Thursday, December 16, 2010
साँसें और होमियोपैथी
साँसें बारीक काटकर
भर लें आ
सौ सीसियों में..
"ऊँची ऊँचाई" पर जब
हाँफने लगें रिश्ते
तो
उड़ेलना होगा
फटे फेफड़ों में
इन्हीं सीसियों को
होमियोपैथी की खुराक
देर-सबेर असर तो करेगी हीं!!
-विश्व दीपक
Sunday, December 12, 2010
कोई सीखे तुमसे सिफ़र थाम लेना..
इन भौहों के बल पे क़मर थाम लेना,
कोई सीखे तुमसे सिफ़र थाम लेना..
अज़ल से छिपाकर रखी है क़यामत,
पलक गर उठाओ, नज़र थाम लेना...
निगाहें तुम्हारी, निगाहें हमारी,
कभी मिल गईं तो जिगर थाम लेना....
बड़ी हीं वफ़ा है तुम्हारी अदा में,
जो मुझसे खता हो, असर थाम लेना..
जो लिखने चलें हम मरासिम हमारे,
तो मैं काफ़िया, तुम बहर थाम लेना..
हाँ ज़ाया किये हैं सभी लम्हे मैंने,
जो तुम आ मिलो तो उमर थाम लेना..
जो डँस लें मुझे गेहुँअन ये ग़मों के,
नसों में उतर, तुम ज़हर थाम लेना..
जाने मैं कैसे "तन्हा" था अब तक,
तुम आकर ये मेरा हुनर थाम लेना..
पलक गर उठाओ, नज़र थाम लेना...
-विश्व दीपक
शब्दार्थ:
१) क़मर = चाँद
२) सिफ़र = आकाश
३) अज़ल = सृष्टि की संरचना का दिन
४) मरासिम = रिश्ता
५) गेहुँअन = एक प्रकार का साँप
Monday, November 29, 2010
दाढी वाले बाबा
मन मोहो तो तुमको मानें, दाढी वाले बाबा!
देवी-भक्त को देवता जानें, दाढी वाले बाबा!
तिनका कब तक छुपा रखोगे, लंबी-सी दाढी में,
लब ये कब तक दबा रखोगे, कंघी-सी दाढी में,
उलझी-सी आवाज़ कभी तो सुलझेगी, निकलेगी,
जटा-जूट में फंसी अक्ल है, कभी तो कुछ मचलेगी,
यही उम्मीद लिए बैठे हैं, देश के एक अरब ये,
कभी तो राजा रंक बनेगा, सभी की है तलब ये,
तलब मिटा दो.. ओ मनमाने दाढी वाले बाबा!
देश बचा लो..ओ "बाबा" के दाढी वाले बाबा!
-विश्व दीपक
Sunday, October 17, 2010
साँसों की पैदावार
मन की बुनियाद खत्म जानो,
ख्वाबों की खाद खत्म जानो,
जज्बों के जल कोई लूट गया,
हसरत के हल कोई लूट गया,
हिम्मत के दोनों बैल गए,
कुछ बीज जले, कुछ झेल गए,
जो हौसले थे.. खेतिहर कभी,
मर रहे भूखे.. बेमौत सभी..
हाँ, कभी ये तन उर्वर तो था,
ना सोचा था.. ऊसर होगा,
पर धोखों ने यूँ दगा दिया,
दमखम में दीमक लगा दिया
चट-चट कर हड्डी दरक रही,
फट-फट के माटी फरक रही,
तबियत पर सौ हथियार चढे,
खुन्नस के खर-पतवार बढे..
ऐसे में सूद माँगते हैं
रिश्तों के साहूकार सभी,
क्या करूँ, कहाँ से लाऊँ मैं
साँसों की पैदावार अभी?
-विश्व दीपक
Saturday, October 16, 2010
इन अधरों पर अम्ल बसे
इन अधरों पर अम्ल बसे, तुम इनके निकट यूँ आओ ना,
ये शुष्क सुप्त हैं अच्छे भले, तुम इनमें प्रीत जगाओ ना..
कभी इनकी भी थी एक भाषा,
कभी इनपे सजी थी अभिलाषा,
कभी ये भी प्रीत-पिपासु थे,
कभी ये भी चिर-जिज्ञासु थे,
पर रूग्ण हैं ये तब से... जब से
यह विश्व हो चला दुर्वासा..
निष्ठुर इस जग के शापों पर तुम ऐसे घी बरसाओ ना,
ये शुष्क सुप्त हैं अच्छे भले, तुम इनमें प्रीत जगाओ ना.
-विश्व दीपक
दुनिया तो अक्कड़-बक्कड़ है
ये दुनिया लाल-बुझक्कड़ है,
यहाँ डेग-डेग पे चक्कर है,
बोली में सौ मन नीम भरा,
लल्लो-चप्पो में शक्कर है..
तुम भी तो कुछ पासे फेंको,
शेखी बघार लो.. टक्कर है,
या फूंक डालो घर अपना हीं,
सब कहेंगे दुखिया, फक्कड़ है..
अरे बचो, देह न तोड़ दे ये
सच जानलेवा है, झक्कड़ है,
क्यों इसे सुधारने बैठे हो,
दुनिया तो अक्कड़-बक्कड़ है...
-विश्व दीपक
मन खरा सोना है
मन मूंगा है, मन माटी है,
मन खरा सोना है... खांटी है..
मन तेरे मन की जाने है,
जहाँ नौ-नौ मन तो बहाने हैं,
जो तू मन से मुझको चाहे है,
तो ये नखरे काहे उगाहे है,
मन मार ना... मन को कोस न तू,
मन दे दे... मन यूँ मसोस न तू...
