तुम क्यों देखते हो ख्वाब..
क्या ख्वाब में उतरता है कोई आदिपुरूष
और धर जाता है तुम्हारी नींद की सीपियों में
सच्चाई, सफलता और संभावनाओं के मोती..
क्या ख्वाब में
तुम्हारे गाँव के बरगद पर लौट आती हैं,
पिछली पतझड़ में भागी हुई गिलहरियाँ..
क्या ख्वाब में अंबर का इद्रधनुष
थमा देता है अपनी प्रत्यंचा तुम्हें
ताकि
बेध कर आसमान
उतार लो तुम
गंगा एक बार फिर..
क्या ख्वाब में
आँगन की तुलसी
सूखते-सूखते
पकड़ लेती है जड़ तुम्हारी मिट्टी की
और खींचकर सबकी आँखों से संवेदनाएँ
फुदकने लगती है फिर से..
शायद हाँ
तुमने यह सब देखा है
बंद आँखों से
और जब खोली हैं आँखें
तो खो चुका होता है वसंत,
कुचली जा रही होती हैं तुलसियाँ
और
अंबर का बाण खींचा होता है
तुम्हारी तरफ हीं..
तुमने जब खोली हैं आँखें
तो जा चुका होता है आदिपुरूष..
तुम्हें उसी आदिपुरूष की तलाश है,
बस इसलिए
तुम देखते हो ख्वाब!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
तुमसे सीखता हूँ,
तुमसे जलता हूँ
और यूँ
भरता रहता हूँ अपने लफ़्ज़ों की ऐश-ट्रे...
तुम मुझे "रोल" करते रहो ऐसे हीं..
यह नशा मौत दे तो भी बेहतर..
बस तुम कभी
किसी कश में
आदतन
कह मत देना कि
"धुम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है"...
तुम "आइडल" हो मेरे
"गार्जियन" नहीं,
समझे ना!!
- Vishwa Deepak Lyricist
अब भी तुम उसी "मैनहोल" पे खड़े हो,
जहाँ डूबती आई हैं
तुम्हारी लाखों पीढियाँ...
करोड़ों बजबजाते कीड़ें
उनके कानों में
करते रहे हैं गजर-मजर
लेकिन तुम्हारी पीढियाँ
बेसुध-सी
निहारती रही हैं
आसमान के रंगीन अमलतासों को
कि कब एक पत्ता टूटे
और उनकी आँखें
उस पत्ते पर बैठकर
कर आएँ दुनिया की सैर...
तुम भी तो
गुलमोहर पर बैठी
उस हारिल में
ढूँढ रहे हो
सोने के कारखाने..
तुम!
जिसने न चलना सीखा है,
न उड़ना
और जो खड़ा है एक "मैनहोल" पे...
- Vishwa Deepak Lyricist
परिवर्तन
एक पिंजड़े की तरह है
जिसमें कैद है भविष्य का कोई तोता,
वह तोता जो रंग बदलता है
अपने इर्द-गिर्द की हवा के हिसाब से,
वह तोता
जिसकी तन्दुरूस्ती का पलड़ा
उसके जायके से भारी है
और उसके हाव-भाव
इसपर निर्भर करते हैं कि उसे
चना मिला है या मिला है
आखिरी रोटी का आखिरी निवाला...
यूँ कहें तो
परिवर्तन की खुशहाली या तंगहाली
उसके रहनुमाओं, उसके रखवालों
के हाथों में है..
लेकिन हमें
उस तोते का इतना ख्याल होता है
कि हम
हर पल डरते होते हैं
एक अनदिखे, अनसुने बाज से..
इसलिए हम
निकाल कर उन खिड़कियों की सलाखें,
वहाँ चुनवा देते हैं दीवारें
ताकि
उस तोते के तोते न उड़ जाएँ...
फिर तो बस
साँस हीं लेता रह जाता है वह तोता
या शायद... उतना भी नहीं,
हम इस तरह भूल जाते हैं तोते को
और नज़र रखते हैं बस पिंजड़े पर...
अब यह पिंजड़ा
तब्दील हो चुका होता है
भानुमति के पिटारे में...
