Friday, April 09, 2010
क्या खूब है ये दूब भी...
क्या खूब है ये दूब भी....
शबनम जो होठों पे ढले
तो हल्की तबस्सुम खिले,
फिर लोक-लाज भूल ये,
रेशम की चादर ओढ ले..
तलवार-सी यह दूब तब
बिछ जाए है पैरों तले...
एक बावला बेहोश-सा
जब इसके सीने को दले,
सह जाए ये सब दर्द हीं,
क्या जाने इसको क्या मिले,
फिर बावली यह दूब तब
खुद की हीं खुशियाँ तोड़ ले
और बेरहम कातिल की दो
आँखों को रौशन कर चले..
अपने जहां को राख कर
ज़ख्मों को रखके ताख पर
अपनों के वास्ते ये जब
हर सुबह मिट्टी में गले,
उस वक्त इसकी अहमियत
लगती "मेरे महबूब"-सी..
क्या खूब है ये दूब-भी...
इस रचना से मैंने "उपमा" को "उपमेय" और "उपमेय" को "उपमा" बनाने की कोशिश की है... यह पता करना आपकी जिम्मेवारी है कि "दूब" और "महबूब" में "उपमा" कौन है और "उपमेय" कौन? :)
-विश्व दीपक
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