कि मेरे नाजुक मन को तेरा
मन रोज़ी-रोटी है... लाठी है..
मन खरा सोना है... खांटी है..
-विश्व दीपक
उसे इंसान कहना कितना जायज है
एक इंसान जिससे नफ़रत है मुझे...
कभी-कभी यह सोचता हूँ कि
उसे इंसान कहना कितना जायज है..
वह बढना जानता है
किसी भी कीमत पर..
कल दो नरमुंडों पर चढकर
छह इंच और ऊँचा हो गया..
नरमुंड... उसी के माँ-बाप के..
दूसरों की साँसें चुराकर
अपनी उम्र में ठूंसता है,
साँसे... उसी के चापलूसों की..
हाड़-माँस से सिला
एक अभिशाप है.. वह इंसान
जिससे नफ़रत है मुझे...
-विश्व दीपक
ज़िन्दगी का खर्चा है
इश्क़-विश्क़ के इम्तिहान में,
अव्वल आने को हर कोई
नकल कर रहा खुलेआम हीं
लिए दिल में दिल का पर्चा है..
मगर ध्यान रहे.
पकड़े गए तो
दुनिया की इस कोतवाली में
तुरंत जमानत पाने खातिर
एक ज़िन्दगी का खर्चा है.
-विश्व दीपक
बेशरम चटोरी है
दिन का कनस्तर है
रात की कटोरी है,
धूप-घाम थोक में है
ओस थोड़ी-थोड़ी है,
अंबर पे क्या कोई
तिलिस्मी तिजोरी है?
रोज़-रोज़ उपजे है
रोज़ की हीं चोरी है..
धरती की भूख तो
बेशरम चटोरी है,
तिल-तिल निगले है
तिस पे सीनाजोरी है..
-विश्व दीपक
Saturday, September 25, 2010
जी का जंजाल
ज़िंदगी जी का जंजाल हो चली है,
मौत भी ससुरी मुहाल हो चली है..
न राशन रसद में,
न ईंधन रसद में,
न महफ़िल हीं जद में,
न मंज़िल हीं जद में,
ना पग ना पगडंडी,
सौ ठग हैं सौ मंडी,
दिल ठंढा, जां ठंढी,
शक्ति की सौं... चंडी
भी अब तो बेबस बेहाल हो चली है..
ज़िंदगी जी का जंजाल हो चली है..
न चेहरा हीं सच्चा,
न सीसा हीं सच्चा,
या किस्मत दे गच्चा,
या हिम्मत दे गच्चा..
जो थम लूँ तो अनबन,
जो बढ लूँ तो अनशन,
जो दम लूँ तो मंथन,
गंवा के सब अनधन
ये धरती तो अब पाताल हो चली है...
ज़िंदगी जी का जंजाल हो चली है..
-विश्व दीपक
Sunday, August 15, 2010
तिरसठ साल
तुम्हें पता है?
जिसे जुड़े हुए तिरसठ साल हैं बीत गए,
उसी हिन्द के
आह! हँसे हुए तिरसठ साल हैं बीत गए..
उसी हिन्द के
आह! ये सारे तिरसठ साल हैं रीत गए..
पूछते हो
ये माज़रा क्या है?
हिन्द कौन?
ये किस्सा क्या है?
धीर धरो..
मैं बतलाता हूँ,
दु:ख क्या है
ये जतलाता हूँ..
गौर से सुनो…
तुम्हें तुम्हारा माज़ी याद दिलाता हूँ,
कब्र में दफ़न कर्त्तव्यों के
अस्थि-पंजर दिखलाता हूँ,
जिसे तुमने खंडहर कर छोड़ा,
आओ… आओ उससे मिलवाता हूँ।
_____________________________
वही जिसे तुमने सड़कों पे टुकड़ा-टुकड़ा पाया था,
वही जिसे उघड़ा, उधड़ा और उखरा-उखरा पाया था,
वही जिसकी गरदन थी कहीं और कहीं पे मुखरा पाया था..
वही जिसके दुखरों में तुमने अपना दुखरा पाया था,
हाँ! वही हिन्द था!
पश्चिम के हाकिम भाग गए
जब तुमने एक हुंकार भरा,
तुम आगे बढे,
उम्मीद बढी,
तुम टुकड़े जमा कर ले आए,
और देखते-देखते
पल भर में
तुमने टुकड़ों को गूँथ दिया।
चालीस करोड़ जब हाथ मिले तो टुकड़ों ने एक रूप लिया,
शक्ल मिली, पहचान मिली, बेनूर हुस्न ने नूर लिया,
तलवे धोए, उबटन डाले, घावों के गड्ढे भर डाले,
चेहरे पे रंगत उगने लगी, हिम्मत ने दम भरपूर लिया।
सबने अपनी साँसें सौंपीं, सबने अपने लम्हे डाले,
फिर तब जाके, यह हिन्द कहीं, चलने लायक तैयार हुआ।
__________________________________
सच है कि तुम्हारी मेहनत से हीं हिन्द खड़ा हो पाया था,
तुम सबकी हीं ऊँगली धरके इसने दो कदम बढाया था,
लेकिन यह क्या?
ज्योंहिं तुमको आभास हुआ कि हिन्द खुद हीं चल सकता है,
तुम मुड़ गए अपनी राहों में,
तुम खो गए अपनी चाहों में,
लेकिन तब तक यह हिन्द कहाँ थोड़ा भी संभलने पाया था।
अपनी हीं गलियों में इसको करके लावारिस छोड़ गए,
जाने किसके जिम्मे रखके अपने चालीस करोड़ गए…
कौन गलत था, कौन कहे?
जब हिन्द खुद-ब-खुद मौन रहे?