इस पिटारे से फिर
कब, क्या, कैसा तोता निकले,
ज़िंदा या मुर्दा
किसे पता...
ऐसे में
भविष्य बन जाता है बोझ
परिवर्तन के लिए
और परिवर्तन हमारे लिए...
चलो आओ
इस पिंजड़े की खिड़कियाँ खोलें
और दें
भविष्य के तोते को
ज़िंदादिली के जामुन,
फिर देखो कैसे उचककर
परवाज़ भरता है यह तोता
परिवर्तन के पिंजड़े के साथ...
फिर देखो....काहे का बोझ...
- Vishwa Deepak Lyricist
वह बेरहम मालिक-मकान
कल निकाल देगा मुझे
इस कमरे से...
आज भर का छप्पर है,
आज भर का बिस्तर है..
आज भर हीं नखरे हैं...
कल से मर-मर जीना होगा,
कल से साँसें लेनी होंगी..
कल कहीं बसेरा करना होगा,
किसी कोख में जाना होगा..
वो कोख भी तो उकता जाएगी.....
- Vishwa Deepak Lyricist
सब मरने के लिए हीं जन्मे हैं,
इसलिए
पेट पे गमछा और
मुँह पे लार
बाँधके
बार-बार यूँ
घिघियाया मत करो कि
तुम्हें मार रही है तुम्हारी भूख...
तुम्हारी खपत
थोक भर घोंघों
और मुट्ठी भर नमक से ज्यादा
तो होगी नहीं,
इसलिए खूरों से खेत की मिट्टी
और नाखूनों से कछार की तलछट्टी
खुरचते वक़्त
आसमान में अठन्नी देख
नज़रें लपलपाया मत करो,
बड़बड़ाया मत करो
कि तुम्हें मालूम नहीं
सूरजमुखी का सुनहला स्वाद,
कि तुम्हें हासिल नहीं
इन्द्रधनुष की रंगीन हवामिठाई...
सुनो!
नाली के पानी से
धो हीं लेते हो
अपना खुरदरा चेहरा
और कभी-कभार उतर हीं आती हैं
बारिशें
तुम्हारी झोपड़ी में
लेकर अपने लाव-लश्कर,
फिर
समय-कुसमय मेरे पौधों
की जड़ पकड़कर ऐसे
अपनी आँखों से तालाब
उबीछा मत करो,
उबाला मत करो
मेरे गमलों के "मनी-प्लांट" को..
अच्छा है कि तुम
खोदते हो अपनी आँखें,
खोदो.. जितना मन हो खोदो..
निकालते रहो नमक मन भर
और यही
नमक-पानी खा-पीकर
खूब मौज करो,
मस्त रहो...
बस
घिघियाया मत करो कि
तुम्हें मार रही है तुम्हारी भूख...
- Vishwa Deepak Lyricist
इन अधूरी रातों के ख्वाब
चमगादड़-से
मेरी आँखों में लटके रहते हैं...
मैं ज़मीं पर पटकता हूँ अंगूठा
तो
आसमान फोड़ने लगते हैं
ये सारे चमगादड़..
एक बिजली उतरती है
आँखों के बरगद पे
और चीरकर पत्तों का सीना
समा जाती है
नींदों की कब्र में..
देखते हीं देखते
चैन-ओ-सुकून के
सारे सरमायेदार मेरे
कब्र में हीं हो जाते हैं
फिर से
लकवाग्रस्त...
मैं बटोरता हूँ उनकी हड्डियाँ
और बाँधकर उनसे चमगादड़ों को
खड़े कर देता हूँ
कई सारे "कागभगोड़े"...
फिर
लहलहा उठती है
खुदकुशी यकायक..
और
बदमिजाज़
डरपोक ज़िंदगी
पास भटकती भी नहीं
रात भर....
- Vishwa Deepak Lyricist
मुझे खंडित कर दो,
मैं इस कालखंड का नहीं...
मेरे शिल्पी!
मुझे तुम्हारी अनभिज्ञता का
नहीं था बोध,
यदि होता
तो मैं
उस कालखंड को हीं
खंडित कर देता
जब तुमने किया था
मेरा सृजन...
