Sunday, October 17, 2010

साँसों की पैदावार


मन की बुनियाद खत्म जानो,
ख्वाबों की खाद खत्म जानो,
जज्बों के जल कोई लूट गया,
हसरत के हल कोई लूट गया,
हिम्मत के दोनों बैल गए,
कुछ बीज जले, कुछ झेल गए,
जो हौसले थे.. खेतिहर कभी,
मर रहे भूखे.. बेमौत सभी..

हाँ, कभी ये तन उर्वर तो था,
ना सोचा था.. ऊसर होगा,
पर धोखों ने यूँ दगा दिया,
दमखम में दीमक लगा दिया
चट-चट कर हड्डी दरक रही,
फट-फट के माटी फरक रही,
तबियत पर सौ हथियार चढे,
खुन्नस के खर-पतवार बढे..

ऐसे में सूद माँगते हैं
रिश्तों के साहूकार सभी,
क्या करूँ, कहाँ से लाऊँ मैं
साँसों की पैदावार अभी?


-विश्व दीपक

9 comments:

deepak said...

bahut khoob.

SKT said...

कुछ भी ख़त्म कैसे जानें? आप तो बेहद उर्वर हो और इसका प्रमाण है आपकी एक साथ इतनी कवितायेँ ..एक से बढ़ कर एक! कहाँ छुपा कर रखी थी अभी तक दुनिया की नज़रों से? पढ़ कर अभिभूत हुए बिना नहीं रहा जा सकता!!

http://mkhomevideo.blogspot.com said...

happy birth day, to you sir!

Manoj Kumar said...

many-many happy returnes of the day. janmdin mubarak ho.

संगीता पुरी said...

cgबहुत सुंदर रचना .. जन्‍मदिन की बहुत बधाई और शुभकामनाएं !!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..जन्म दिन की ढेर सारी बधाइयाँ।

संजय कुमार चौरसिया said...

बहुत सुंदर रचना .. जन्‍मदिन की बहुत बधाई और शुभकामनाएं !!

amar jeet said...

जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई हो !

amar jeet said...

बदलते परिवेश मैं,
निरंतर ख़त्म होते नैतिक मूल्यों के बीच,
कोई तो है जो हमें जीवित रखे है,
जूझने के लिए है,
उसी प्रकाश पुंज की जीवन ज्योति,
हमारे ह्रदय मे सदैव दैदीप्यमान होती रहे,
यही शुभकामनाये!!
दीप उत्सव की बधाई...................