ठोकर खाके, पिसके , रिसके भी इसने ना कुछ शिकवा किया,
हाँ रोता रहा,
अपनों की खातिर रोता रहा,
जब बेईमानी, रिश्वतखोरी और राजनीति के काँटों ने
इसके शरीर के हर हिस्से के रोम-रोम को बेध दिया।
हालत फिर पहले जैसी थी,
हालात भले हीं दूजे थे,
पहले औरों से दर्द मिले,
अब तो अपने हीं दूजे थे,
अपने हीं घर में रो-रोकर दो आँख हिन्द के सूजे थे।
जब घाव बढा, नासूर बना,
बदबू फिर तुमतक जा पहुँची,
छि:! कौन है? किसकी लाश है ये?
ओह! हिन्द है ये!
ज़िंदा है, लेकिन इसको तो अपना कुछ भी है ध्यान नहीं,
बरबाद है, इसे छोड़ो अब…. यह अपना हिन्दुस्तान नहीं।
बस वो दिन था,
और फिर तुम सब,
यह देश छोड़कर निकल गए,
किसी और जहां को खुश करने,
कर्त्तव्य तोड़कर निकल गए।
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कुछ याद पड़ा?
पत्थर हो चुके हृदय पर क्या थोड़ा भी आघात पड़ा?
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसि”
यह वेद-वाक्य है… ज्ञानियों ने कुछ सोचके हीं थी बात कही.
जो स्वर्ग से भी बढकर है कहीं,
तुम उसे भुलाए बैठे हो,
इतना गुमान क्यूँ है तुममें
जो अपनी माँ से ऐंठे हो।
यह बात हमेशा ध्यान रहे-
तुमपर पहला हक़ हिन्द का है।
चिढते हो हिन्द की हालत से?
जिस दिन यह हालत चुभने लगे,
उस दिन सपूत हो जाओगे,
अजनबी शहर को लात मार
तुम अपने घर को आओगे।
माना … कीचड़ है आँगन में,
पर.. साफ तुम्हीं को करना है,
रखनी है नींव एक रस्ते की,
जिनपर औरों को चलना है।
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“उत्तिष्ठ भारत”!
उठ जाओ,
तुम जग जाओ,
तुम आगे बढो,
तुम वीर हो,
सक्षम हो इसमें,
हो हिन्द के तुम हीं तो संबल….
वीरों वारे चल,
तेरे सारे पल…..
-विश्व दीपक
Saturday, July 24, 2010
फाउंटेन पेन
आँखों के सिरहाने
अरमानों की चिट्ठी..
और
तकिये पर
तिल-तिल रिसती यादें
नमक पिघला
और निगल गया
चिट्ठी का एक-चौथाई हिस्सा..
काश!
अपना रिश्ता "डॉट-पेन" होता..
"फाउंटेन-पेन" की स्याही
न तो "फाउंटेन-पेन" में हीं संभलती है
और न हीं
कागज़ पर...
-विश्व दीपक
Saturday, July 10, 2010
ओवर रेटेड
तुम्हारा मिलना मौत की तरह चुपचाप होगा...
हाँ, ये यकीन है कि
मौत मिलेगी
और तुम?
शायद हीं....
या नहीं
इसलिए
फिक्र मौत की नहीं
तुम्हारी होनी चाहिए...
मौत तो "ओवर रेटेड" है..
-विश्व दीपक
Saturday, May 22, 2010
मोसे मान करे है मन मोरा..
मोसे मान करे है मन मोरा!!
दिन-संझा गुजरे फिर जब हीं
कजरारी रैन फ़फ़क जाए,
तोसे लजा-लजा के चंदा तब
अंबर पे उचक-उचक जाए,
देह बचा-बचा बिजली कड़के
तू तके जो आग धधक जाए,
भय खाए कोई, शरमाए कोई
कोई सामने आके छक जाए,
ऐसे में निगोड़ी प्रीत तभी
मोहे देके तोरी ललक जाए..
अब का करिए जब तोपे हीं
अंखियन की आस अटक जाए
अब का करिए जब मन मोरा
तोहे निरख-निरख के थक जाए..
मैं तरह-तरह के करूँ जतन
ताकि तोरा जियरा धड़क जाए,
न्योछार करूँ मैं लाख जनम
तबहुँ न तोरी झिझक जाए.....
हाय! अब और करूँ भी क्या?
अंसुवन के संग धरूँ भी क्या?
निर्मोही तू! तोहे का फिकर
मैं मन मारूँ या मरूँ भी क्या?
एक बात है मन में कचोट रही,
कि तोरे हीं मन में थी खोट रही,
फिर मैं काहे मर जाऊँ भला,
जब गलती तोरे माथे लोट रही..
सो मन के मोम जलाए दियो
मैंने इशक के होम जलाए दियो,
नैनन में बसी तोरी मूरत के
मैंने एक-एक रोम जलाए दियो..
अब ये क्या! कैसा नया किस्सा,
मोरा मन माँगे मोसे हिस्सा,
मुआ.. अब भी तोरा ध्यान करे,
मोरा मन...... मोसे हीं मान करे!!
मोरा मन...... मोसे हीं मान करे!!
मोसे मान करे है मन मोरा,
तोहे मानत है, मोसे बिफरत है,
हाय! बावरा है.... थोड़ा-थोड़ा!!
-विश्व दीपक
Tuesday, May 18, 2010
तेरे भरोसे
मुझे कहाँ जीने का हुनर है!
तेरे भरोसे मेरा बसर है।
तू हीं बता दे संभालूँ कैसे,
तुझी पे अटकी मेरी नज़र है।
तेरे अलावे भी एक जहां है,
जिसे पता हो, कहे किधर है?