मैं तुम्हारी भूल
या फिर
बाध्यता से
सारी कुंठाओं का
शब्दकोष हो चला हूँ,
हीनता के सैकड़ों
पर्यायवाची
विचर रहे हैं
मेरे पृष्ठों पर
और मैं क्षुब्ध हूँ
असफलता के अतिक्रमण से..
मेरे इर्द-गिर्द
विचारधाराओं की
अनगिनत दुंदुभियाँ हैं
जो
मस्तिष्क फोड़कर
ठूंसती हैं
कर्णदोष, दृष्टिदोष
और नहीं आने देतीं
शब्दों को मेरे
वचन से... कर्म तक...
इस तरह मैं
मनसा..वाचा..कर्मणा
हो रहा हूँ....अकर्मण्य..
ऊबकर
मेरी जिजीविषा
और
मेरे विचारों के सैनिकों ने
डाल दिए हैं धनुष-बाण
फिर
बाँधकर पाजेब
करने लगे हैं नर्तन
मृत्यु के अंत:पुर में..
(कलियुग के इस कालखंड में
मृत्यु
वैतरणी नहीं
मेरे शिल्पी!
ना हीं यह जीवन है
कोई यज्ञ-वेदी..
जीवन-मरण
मात्र एक भाग-दौड़ है
एक वेश्यालय से दूसरे वेश्यालय तक की..
आश्चर्य!
तुम्हें हीं ज्ञात नहीं
जबकि तुमने हीं गढी हैं वेश्याएँ...)
हाँ तो
इससे पहले कि
टूट जाएँ
पाजेबों के मेरूदंड
और मृत्यु
लूट ले मेरी जिजीविषा,
तुम सिल दो एक अर्थी
मेरे हेतु
और
खंडित कर दो मुझे..
खंडित कर दो मुझे,
मैं इस कालखंड का नहीं...
(मैं
ऋणी रहूँगा तुम्हारा
सदैव
मेरे अनभिज्ञ शिल्पी....)
- Vishwa Deepak Lyricist
खेल-खिलवाड़ के इस दौर में
कंचे की शक्ल में
नज़र आती है मुझे
यह दुनिया..
यह दुनिया
जो आजकल
थैली में है हमारी..
या तो हमने
अंटी मारी है
या
मगरूरियत में
मारा गया है वो
जिसने बनाया था यह खेल...
उसने हारकर
लगा ली है फाँसी,
समा गया है
कई सारे कोपभवनों में..
और हम?
जीतकर हार रहे हैं
क्योंकि
हमें कंचे से ज्यादा
फिक्र है
उन कोपभवनों की
हम शिकार हो रहे हैं
अपने डर
और उसके बड़प्पन का,
हम शिकार हो रहे हैं
उसके डर
और अपने बड़प्पन का..
सनद रहे!
उसके शमशान
सजाए हैं हमने,
पर हमारे शमशान?
हमारे हारने पर
कोई उतारने भी नहीं आएगा
हमें
क्रॉश से..
इसलिए
इससे पहले कि
कंचे-सी यह दुनिया
जेबों और हथेलियों में घिसकर
किरकिरी हो जाए,
आओ खींचे इसे हम
दो मंझली ऊँगलियों से
और उछाल दें आसमान में..
जो थम गई है
उसकी सीढियों पर,
जो थम गई है
हमारी थैलियों में,
उसे उतार दें एक धक्के से
सूरज के इर्द-गिर्द..
क्या कहते हो
कॉपरनिकस?
गैलीलियो?
हमारी मेहनत सफल तो होगी ना?
खैल-खिलवाड़ के इस दौर में...
- Vishwa Deepak Lyricist
नींद के दरवाज़े खोलकर
आई वो धीरे से...
न चश्मा उतारा,
न कपड़े बदले,
न हँसी,
न रोई,
न हिचकी,
न ठिठकी..
बस मुड़ी मेरी ओर
और
खींच कर मुझे
समा गई बिस्तर में...
बदचलन मौत!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
तुम्हारे पुरखों ने
रात भर
जलाई थी चिलम,
रात भर
ऊँगलियों से
फोड़ा था तारों को
और रात भर
रेगनी के काँटों को
तोड़कर नाखूनों से
दी थीं माँ-बहन की गालियाँ..
