म है,
ऐसा कहकर ये मजबूत कर रहे होते हैं
अपने धर्म की इमारत, मूर्तियाँ और "अध-कचरी" विचारधारा...
वे आस्तिक हैं... धर्म में.. धर्म-ग्रंथों में... अपने हिसाब से...
ये नास्तिक हैं, जो सारे धर्म-ग्रंथों को खारिज़ करके
लिखते हैं अपना हीं एक "धर्म-ग्रंथ"
जिसे "अंध-विश्वास" की हद तक
निगल लेते हैं इन्हें मानने वाले... "अफीम" के साथ;
अफीम, जो इनके किसी "क्रांतिकारी" ने
आस्तिकों के हीं आस्तीन से उठाई थी....
अब नशे में हैं... आस्तिक,नास्तिक... दोनों हीं..
दोनों ने सवाल करना छोड़ दिया है अपने-अपने धर्म से..
इस तरह...
आस्तिक हो गए हैं दोनों हीं.. किसी-न-किसी धर्म में..
और
हम धर्म-भीरू पिसे जा रहे हैं.. .दोनों धर्मों के पाटों के बीच...
हम..जिनके लिए धर्म का मतलब कुछ और हीं होना था!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
उधर मत ताकना,
कंजंक्टिवाईटिस (conjunctivitis) है दुनिया को..
आँखें छोटी किए
बुन रही है
अपनी सहुलियत से हीं
रास्ता, रोड़े, रंग, रोशनी, रूह, रिश्ते... सब कुछ...
देख रही है
अपने हिसाब से हीं
तुझमें तुझे, मुझमें मुझे...
देख रही है
अभी तुझे हीं... आँखें लाल किए..
उधर मत ताकना,
बरगला लेगी तुझे भी;
बना लेगी
तुझे भी..खुद-सा हीं....
- Vishwa Deepak Lyricist
बहुत हद तक जानता हूँ मैं तुम्हें,
तुम वही हो ना जो जानता है सब कुछ हीं...
ना ना, खुदा नहीं..खुशफहम हो..गप्पी हो..
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यक-ब-यक मैं बोल दूँ तुझको भी अपने-सा जो गर,
यक-ब-यक फिर तेरा भी अपना-सा मुँह हो जाएगा...
अपना-सा मुँह हो जाएगा तो खुद हीं मुँह की खाएगा...
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लिखने की ख्वाहिश छोड़ो भी,
लिखके ख्वाहिश बढ जाती है..
बढके ख्वाहिश मर जाती है..
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तुम्हें चाहिए हिन्दी! क्यों?
तुम्हें सा’ब नहीं बनना क्या?
'प्लीज़' कहो तो कृपा मिलेगी....
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उम्र झांक रही है तेरे चेहरे से,
खोल रही है जंग लगी खिड़कियाँ सभी..
नमी, नमक के गुच्छे हैं झुर्रियों के पीछे..
(अहसासों के सावन में ऐसे बंद न रहा करो)
- Vishwa Deepak Lyricist
हाँ ये ज़ाहिर है कि तू मेरा नहीं, उसका तो है,
उस खुदा का जिसने मेरा दिल है तेरा कर दिया...
क्या कहूँ इस कुफ़्र को- थोड़ी अदा, थोड़ी जफ़ा?
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तुम जीते-जी जी न पाए,
मैं मरता था, सो मर न पाया....
असर अलग पर हश्र एक-से..
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वह वहीं होता है जहाँ मेरी भनक बसती है,
वह वहीं होता है जहाँ मेरी तलब उठती है..
तलबगार भी वही है, तलब भी तो है वही...
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चलो दूरियों को अपनाएँ,
चलो खामखा झगड़ा कर लें..
यही दवा है ग़म-ए-इश्क़ की..
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मुद्दत हुई, मैंने तुझे देखा न उस तरह,
हरेक तरह देखा है पर, मुद्दत से तुझे हीं..
मुद्दत हुई हर इक तरह में "वह" तरह रखे...
- Vishwa Deepak Lyricist
कमाल का है पैरहन दुनिया की ज़ात का,
उधड़े कि या साबूत हो - उरियाँ हीं है रखे...
रिश्तों के जो रेशे हैं रिसते हैं हर घड़ी...
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हत्थे से हीं उखड़ गई वो जड़ ये जान के
कि फूल-पत्तियों ने खुद को उससे लाज़िमी कहा...