तुझे न देखूँ तो कुछ करूँ भी,
तुझे न देखूँ.. यही दुभर है।
मुझे अगर है गुमां तो ये भी,
तेरी अदाओं का हीं असर है।
तू हीं वज़ह है दीवानेपन की,
बुरा तो ये कि तुझे खबर है।
इसे हक़ीक़त कहूँ या धोखा,
मेरे लबों पर तेरी मुहर है।
कोई गनीमत थी जो कि आखिर
तेरे हवाले हीं मेरा सर है।
मुझे गंवा के ना रह सकोगी,
मेरे बिना तो सफर सिफर है।
मुझे न ’तन्हा’ समझना क्योंकि
चाहे न चाहे तू हमसफर है।
-विश्व दीपक
Tuesday, April 20, 2010
तो क्या करिए..
इफ़रात में गर इनकार मिले,
तो क्या करिए जब प्यार मिले.......
जब नगद की भद ना बची रहे,
मोहलत की हद ना बची रहे,
जुर्रत की ज़द ना बची रहे,
ठीक तभी
हाँ ठीक तभी
संगदिल साहूकारों के
हीं साथ खड़े होशियारों से
बिना किसी मियाद के हीं
उधार मिले
तो क्या करिए....
इज़हार की शक्ल से अंजाने
किसी आशिक़ को
औनी-पौनी हीं सही
मगर
"हामी" की हूर का किसी डगर
दीदार मिले
तो क्या करिए...
जिसे
इफ़रात में बस इनकार मिले,
इंतज़ार मिले...इंतज़ार मिले,
वो जी उट्ठे या मर जाए
जो नज़र कभी इक बार मिले...
तो क्या करिए जब प्यार मिले?
-विश्व दीपक
Monday, April 19, 2010
हुनर
मुझे बस ये हुनर दे दे,
मेरे कांधों पे सर दे दे।
निभा लूँगा मैं तारों से,
मुझे बस तू सिफर दे दे।
बुझी जाती है आवाज़ें,
निगाहों में शरर दे दे।
भिड़ूँ कैसे बिसातों से,
दलीलों के भंवर दे दे।
यूँ हीं तन्हा गुजर कर लूँ,
मुझे जो तू जिगर दे दे।
-विश्व दीपक
Friday, April 09, 2010
क्या खूब है ये दूब भी...
क्या खूब है ये दूब भी....
शबनम जो होठों पे ढले
तो हल्की तबस्सुम खिले,
फिर लोक-लाज भूल ये,
रेशम की चादर ओढ ले..
तलवार-सी यह दूब तब
बिछ जाए है पैरों तले...
एक बावला बेहोश-सा
जब इसके सीने को दले,
सह जाए ये सब दर्द हीं,
क्या जाने इसको क्या मिले,
फिर बावली यह दूब तब
खुद की हीं खुशियाँ तोड़ ले
और बेरहम कातिल की दो
आँखों को रौशन कर चले..
अपने जहां को राख कर
ज़ख्मों को रखके ताख पर
अपनों के वास्ते ये जब
हर सुबह मिट्टी में गले,
उस वक्त इसकी अहमियत
लगती "मेरे महबूब"-सी..
क्या खूब है ये दूब-भी...
इस रचना से मैंने "उपमा" को "उपमेय" और "उपमेय" को "उपमा" बनाने की कोशिश की है... यह पता करना आपकी जिम्मेवारी है कि "दूब" और "महबूब" में "उपमा" कौन है और "उपमेय" कौन? :)
-विश्व दीपक
कि ये हसरत तो हल्की है..
बड़ी तीखी ये तल्खी है,
तेरी नज़रों से छलकी है....
ये मुझसे रंज है तेरा ,
या ये चाहत की झलकी है?
मैं इनमें जज्ब हो जाऊँ,
कि ये हसरत तो हल्की है !!!
जां देकर लूँ हँसी तेरी,
या ये कीमत भी कल की है?
लुटा ना होश गैरों पे,
कि ये दौलत तो पल की है...
बड़ी तीखी ये तल्खी है,
तेरी नज़रों से छलकी है....
-विश्व दीपक
Sunday, April 04, 2010
उड़न छू..
मुखड़ा
आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छू..
आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छू..
अंतरा 1
तोले मोले जो तू हर दफ़ा,
हौले हौले छीने हर नफ़ा,
क्या बुरा कि आनाकानी करके
तेरे से बच लूँ..
तोले मोले जो तू हर दफ़ा,
हौले हौले छीने हर नफ़ा,
क्या बुरा कि आनाकानी करके
तेरे से बच लूँ..
छोरी! तू है काँटों जैसी लू.
आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छू..
आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छू
अंतरा 2
झोंके धोखे हीं तू हर जगह,
तोड़े वादे सारे हर तरह,
ये बता कि आवाज़ाही तेरी
कैसे मैं रोकूँ..
झोंके धोखे हीं तू हर जगह,
तोड़े वादे सारे हर तरह,
ये बता कि आवाज़ाही तेरी
कैसे मैं रोकूँ..
छोरी! मैं ना जलना हो के धूँ..
आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छू..
आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छू
-विश्व दीपक
Saturday, April 03, 2010
या मेरे परवरदिगार
मुखड़ा
रूखी-सूखी भूख ओढकर अजब बनाया भेष,
आसमान के तारे चुगना, दस्तूर-ए-दरवेश।
अंतरा 1
बिखरे दयार में,
इस रोजगार में,
परवरदिगार , या मेरे परवरदिगार आ,
घनी रात छा गई है, रस्ता ज़रा दिखा..