ये
तुम्हारे पुरखें
फड़फड़ाते रहते थें
रात भर
पर-लगी चींटियों की तरह
और आखिर में
समा जाते थे
किन्हीं कोटरों में
तिलचट्टों-से..
उन्हीं रातों में
जब तुम्हारे पुरखे
बेशर्मी की फटी चादरों पे
उतारते होते थे
अपना बड़बोलापन,
कोई
ठूंस जाता था तुम्हें
तुम्हारी
महतारियों की कोख में...
और तुम कमबख्त,
आधे क्लीव
और आधे कोयले की संतानें,
निहारते रहते थे
रात भर
अपनी माँओं की
प्रसव-ग्रंथियाँ,
नोचते रहते थे
रात भर
अपनी माँओं के जिस्म..
नोचते रहते हो
आज भी
अपनी माँओं के जिस्म
सरेआम सड़कों पे..
काश!
तुम्हें गर्भ-नाल से तोड़कर
और खींचकर चिमटे से
डाल लिया होता
तुम्हारे पुरखों ने
चिलम में..
फिर
लेते एक कश
और हो जाती
तुम्हारी मर्दानगी... हवा!
काश!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
चलो छोड़ो..
शाम यूँ हीं
शरबत-से समुंदर पर
शक्कर-से सूरज-सी
सरकती हुई
बुझ जाएगी..
तुम्हें क्या!
तुम तो
रात की चटाई पे
राई-से तारों को
बिछाकर
चुनने लगोगे
कालिखों के ढेले,
गर कभी चाँद
हाथ आया भी तो
कहकर
उजला कंकड़
फेंक दोगे उसे
उफ़क की नालियों में...
सुबह होते-होते
तारे
समा चुके होंगे
कोल्हू में
और फैल चुका होगा
चंपई तेल
आसमान पर..
सुबह होते-होते
तुम भी
बन चुके होगे
एक कोल्हू...
खैर छोड़ो,
तुम्हें क्या...
- Vishwa Deepak Lyricist
छल और मर्यादा के बीच
कृष्ण का वह पाँव
खड़ा है
जो हुआ था छलनी
जरा के बाणों से..
(वही पाँव
जिसने एक ठोकर में
ठेल दिया था
बलि को पाताल में
तो दूजी में
अहिल्या को
दिया था
जीवन-दान..)
बाण तब भी चले थे
जब कृष्ण ने छुपा लिया था
बरबरीक से एक पत्ता..
तब क्यों न बिंधा वह पाँव?
(तब तो कटा था
एक निरपराध का सर..)
कृष्ण ने तो
एक पग में हीं
नाप लिया था
सारा का सारा कुरूक्षेत्र..
वह पाँव
तभी गिरा
जब रूक जाना था
थक कर उसे..
छलनी होना तो
एक छलावा था मात्र,
मर्यादा का मन
और
छल का मान रखने के लिए...
- Vishwa Deepak Lyricist
त्राहिमाम...
सन्नाटे रात के
चीखते हैं
जब कूद्ती हैं उनपे
सौ कानों में ठेली गईं
तुम सब की
चापलूसी आवाज़ें..
भाई,
भेड़ियाधसान
भीड़ है यहाँ
विचारधाराओं की
और तुम
हर क्रॉश, हर त्रिशूल, हर चाँद पर
अपनी अमूल्य सोच का
लेबल चिपकाते फिरते हो..
हज़ार... हज़ार एक...हज़ार दो...हज़ार तीन,
चलो
तुम भी कर लो गंगा-स्नान
और बजा के अपनी दुंदुभि
फोड़ दो
रात के इयर-ड्रम्स...
दिन तो
मर हीं चुका है
पीलिये से,
अब रात के कानों से भी
खींचकर खून
कर दो उसे मरीज़
एनीमिया का...
मैं नहीं कहता,
लेकिन
ऐसे में
इंसानियत की दिनचर्या
किसी से लोहा न ले पाए... तो मत कहना!!
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं शायद तुम्हारी नब्ज नहीं जानता..
