फाउंटेन पेन
आँखों के सिरहाने
अरमानों की चिट्ठी..
और
तकिये पर
तिल-तिल रिसती यादें
नमक पिघला
और निगल गया
चिट्ठी का एक-चौथाई हिस्सा..
काश!
अपना रिश्ता "डॉट-पेन" होता..
"फाउंटेन-पेन" की स्याही
न तो "फाउंटेन-पेन" में हीं संभलती है
और न हीं
कागज़ पर...
-विश्व दीपक
7 comments:
वाह!! बहुत उम्दा रचना.
बहुत खूब लिखा दीपक जी!... शुरू के पद खासकर पसंद आये!!
chha gaye deepak ji..........bahut khoob
समीर जी,
बहुत-बहुत धन्यवाद!
अंकल जी,
शुक्रिया... शुक्रिया :) इन दिनों ऐसी हीं छोटी रचनाएँ लिख पा रहा हूँ। लंबी कविताएँ लिखने के लिए न विषय मिलता है और न हीं उतना संयम रह पाता है। आगे भी यही कोशिश रहेगी कि आपकी पसंद का लिखता रहूँ।
विनीत भाईईईईईईईईईईईईईईई,
किधर हैं भाई। आपको ढूँढ-ढूँढ कर परेशान हो गया हूँ। आपका फोन नंबर भी तो नहीं है मेरे पास। कैसी चल रही है तैयारी।
जो थोड़ा-बहुत हम छाते रहते हैं, वह सब आपकी हीं दुआ है। कभी फ़ेस-बुक या गूगल टॉक पर आईये. ढेर सारी बातें करेंगे।
-विश्व दीपक
kamaal likha hai VD !!!!
kamaal likha hai VD !
- Kuhoo
Vaah, Bahut kub VD Bhai, aapko dot-pen waale riste ki talash hai...
Par aaj kal yahan likho pheko rishte hin milte hain...bina namak pighle hin achanak sab kuchh khatm ho jata hai..
nice thought..
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