खुद को तो कर बयाँ,
खुदा! मौला! अल्लाह!
खुद को तो कर बयाँ,
तेरा नूर हो अयाँ..
सुन ले इस दर-बदर दरवेश की सदा,
परवरदिगार, या मेरे परवरदिगार आ।
अंतरा 2
सज़दे किया करूँ,
तोहमत लिया करूँ,
बेखौफ, बेसबब, दर तेरे ऎ खुदा,
घनी रात छा गई है, रस्ता ज़रा दिखा..
रहबर , ओ रहनुमा,
खुदा! मौला! अल्लाह!
रहबर, ओ रहनुमा,
तुझपर हीं है गुमाँ..
सुन ले इस दर-बदर दरवेश की सदा,
परवरदिगार, या मेरे परवरदिगार आ।
-विश्व दीपक
खुदाया
मुखड़ा
वादो की बगिया को कैसे भरूँ,
सपनों की नदिया में कब तक बहूँ,
वादो की बगिया को कैसे भरूँ,
सपनों की नदिया में कब तक बहूँ।
मेरा साहिल वही है,
वो ग़ाफ़िल नहीं है,
मेरा साहिल वही है,
वो गाफ़िल नहीं है।
दिलासा ये हासिल मैं कैसे करूँ
खुदाया.........
अंतरा 1
इशारा कोई तो नज़र से हो,
नज़ारा कोई तो उधर से हो,
इशारा कोई तो नज़र से हो,
नज़ारा कोई तो उधर से हो।
चाहत दम-ब-दम,
संग-संग उस-सा हम-कदम,
दिलासा ये हासिल मैं कैसे करूँ,
खुदाया.........
अंतरा 2
सवेरा कभी तो अलग-सा हो,
बसेरा कभी तो फ़लक-सा हो,
सवेरा कभी तो अलग-सा हो,
बसेरा कभी तो फ़लक-सा हो।
मन्नत दम-ब-दम,
संग-संग उस-सा हम-सुखन,
दिलासा ये हासिल मैं कैसे करूँ,
खुदाया.........
-विश्व दीपक
ये सारी सुबहें
मुखड़ा
ये सारी सुबहें , शामें ,रातें,
हैं शायद तेरी मेरी बातें,
जो हल्के से मचल के कहकशों में
पुल बनाएँ।
ये तेरे शिकवे, वादे, नाले
हैं बेशक मय के महके प्याले,
जो छलके तो संभल के ख्वाहिशों के
गुल खिलाएँ।
अंतरा 1
मैं हूँ वो तू है,
चाहत हर सू है,
फिर क्या ज़िक्र हो,
यह तो ज़ाहिर है,
रब भी माहिर है,
फिर क्यों फ़िक्र हो।
मैं हूँ वो तू है,
चाहत हर सू है,
फिर क्या ज़िक्र हो,
यह तो ज़ाहिर है,
रब भी माहिर है,
फिर क्यों फ़िक्र हो।
ये तेरे शिकवे, वादे, नाले
हैं बेशक मय के महके प्याले,
जो छलके तो संभल के ख्वाहिशों के
गुल खिलाएँ।
अंतरा 2
गुमसुम महफ़िल को,
प्यासे साहिल को,
दिलकश अब्र तू,
तू जो हासिल है,
रब भी कामिल है,
सब का सब्र तू।
गुमसुम महफ़िल को,
प्यासे साहिल को,
दिलकश अब्र तू,
तू जो हासिल है,
रब भी कामिल है,
सब का सब्र तू।
ये तेरे शिकवे, वादे, नाले
हैं बेशक मय के महके प्याले,
जो छलके तो संभल के ख्वाहिशों के
गुल खिलाएँ।
-विश्व दीपक
Wednesday, March 31, 2010
तुम हो क्या..
मुखड़ा
साँसों की दूरियाँ
मुझको तो भाए ना।
आँखों की चोरियाँ
अब सही जाए ना।
साँसों की दूरियाँ
मुझको तो भाए ना।
आँखों की चोरियाँ
अब सही जाए ना।
बेताबियाँ
क्यूँकर यहाँ हैं,
खामोशियाँ
क्यूँ हैं यहाँ,
गुस्ताखियाँ
तुम कुछ करो ना,
माने ना
दिल ये मेरा।
तुम हो क्या,
रब की दुआ,
गुमसुम हो,
क्यों हो खफ़ा।
तुम हो क्या,
रब की दुआ,
गुमसुम हो,
क्यों हो खफ़ा..
बेवज़ह................
अंतरा 1
मुझको बता, मेरी खता, यूँ ना सता, जाँ,
मुझमें खोके, चाहत के पल, जी ले आ, ज़रा।
मुझको बता, मेरी खता, यूँ ना सता, जाँ,
मुझमें खोके, चाहत के पल, जी ले आ, ज़रा।
अंतरा 2
हो ना कैसे, ख्वाहिश तेरी ,चाहूँ तुझे, जो,
तेरे बिन तो, जीना यूँ है, जी हीं ज्यों न, हो।
हो ना कैसे, ख्वाहिश तेरी ,चाहूँ तुझे, जो,
तेरे बिन तो, जीना यूँ है, जी हीं ज्यों न, हो।
-विश्व दीपक
Sunday, March 28, 2010
पागलपन हीं मेरा फ़न है...
पागलपन हीं मेरा फ़न है!
"खुसरो" का मैं बूझ-पहेली,
अंतर यह कि उत्तर जिसका,
एक नहीं..
बदले हरदम है...
बानगी देखो
कि मिट्टी-सा
सौंधा कभी
कभी मटमैला,
कभी फूल तो कभी
हज़ारों काँटों से
रंजित यह वन है...