तुम्हारे ललाट की बारीक रेखाओं
और उनकी गुत्थम-गुत्थी
में हीं उलझा रहता हूँ मैं,
न देख पाता हूँ
उस ललाट के आसपास की सजावट,
छूट जातीं है मुझसे
तरतीब में सजी
तुम्हारी भौहों की समतल क्यारी
और वहीं
बगल से गुजरती
काजलों की पगडंडी,
न सुन पाता हूँ
"आवारे सज्दे" करतीं
तुम्हारी बालियों की
बेटोक धमाचौकड़ी
और
तुम्हारी आवाज़ की
असरदार घंटियाँ
क्योंकि मैं
तुम्हारी खामोशियों से हीं
अलिफ़, बे चुनता रहता हूँ..
तुम्हारे आईने
करते हैं तुम्हारी खुशामद
और मैं जब
तफ्सील से
बताता हूँ तुम्हें
तो
कुरेदने लगती हो तुम
हमारा रिश्ता
पैर के नाखूनों से
और मेरी हथेली पर
लगाकर
नासमझी का ठप्पा
दबाने लगती हो
अपने तलवे से
मेरी भलमनसाहत;
मैं ताकता रह जाता हूँ तुम्हें
और तौलने लगता हूँ
तुम्हारी आँखों में अपनी परछाई..
मैं बेरोक
बुनता रहता हूँ
अपनी धड़कनों से तुम्हारी धमनियाँ
और खींचता रहता हूँ
ज़हरीले जज़्बात
तुम्हारी शिराओं से
अपनी साँसों में..
फिर भी
तुम्हारी चूड़ियों में
नहीं उतरता मेरे खून का लाल रंग..
मैं
टटोलकर देखता हूँ
तुम्हारी कलाई,
तुम झल्लाती हो
और
खुल जाती हैं
बहत्तर में से छत्तीस
खिड़कियाँ किसी और के लिए..
मैं यकीनन तुम्हारी नब्ज नहीं जानता..
- Vishwa Deepak Lyricist
तुम लिख लेते हो..
रात भर या तो तिलचट्टे
के बादामी बदन,
छह टांगों
और कागज़ी पंखों
में ढूँढते रहते हो
बदरंग और
बजबजाती किस्मत के रहस्य,
जो भागते रहते हैं तुमसे
बिलबिलाकर..
या फिर किसी तिलमिलाते
"तिल" की
तरेरती आँखों में
गोंद डालकर
चिपकाते रहते हो
अपना प्रणय-निवेदन
और हार जाने पर
उन्हीं आँखों के मटियल पानी में
चप्पु थमाकर
उतारते रहते हो
अपनी कुंठा
ताकि
जितनी आगे बढे
तुम्हारी छिछली सोच,
उतनी हीं छिलती जाए
"उन" आँखों की अना..
अफ़सोस!
तुम न तो
कर पाते हो
अपनी किस्मत पे काबू,
न हीं उड़ेल पाते हो
"उन" आँखों में अमावस..
फिर भी,
करते हुए
तिल का ताड़,
तुम
लिखते रहते हो..
तुम लिख लेते हो!!
- Vishwa Deepak Lyricist
बदचलन मेरी आदतें
गर आपकी
अर्दली हो जाएँ तो
मेरे माथे पे चढाया
बेहयाई का ये परचम
कुछ झुकेगा
या नहीं?
बोलिए तो...
आपकी गर मानें तो
मेरी इन हथेलियों के
आड़े-टेढे रास्तों पे
जो उतरते हीं नहीं है
आफताबी सात घोड़े
वो मेरी बदरंग तबियत
की मेहर है..
इसलिए गर
आपकी तदबीर से
माँगकर कुछ कोलतार
डाल दूँ इन
सरफिरी पगडंडियों पे
और कर दूँ
पक्की सड़कें मैं इन्हें
तो मेरी
माटी भरी तकदीर का
हो पड़ेगा काया-कल्प
या नहीं?
बोलिए तो...
बदसलूकी करते मेरे
अल्फ़ाज़ ये
आपके हम्माम में
धुलने लगें हर रोज़ तो
"बेरूखी" और "बेबसी" के हर्फ़ सब
बह जाएँगें..