तुम गए तो साथ मेरी मिट्टी भी तो ले गए..
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पत्थर या नमक दे जाती है,
हर लहर जो मुझ तक आती है...
मैं रेत के साहिल जैसा हूँ...
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राह में तेरी रखी होंगीं ये आँखें उम्र भर,
जब उतर आओ अनाओं से बता देना इन्हें...
सात जन्मों का समय है, कोई भी जल्दी नही...
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मुझे एक टीस ने ज़िंदा रखा है,
तुम्हें एक टीस से मरना पड़ा था...
मिटा दूँ टीस तो मर जाऊँ मैं भी...
- Vishwa Deepak Lyricist
आज तोड़ डालो मुझे परत-दर-परत
कि मैं बामियान के बुद्ध-सा निर्लज्ज खड़ा हूँ..
होते में हूँ तुम्हारे, अहाते में हूँ तुम्हारे..
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इस बार मैं जो आऊँ तो मकसद न पूछना,
बस घर को घूर लेना, मैं लौट जाऊँ जब..
दो-चार गर्द होंगे कम, दो-चार रंग जियादा
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बस करवटों में रात चली जाएगी शायद,
मैं साहिलों पे डूबता-उठता हीं रहूँगा?
इन सलवटों में एक किनारा तो हो तेरा...
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लिफाफे जिस्म के खोले बहुत पर,
कहीं भी रुह की चिट्ठी पढी तूने नहीं...
खुदा ने "इश्क़" लिख भेजा था उनमें...
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न मैं "मेहमान" हो पाया उस घर का,
न तुम हीं "परिवार" हो पाई मेरी..
दोनों घर अजनबी हो गए..बस...
- Vishwa Deepak Lyricist
उतार दूँ ज़िंदगी का ये चोंगा,
कि पैरहन मौत के लाजवाब-से हैं..
बस इक आलस ने रोक रखा है मुझे...
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रात तिनके-सी उड़ती आती है और
चिमटे-सी खींच कर ले जाती है साँस को...
मैं जलाता हूँ या जलता हूँ - मालूम हीं नहीं चलता...
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हंगल साहब के लिए:
इक "सन्नाटे" ने छोड़ा शोर का साथ,
अब आवाज़ को ऊँगली पकड़ाए कौन?
वो गया तो अदब-ओ-सुकून ले गया..
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उतार ले मुझको मेरी इस ज़ात से,
कि मैं उकता गया हूँ ज़ब्त हो-हो के...
कभी अश्क़ों की बेड़ी तो कभी बीड़ा है सपनों का...
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ज़िंदगी दो घूँट लूँ
या ज़िंदगी से छूट लूँ...
इख्तियार खुद पे न इख्तियार आप पे....
- Vishwa Deepak Lyricist
मुझे मत दिखाओ सिगरेट का बुझा हुआ ठूंठ,
मैं खुद हीं जलके बुझता हूँ फिल्टर-सा हर समय...
सौ लफ़्ज़ गुजरते हैं.. जलती है शायरी तब..
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मानी छांट के लफ़्ज़ वो टांकता है पन्नों पे,
संवारके हर हर्फ़ फिर वह शायरी सजाता है..
चार "आह-वाह" लोग अर्थी पे डाल आते हैं...
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मैंने लिखते-लिखते चार-पाँच उम्रें तोड़ डालीं,
यह वक्त इसी हद तक मुझपे मेहरबान था...
कुछ और गर जो होता तो जीता मैं भी आज
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सोच हलक में अटकी है,
शब्द चुभे हैं सीने में..
दर्द की हिचकी आती है..
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क्या सुनेगा वो मेरी फरियाद को,
जो खुद हीं फरियादों से है लापता...
क्या ख़ुदा? कैसा ख़ुदा? किसका खु़दा?
- Vishwa Deepak Lyricist
बनारस की सीढियों को
छूकर जगता सूरज
अंजुरी में पानी ले
करता है - आचमन या वज़ू,
टेरता है
"हे भगवान"
या फिर "या अल्लाह"?
क्या पता!
बनारस की सीढियों पर
दिन भर ऊँघता सूरज
अघाता है चखकर
"केसरिया तर" मलइयो
या हरा पान
या फिर "केसर-पिस्ता" लौंगलता?
क्या पता!