यह जो मेरा अगम-अगोचर-
अलसाया-सा अद्भुत मन है.......
मुझे संवारे, मुझे निखारे
मुझको मेरा सच बतला दे
ऐसा कहाँ कोई दर्पण है..
और क्या कहूँ,
यही बहुत है..
मुझे जानने वाले कहते
कभी राम
तो कभी विभीषण
और कभी मुझमें रावण है..
पागलपन हीं मेरा फ़न है....
-विश्व दीपक
Tuesday, March 23, 2010
संज्ञान-दिवस
भूल सको तो भूल जाओ कि हिन्द कभी परतंत्र भी था,
शीश उठाके जीने हेतु मृत्यु-सा कोई मंत्र भी था,
काट रहे थे तुमको जब वो और मौन था शेष जगत,
तब आए थे आगे बस हीं राजगुरू, सुखदेव, भगत.. ............
उन वीरों ने जान लुटाकर सौंपा था जो स्वर्ण-कलश,
आज उसी की सुधि लेने को आया है संज्ञान-दिवस.....
याद है कुछ या भूल गए उन वीरों का बलिदान-दिवस.....
आज है वह बलिदान-दिवस....... आज हीं है बलिदान-दिवस....
-विश्व दीपक
Thursday, February 25, 2010
मन बता
मुखड़ा
male:
मन जाने ये अनजाने-से अफ़साने जो हैं,
समझाने को बहलाने को बहकाने को हैं..
मन तो है मुस्तफ़ा,
मन का ये फ़लसफ़ा,
मन को है बस पता..
मन होके मनचला,
करने को है चला,
उसपे ये सब फिदा..
female:
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
अंतरा
male:
जाने कब से चाहा लब से कह दूँ,
पूरे दम से जाके थम से कह दूँ,
आके अब कहीं,
माने मन नहीं,
मन का शुक्रिया....
female:
ओठों को मैं सी लूँ या कि खोलूँ, मन बता
आँखों से हीं सारी बातें बोलूँ, मन बता
आगे जाके साँसें उसकी पी लूँ, मन बता
बैठे बैठे मर लूँ या कि जी लूँ, मन बता..
बस कह दे तू तेरा फ़ैसला,
बस भर दे तू जो है फ़ासला..
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
-विश्व दीपक
Monday, February 22, 2010
ज़ीनत
मुखड़ा :
होठों को खोलूँ न खोलूँ, बता,
आँखों से बोलूँ न बोलूँ, बता,
साँसों की भीनी-सी खुशबू को मैं,
बातों में घोलूँ न घोलूँ, बता..
तू बता मैं किस अदा से
ज़ीनत का दूँ हर शै को पता..
तू बता जो इस फ़िज़ा को
ज़ीनत सौंपूँ तो होगी ख़ता?
होठों को खोलूँ न खोलूँ, बता,
आँखों से बोलूँ न बोलूँ, बता,
साँसों की भीनी-सी खुशबू को मैं,
बातों में घोलूँ न घोलूँ, बता..
अंतरा 1:
है ये मेरे तक हीं,
ज़ीनत है ये किसकी
आखिर तेरा है जादू छुपा...
मैं तो मानूँ मन की
ज़ीनत जो है चमकी
आखिर तेरी हीं है ये ज़िया...
तू जाने कि तूने हीं दी है मुझे,
ये ज़ीनत कि जिससे मेरा जी सजे,
तो क्यों ना मेरा जी गुमां से भरे?
तो क्यों ना मैं जी लूँ उड़ा के मज़े?
हाँ तो मैं हँस लूँ न हँस लूँ, बता,
फूलों का मस्स लूँ न मस्स लूँ, बता,
धीरे से छूकर कलियाँ सभी,
बागों से जश लूँ न जश लूँ बता..
अंतरा 2:
यूँ तो फूलों पर भी,
ज़ीनत की लौ सुलगी,
लेकिन जी की सी ज़ीनत कहाँ?
जैसे हीं रूत बदली,
रूठी ज़ीनत उनकी,
लेकिन जी की है ज़ीनत जवाँ..
जो फूलों से बढके मिली है मुझे,
ये ज़ीनत जो आँखों में जी में दिखे,
तो क्यों ना मैं बाँटूँ जुबाँ से इसे?
तो क्यों ना इसी की हवा हीं चले?
हाँ तो मैं हँस लूँ न हँस लूँ, बता,
फूलों का मस्स लूँ न मस्स लूँ, बता,
धीरे से छूकर कलियाँ सभी,
बागों से जश लूँ न जश लूँ बता..
तू बता मैं गुलसितां से
ज़ीनत माँगूँ या कर दूँ अता....
-विश्व दीपक
Saturday, February 20, 2010
रिश्तों का पनीर
कल तक जिसे सँवारने की फ़िक्र थी मुझे,
उधड़ी वो इस कदर कि मुझे रास आ गई।
शायद इसी को कहते हैं, ऐ यार, ज़िंदगी,
जब-जब किया जुदा, ये मेरे पास आ गई।
जाने ये कौन आए हैं मुझको तराशने,
कातिल की आँखों में है चमक खास आ गई।
बंजर था दिल जभी तो बेकार था अगर,
बदतर है अब जो जंगली ये घास आ गई।
मुद्दत से तूने ’तन्हा’ यूँ सहेजा था जिसे,
रिश्तों के उस पनीर में अब बास आ गई।
-विश्व दीपक
Thursday, February 18, 2010
चाहत की चरस
यही है अहद तुझे तकके मैं आहें न भरूँगा,
मालूम है कि मुझसे तो निभती नहीं कसमें।
एक शौक है दिल ज़ार-ज़ार होने पर हँसना,
इसी शौक से तो आज भी है ज़िंदगी नस में।
इस बार भी किसी माहरू ने ओढा है चेहरा,
बस देखिए उल्काएँ कब जलती हैं हवस में।
तुझे जानता ऐन वक्त तो बनता न दीवाना,
ज़ाहिर है बेवफ़ाई प’ अब दिल नहीं बस में।
लुट जाएगा ’तन्हा’ अगर सुधरेगा नहीं तो,
माना कि नशा है बड़ा चाहत की चरस में।
-विश्व दीपक
Friday, February 12, 2010
इन लबों के इर्द-गिर्द
मैं तुम्हारे इन लबों के इर्द-गिर्द
एक तिल भर आशियाना चाहता हूँ..