यूँ हुआ तो
आपके खलिहान के
किसी छोर पे
इक लेखनी के वास्ते
एक-आध हीं सरकंडे मेरे
बोलिए
उग पाएँगे
या नहीं?
बोलिए तो...
- Vishwa Deepak Lyricist
मैं यहीं कहीं मिलूँगा
किसी कनस्तर में
पड़ा हुआ
औंधे मुँह..
सड़ता हुआ
या सड़ चुका..
तुमने छुपाया था मुझे
अपने मुस्तकबिल के लिए
बड़े जतन से..
बचाया था मुझे
लम्हा-लम्हा बटोरकर..
कभी जोड़कर
हँसी की दो कतरनें
तो कभी उम्मीदों के
दो बेतरतीब धागे
गूँथकर
तो कभी सहेजकर
आँखों से गिरतीं
कई बेमोल गिन्नियाँ..
मैं हर गिन्नी, हर धागे, हर कतरन
में ज़िंदा था
किसी हौसले-सा..
और तुम
उसी हौसले से
अपना ख्याली महल गढे जा रहे थे..
उस महल में सेंध लग गई
जब
पिछली अमावस
तुम्हारे अपने हीं
बहुरूपिए कारीगरों ने
कुतर डालीं वे कनस्तरें...
और आज जब
मायूसियों की मुर्दानगी
उतर आईं हैं इन खंडहरों में
और कालिखों ने
नोच डाली हैं दीवारें
अपने नाखूनों से
तो उस चूरन से दबकर
यहीं कहीं पड़ा हूँ मैं औंधे मुँह..
अफसोस!
अब न बचेगा तुम्हारा मुस्तकबिल!!
न बचेगा तुम्हारा महल!!!
मेरा क्या..
मेरी क़ीमत सिफर थी पहले.... औरों के लिए
सिफर हो गई आज...तुम्हारे लिए भी..
मैं अबूझ था पहले,
अबूझ हूँ आज भी.....यकीनन!!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
चलो चाँद की चाहरदीवारी तोड़ आएँ,
चलो लूट लें एकबारगी हक़ शायरों का...
चलो जाग लें जुगनू की रोशनी तले,
चलो छीन लें खामोशियाँ सब रात से...
चलो जान लें है जानलेवा ज़िंदगी,
चलो जान दे के मौत से रेहन छुड़ा लें...
चलो बात कर के शब्द को बेमानी कर दें,
चलो शांत रह के छोड़ दें सागर नदी में...
चलो नींद पी के ख्वाब को जबरन उठा लें,
चलो ख्वाब ला के नींद को जी भर धुनें...
चलो आस रख के फिर से लुट जाएँ यहाँ,
चलो प्यार कर के आखिरी जेवर गवां दें...
चलो...
चलो चाँद की चाहरदीवारी तोड़ आएँ...
चलो प्यार कर के आखिरी जेवर गवां दें...
- Vishwa Deepak Lyricist
पत्थर है कि ख़ुदा है,
इंसान जाने क्या है!
टूटेंगीं मूरतें अब,
मंदिर का सर झुका है..
शब्दों की धांधली है,
मुर्दा भी जी चला है..
छूटोगे मुझसे कैसे,
"तन्हा" तो एक बला है...
- Vishwa Deepak Lyricist
उसने तुम्हारी बात नहीं मानी
तो तुमने
उसकी गर्भ-नाल की पवित्रता पर
डाल दिए प्रश्न-चिन्ह!
वह जब तक चुप रहा,
जब तक
देता रहा तुम्हारे अहम को आँच,
जब तक
उसने छुपाई रखी तुम्हारी नपुंसकता,
तब तक
तुमने उसे जगह दी अपनी मूंडेर पे
और वह कौए-सा
करता रहा
तुम्हारे हर दोमुँहेपन का स्वागत
चाहे-अनचाहे!
और आज..
आज जब उसने
पाँव की कील से
ज्यादा अहमियत दी
अपने पाँव को
तो तुमने
डाल दिए प्रश्न-चिन्ह
उसकी गर्भ-नाल की पवित्रता पर!!
- Vishwa Deepak Lyricist