बनारस की सीढियों से
लुढककर गिरते सूरज को
"मिर्ज़ापुर" संभालता है
या "गाज़ीपुर"
या फिर
हो जाता है सूरज भस्म वहीं
"मणिकर्णिका" घाट पर?
क्या पता!
बनारस की सीढियाँ जानती हैं
बस "बाबा लाल बैरागी" को
या "दारा शिकोह" को भी
जो सीखता था उससे उपनिषद
और
पढता था नमाज़.....पाँच दफ़ा?
क्या पता!
क्या मालूम -
बनारस की सीढियाँ तकती हैं किधर?
पूरब या मगरिब?
कौन जाने... क्या पता!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
पत्थर या नमक दे जाती है,
हर लहर जो मुझ तक आती है...
मैं रेत के साहिल जैसा हूँ...
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वह उड़ते-उड़ते बैठ गया मेरी आँखों में,
तब से हीं मेरी आँखों में कोई ख्वाब नहीं...
गिद्ध घरों पे बैठे तो मौत का आलम होता है..
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इश्क़ की बेरूखियों को रखता आया पन्नों पे,
सर पटक के आज हर्फ़ों ने किया है आत्मदाह..
मैं जलूँ या तुझको सीने से निकालूँ, तू हीं कह..
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सुबह से तुम्हारी यादों की हो रही हैं उल्टियाँ,
एक "हिचकी" की दवा दे जाओ कि चैन आए..
याद कर-करके मुझे मार हीं दो तो बेहतर हो..
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तुम सुधर गए हमें बिगाड़ते-बिगाड़ते,
हम उधड़ गए तुम्हें संवारते-संवारते..
प्यार तो था हीं नहीं, बस नीयतों की जंग थी...
- Vishwa Deepak Lyricist
एक झिल्ली है पतली
जिसकी एक ओर है तुम्हारा होना,
दूसरी ओर - न होना
और जिनमें भरे हैं द्रव
प्यार और नफरत के...
तुम बदलती रहती हो
घनत्व इन द्रवों के..
बदलती रहती हैं परिस्थितियाँ..
बदलता रहता हूँ मैं भी
और होता रहता हूँ
इस-उस पार
"ऑस्मोसिस" या "रिवर्स-ऑस्मोसिस" की बदौलत...
इस तरह
रिश्ते की वह पतली झिल्ली
झेलती रहती है
"सोल्वेंट", "सोल्युट" का खेल
और मज़े लेता रहता है "मनो""विज्ञान".....
- Vishwa Deepak Lyricist
तेरी आँखों में डूबा जब हीं,
तब से न उभर मैं पाया हूँ..
तेरी आँखें "ब्लैक होल" हैं री...
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बदरंग-सी थी हर शय अब तक,
तेरे कदम पड़े..रंग फैल गया..
तू हुस्न की "हिग्स बोसॉन" है क्या?
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हुनर मेरा लापता है तब से,
जब से हुआ मैं हुनरमंद हूँ...
शायर ने अब इश्क़ किया है....
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तेरा नाम आधा लिखकर तुझे सोचता हूँ मैं,
फिर सोचता हूँ कि ये पूरा नहीं मेरे बिना...
हर्फ़ थोड़े तुम भरो, हर्फ़ थोड़े मैं भरूँ....
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उसे अच्छा दिखने का शौक़ है
और मुझे... उसे देखने का..
ज़ौक़ दोनों का एक हीं तो है.
- Vishwa Deepak Lyricist
"स्वर्णाक्षरों" में लिखता इतिहास मुझे भी,
पर घूस देने के लिए पीतल भी ना मिला..
अब मेरे होने का नहीं है सच कहीं ज़िंदा...
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मैं झूठ की कतरन चुनता हूँ
और "शॉल" बनाता हूँ सच की..
वो ओढकर चुप हो जाते हैं...
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मेरे सच को सच का दस्तखत दे दो,
मेरे झूठ को गिरा दो मेरी नज़रों से...
मुझे बदलो या बदलो झूठा सच मेरा..
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बेबाकियों का जश्न मनाते थे हम कभी,
बेबाकियों के बोझ ने सूरत बिगाड़ दी...
उम्मीद बेवज़ह की थी अपने उसूल से..
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चट कर लो आ के मेरी सोच को भी
कि ये तेवर कागज पे थोड़े नरम हैं...
किया मैने लावा..लिखा बस शरर है..