देखने को सुर्खियाँ गीले लबों की
उम्र भर का ये ठिकाना चाहता हूँ...
जब सजे इनपे तबस्सुम की लड़ी
गिरते मनकों को उठाना चाहता हूँ..
ना लगे इनकी शुआओं को नज़र,
पास में काजल चढाना चाहता हूँ...
लफ़्ज़ बरसें जो लरजते बादलों से
छानकर गज़लें बनाना चाहता हूँ...
काट ले तू झेंपकर जब भी इन्हें,
थोड़ा-सा गुस्सा चबाना चाहता हूँ...
या कि खींचे इनको तू अंगुलियों से,
मैं तभी नखरे दिखाना चाहता हूँ...
सच कहूँ तो इन लबों के हुस्न में
चार चाँद मैं लगाना चाहता हूँ...
-विश्व दीपक
Wednesday, February 10, 2010
जोगिया
मुखड़ा
ओ री पगली,
दीवानी बातों से ठगती है आते-जाते तू,
थोड़ी पगली,
नूरानी रातों में जगती है गाते-गाते तू।
बेशक जिसने कहा है,
बेशक शायरनुमा है,
बेशक मुझपे फिदा है..... बेशक हीं।
बेशक कुछ तो हुआ है,
बेशक उसको पता है,
बेशक रब की दुआ है... बेशक हीं।
ओ री पगली,
दीवानी बातों से ठगती है आते-जाते तू,
थोड़ी पगली,
नूरानी रातों में जगती है गाते-गाते तू।
अंतरा 1
वो जो है, रवाँ-रवाँ-सा,
दिखता है, जवाँ जवाँ-सा,
दिलकश है, समां- समां-सा,
आशिक है मेरा...
चाहत से भरा-भरा-सा,
आँखों में धरा-धरा-सा,
नटखट है, ज़रा-ज़रा-सा,
नाजुक है बड़ा...
बोले तो गज़ल-गज़ल बरसे,
होठों से उतर,
छूने को अधर-अधर तरसे,
होके बे-खबर...
बेशक ये एक नशा है,
बेशक मैने चखा है,
बेशक मुझपे चढा है... बेशक हीं।
बेशक जो भी हुआ है,
बेशक मेरी रज़ा है,
बेशक इसमें मज़ा है... बेशक हीं।
अंतरा 2
दिल घड़ी-घड़ी उसी पे आए,
मन मचल-मचल मति लुटाए,
जो सजन कभी नज़र चुभाए,
तो प्रेम-फ़ाग बलखाए.....
दम कदम-कदम दबा हीं जाए,
तन तड़प-तड़प टीस उठाए,
रूत बहक-बहक मुझे सताए,
जो विरह-आग सुलगाए...
बनके बदली,
गश खाती साँसों पे गिर जाए साँसों वाली लू।
अंतरा 3
जोगिया का ठिकाना मैं जो बनी,
मस्तियाँ आशिकाना होने लगीं।
जोगिया का ठिकाना मैं जो बनी,
मस्तियाँ आशिकाना होने लगीं.. सारी हीं।
बेशक वो जो खड़ा है,
बेशक जां से जुड़ा है,
बेशक मेरा पिया है.. बेशक हीं
बेशक यह जो सदा है,
बेशक ग़म की दवा है,
बेशक खुद में खुदा है... बेशक हीं
-विश्व दीपक
जांनशीं
मुखड़ा
ना थी दिन में रोशनी,
ना थी शब हीं शबनमी,
आकर तूने हमनशी,
मेरी बदल दी ज़िंदगी।
तू है कि जैसे धूप है,
तू है कि मय का रूप है,
तु है कि बहती एक नदी,
तू है कि पल में एक सदी।
सुलझी है अब आस भी,
बहकी है अब प्यास भी,
सीने में है तू बसी,
लब पे बस तेरी हँसी।
अंतरा 1
तू है मेरी बेखुदी, तू है मेरा होश भी,
तू है मेरा जहां।
तुझसे है आशिक़ी , तुझमें है सादगी,
तू है मेरा खुदा॥
मुझसे मिली तू बनके दुआ , ओ बावरी,
मुझमें बसी तू बरसों पुरानी कोई याद-सी।
तू है तो दिल को है सुकूं,
तू है तो मुझमें है जुनूं,
तू है तभी ये बोल हैं,
तू है तो हम अनमोल हैं।
अब गुम है हर बेबसी,
मंजर भी है दिलकशी,
तू है तो है क्या कमी,
जां है, जां में, जांनशीं।
अंतरा 2
पन्नों में डाल के, रख लूँ संभाल के,
तू है मीठी जबां।
सौंधी-सी रैन में, पिघले है नैन में,
तू है कच्ची हया ।।
पहली सबा तू, अल्हड़ हवा तू आखिरी,
पगली घटा ने, छेड़ी हो जैसे कोई बांसुरी।
तू है कि खुशबू की छुअन,
तू है कि फूलों में शिकन,
तू है कि रेशम की लड़ी,
तू है कि अंबर अंबरी।
पाकर तुझसे मयकशी,
धुन में है अब चाँदनी,
सब हैं यहाँ तेरे दम से हीं,
तू हीं , तू है, हर कहीं।
-विश्व दीपक
Monday, February 08, 2010
मैं अब भी
मैं अब भी उसे बुरा नहीं कहता...
