Friday, January 22, 2010
चाक जिगर (बेरहम वक्त)
male:
बेरहम वक्त जो टुकड़ों में तेरी याद की चिट्ठी देता है,
यूँ लगता है कातिल मेरा मेरी लाश पे मिट्टी देता है।
मैं चिट्ठी ना पढ पाता हूँ,
बस हर्फ़ों में गड़ जाता हूँ,
लफ़्ज़ों के सूखे शाख से मैं
तेरा नाम तोड़कर लाता हूँ,
तेरे नाम से फिर मैं जानेमन तेरा चेहरा बुन लेता हूँ,
रूख्सार पे फैले अश्कों से मैं चाक जिगर सुन लेता हूँ।
female:
बेरहम रात जो कुछ पल को तुझे मेरे ख्वाब में लाती है,
यूँ लगता है मेरी मौत यहाँ मुझको जीना सिखलाती है।
मैं जीकर भी कहाँ जिंदा हूँ,
इन साँसों पे शर्मिंदा हूँ,
फुरकत की कालकोठरी में
मैं बरसों से बाशिंदा हूँ।
मैं तो हिज्र की चारदीवारी पे तेरा चेहरा जड़ लेती हूँ,
रूख्सार पे फैले अश्कों से मैं माँग मेरा भर लेती हूँ।
male:
मैं दर्द का बस आदमकद हूँ,
ज़ख्मों से सना हुआ ज़द हूँ,
बदकिस्मत हूँ इस हद तक कि
हर बरबादी की मैं हद हूँ,
अंदर तक छिला हूँ ऐसे कि
जैसे मैं गमों का बरगद हूँ,
मैं दर्द का बस आदमकद हूँ....
female:
मैं तो जलती हूँ सहराओं में,
गम की इन गर्म हवाओं में,
ना बूँद वस्ल की दिखी मुझे
अंबर पे बिछी घटाओं में,
ना सब्र हीं बनके मिला मुझे,
क्यों एक भी लाख खुदाओं में?
मैं तो जलती हूँ सहराओं में.....
male:
बेरहम वक्त जो टुकड़ों में तेरी याद की चिट्ठी देता है,
यूँ लगता है कातिल मेरा मेरी लाश पे मिट्टी देता है।
female:
बेरहम रात जो कुछ पल को तुझे मेरे ख्वाब में लाती है,
यूँ लगता है मेरी मौत यहाँ मुझको जीना सिखलाती है।
-विश्व दीपक
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