- Vishwa Deepak Lyricist
ना चमड़ी है जो खून जने,
ना दमड़ी हीं जो सिंदुर दे..
ले भटकोइयां और मांग सजा...
*भटकोइयां = खर-पतवार श्रेणी का एक पौधा जिसपे "मटर-दाने" की तरह के फूल उगते है और जिन्हें फोड़ने पर लाल रंग निकलता है
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वो काटता है जब माटी को,
माटी-सा कटता जाता है...
सोना सोता है संसद में..
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गदगद हैं पूँछ उगाकर सब,
जो कल तक मुझ-से इंसां थे..
मैं जम्हूरियत का बागी हूँ...
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तालीम जहां की ऐसी है,
हर शख्स करैला नीम-चढा..
चुप्पी भी ज़हर उगलती है..
- Vishwa Deepak Lyricist
मैंने लिखना छोड़ दिया है!
साँस चला के रात-रात भर,
आँख जला के रात-रात भर,
बात बढा के बात-बात पर
मैंने टिकना छोड़ दिया है!
वक़्त से किरचे नोच-नोच कर,
ख्वाब के परचे नोच-नोच कर,
हवा में पुलिये सोच-सोच कर,
मैंने बिकना छोड़ दिया है!
मैंने लिखना छोड़ दिया है।
आँख में तेरी डूब-डूब कर,
साँस में तेरी डूब-डूब कर,
प्यास से तेरी खूब-खूब पर
मैंने सपना जोड़ लिया है,
तुझसे लिखना... जोड़ लिया है...
- Vishwa Deepak Lyricist
उन्हें सुनाने से कुछ नहीं हासिल,
मगर सुना दूँ कि चोट पैदा हो..
मुझे पता है कि वो हैं इकरंगी,
समझ चढा लें कि खोट पैदा हो..
कहाँ "महा’"राज" उत्तर या दक्खिन,
अगर नफ़ा हो ना नोट पैदा हो..
अजब मठाधीश है तेरा "मानुष",
तुझे भुला दे जब वोट पैदा हो..
उसे भगाओगे किस तरह "तन्हा",
हवा-ज़मीं में जो लोट पैदा हो..
- Vishwa Deepak Lyricist
आपकी तशरीफ को जब भूख लगी
तो आपने
माँग लीं हमारे हिस्से की बेंच-कुर्सियाँ भी..
हम माटी से खींचकर फांवड़े-कुदाल
और समेटकर अपनी सारी उम्र
लौट गए
गर्भ की गहराईयों में,
बाँध लीं हमने गर्भ-नालें,
जन्मने के लिए फिर से कहीं और...
अब आपको भूख लगी है पेट की;
आपकी कुर्सियाँ, आपके अर्दली, आपके रसिक
नहीं उगा सकते नारों और घुंघरूओं में धान, गेहूँ,
नहीं बाँध सकते बाँध का पानी अपने बाजुओं से,
नहीं उगा सकते अपनी हथेलियों पर कल-कारखाने...
इनकी हथेलियों पर तो उगती हैं बस सोने की रेखाएँ..
कहिए...आप वही खाएँगे क्या?
नहीं ना?
तो फिर खींच लीजिए
हलक से अपनी अंतड़ियाँ
और भून कर निगल लीजिए भूख के साथ,
शायद ऐसे में तर हो जाए आपका पेट..
न बने इतने में भी
तो निगल लीजिए कुर्सियाँ, अर्दली , ज़मीन सब कुछ...
वैसे भी ये अर्दली आपके
न पीस सकते हैं आटा
जिसे आप डाल दें अपने "राज"-महल की नींव में
ताकि सेंध लगाने न आ पाएँ चीटियाँ...
चीटियाँ
जो आती हैं उत्तर से बस आपके लिए,
है ना "महा""राज"?
- Vishwa Deepak Lyricist
एक उम्र तक की राह तो तुम देख लो पहले,
फिर सोच लेना कौन है तेरे साथ के काबिल..
एक उम्र तक की राह है पर उम्र से लम्बी,
एक साँस भर का हमसफर हीं है मेरी मंज़िल..
एक उम्र तक की राह जो तुम देखोगे ’तन्हा’,
तो जान लोगे पाँव किनके हो गएँ बुज़्दिल..
एक उम्र तक की राह फिर क्यों देखने बैठूँ,
जब इल्म हो कि रहबरों से कुछ नहीं हासिल..
- Vishwa Deepak Lyricist