वो जो
आँखों के सामने रहके तड़पाती है,
बारहा आँखों के पीछे भी उतर आती है
ख्वाबों के झरोखे से
और उड़ा जाती है नींद.......
मैं नींद में भी उससे कुछ कह नहीं पाता...
बस सुनता रहता हूँ उसकी जबां..
जो
चुटखी भर हिन्दी,
नाखून भर पंजाबी
और हथेली भर अंग्रेजी
का पुट लिए रहती है....
क्या कुछ कह जाती है वो...
मुझे उसकी बातें सुनाई नहीं पड़ती,
हाँ
इतना होता है कि
उसके लबों की जुंबिश,
लबों की लरजिश
जम जाती है सीने में .....
और मेरी धड़कन
मेरा साथ छोड़ने लगती है...
ठीक वैसे हीं
जैसे
उसे देखते वक्त होता है........
मैं तब भी कोई शिकायत नहीं करता..
मैं तब भी उसे बुरा नहीं कहता..
-विश्व दीपक
Monday, February 01, 2010
उठाईये जब भी चिलमन को
संभालिए दिल की धड़कन को,
उठाईये जब भी चिलमन को...
तराशिए अपनी बातों को,
संवारिये पगली उलझन को....
बताईये अपनी आँखों से,
दबाईये यूँ ना तड़पन को....
मनाईये रूठी साँसों को,
भुलाईये सारी अनबन को....
निभाईये वादे चाहत के,
लगाईये मन से तन-मन को...
पुकारिए खुल के ख़ाबों को,
बुहारिये बिखरी कतरन को...
सजाईये खुद को कुरबत से,
हटाईये ग़म की उतरन को...
-विश्व दीपक
Tuesday, January 26, 2010
इश्क़ आग है..
इश्क़ आग है,
जहर-बुझे नज़रों से घायल
आशिक के साँसों का झाग है..
बड़ी बेरहम इसकी लत है,
परचम-परचम हर कोने में,
मौत की मानो, जीत नियत है..
इस शरीर-से इश्क़ की जबसे
दिल-दरवेश से हुई सोहबत है,
भूल गया दिल खुदा-खुदाई,
धड़कन में भी बस गफ़लत है,
माँगता था जो दुआ जान की
अब दूजे से हीं निस्बत है,
दर-दर उसका नाम पुकारे,
हर नुक्कड़ की यह तोहमत है,
खून भरे यह रगों में जब भी
ख्वाब धरे, बोले बरकत है,
जान पड़ी आफत में अब तो
हुई बेहया हर हरकत है,
छोड़ न दे जां हाड़-माँस को
चार-पाँच पल की मोहलत है,
बड़ी बेरहम इसकी लत है....
भाँग-भरे फ़ागुन में पागल
बेवा के होठों का फ़ाग है,
इश्क़ आग है!!
-विश्व दीपक
Friday, January 22, 2010
चाक जिगर (बेरहम वक्त)
male:
बेरहम वक्त जो टुकड़ों में तेरी याद की चिट्ठी देता है,
यूँ लगता है कातिल मेरा मेरी लाश पे मिट्टी देता है।
मैं चिट्ठी ना पढ पाता हूँ,
बस हर्फ़ों में गड़ जाता हूँ,
लफ़्ज़ों के सूखे शाख से मैं
तेरा नाम तोड़कर लाता हूँ,
तेरे नाम से फिर मैं जानेमन तेरा चेहरा बुन लेता हूँ,
रूख्सार पे फैले अश्कों से मैं चाक जिगर सुन लेता हूँ।
female:
बेरहम रात जो कुछ पल को तुझे मेरे ख्वाब में लाती है,
यूँ लगता है मेरी मौत यहाँ मुझको जीना सिखलाती है।
मैं जीकर भी कहाँ जिंदा हूँ,
इन साँसों पे शर्मिंदा हूँ,
फुरकत की कालकोठरी में
मैं बरसों से बाशिंदा हूँ।
मैं तो हिज्र की चारदीवारी पे तेरा चेहरा जड़ लेती हूँ,
रूख्सार पे फैले अश्कों से मैं माँग मेरा भर लेती हूँ।
male:
मैं दर्द का बस आदमकद हूँ,
ज़ख्मों से सना हुआ ज़द हूँ,
बदकिस्मत हूँ इस हद तक कि
हर बरबादी की मैं हद हूँ,
अंदर तक छिला हूँ ऐसे कि
जैसे मैं गमों का बरगद हूँ,
मैं दर्द का बस आदमकद हूँ....
female:
मैं तो जलती हूँ सहराओं में,
गम की इन गर्म हवाओं में,
ना बूँद वस्ल की दिखी मुझे
अंबर पे बिछी घटाओं में,
ना सब्र हीं बनके मिला मुझे,
क्यों एक भी लाख खुदाओं में?
मैं तो जलती हूँ सहराओं में.....
male:
बेरहम वक्त जो टुकड़ों में तेरी याद की चिट्ठी देता है,
यूँ लगता है कातिल मेरा मेरी लाश पे मिट्टी देता है।
female:
बेरहम रात जो कुछ पल को तुझे मेरे ख्वाब में लाती है,
यूँ लगता है मेरी मौत यहाँ मुझको जीना सिखलाती है।
-विश्व दीपक
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