Sunday, December 12, 2010
कोई सीखे तुमसे सिफ़र थाम लेना..
इन भौहों के बल पे क़मर थाम लेना,
कोई सीखे तुमसे सिफ़र थाम लेना..
अज़ल से छिपाकर रखी है क़यामत,
पलक गर उठाओ, नज़र थाम लेना...
निगाहें तुम्हारी, निगाहें हमारी,
कभी मिल गईं तो जिगर थाम लेना....
बड़ी हीं वफ़ा है तुम्हारी अदा में,
जो मुझसे खता हो, असर थाम लेना..
जो लिखने चलें हम मरासिम हमारे,
तो मैं काफ़िया, तुम बहर थाम लेना..
हाँ ज़ाया किये हैं सभी लम्हे मैंने,
जो तुम आ मिलो तो उमर थाम लेना..
जो डँस लें मुझे गेहुँअन ये ग़मों के,
नसों में उतर, तुम ज़हर थाम लेना..
जाने मैं कैसे "तन्हा" था अब तक,
तुम आकर ये मेरा हुनर थाम लेना..
पलक गर उठाओ, नज़र थाम लेना...
-विश्व दीपक
शब्दार्थ:
१) क़मर = चाँद
२) सिफ़र = आकाश
३) अज़ल = सृष्टि की संरचना का दिन
४) मरासिम = रिश्ता
५) गेहुँअन = एक प्रकार का साँप
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12 comments:
बड़ी हीं वफ़ा है तुम्हारी अदा में,
जो मुझसे खता हो, असर थाम लेना..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...बधाई स्वीकार करें...
जो लिखने चलें हम मरासिम हमारे,
मैं काफ़िया तो तुम बहर थाम लेना..
... waah !
vatvriksh ke liye ise bhejiye
महेन्द्र जी एवं रश्मि जी,
प्रोत्साहन के लिए तह-ए-दिल से आभार!
रश्मि जी, वटवृक्ष पर कविता भेजने की प्रक्रिया से कृप्या अवगत करा दें।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
Kya baat hai....Kafi sidhat se likha gaya hai ye ..... Mubarak ho :)
badi pyaari gazal kahi hai deepak ji..
zara dhyaan dein
Matle ke dono misron mein ta'alluk nahi baith raha
Aur aakhir sher mein sani mein behr ki gadbadi hai, ise plz theek karein.
Aur vafa wale sher mein, 'asar thaamne' ka matlab main samajh nahi paai..zara batayein.
:)
दिपाली जी,
बहर वाली बात आपने सही पकड़ी है... सच कहूँ तो मैंने "बहर" की इसी अनभिज्ञता के कारण अंतिम शेर डाला है। अब मुझसे तो "बहर" नहीं संभलती, इसलिए मैंने लिखा है कि मैं "काफ़िया" को देख लूँगा, तुम बस "बहर" थाम लेना। मैंने "बहर" सीखने की बहुत कोशिश की, लेकिन सब निरर्थक, इसलिए "ग़ज़ल" लिखना हीं छोड़ दिया था, फिर सोचा कि अपनी कमजोरी को उजागर करते हुए उसी को अपनी ताकत बना लेता हूँ। :)
मतले की पहली पंक्ति में मैने लिखा है कि तुम अपनी भौहों के बल पर चाँद (बिंदी के लिए उपमा) को थाम लेती हो , जो इस चीज का उदाहरण है कि तुम कैसे "आसमान" (खुदा , चाँद, तारे, सूरज, पूरी क़ायनात) को थामती हो।
(आपके त’अल्लुक नहीं बैठने वाली बात का शायद यही मतलब था... अगर नहीं तो क्या आप इस शेर के शिल्प की बात कर रही हैं? )
अब जब तुम्हारी अदा में इतनी वफ़ा है, इतनी सच्चाई है तो अगर कोई उसके साथ गलत करने की कोशिश करेगा, तो उसे उस "वफ़ा" के कोप का भी तो शिकार बनना पड़ेगा। पुराने जमाने में कहते थे ना कि "सती का शाप झूठा नहीं होता", तो यही मैंने लिखा है कि अगर मुझसे खता हो तो तुम अपने "गुस्से" का असर थाम लेना।
शायद अब थोड़ा स्पष्ट हो गया हो.. :)
चलिए, इसी तरह आते रहिएगा..
धन्यवाद,
विश्व दीपक
shukriya deepak ji.. Main aapki kuch baaton se satisfy hun..
Jaise behr ki baat kahi, to perfect 99% log nahi hain.. Main unhi mein se hun
Pr aapke baki ke sher kafi had tak flow pr khare hain zara maqte mein saani mein hi gadbad hai..
Sifar wale sher pr maine yeh nhi samjha..
Aap sifar ko shayad chand keh rahe hain, main sifar ko shoonya (dhyaan mudra se jod rahi thi, ishwar) se jod rahi thi
So aapki baat agar maane to sher khaas oolah hote hue bhi aam sani ke saath aam ho jata hai,
Meri baat par gaur kijiye, kyunki main aapki lekhan kala ko tah e dil se pasand krti hun aur aapka likha kabhi miss nhi karti isi liye khule dil se keh paai hun.. Kuch bura lage to muaaf kijiyega.
अरे... बुरा क्यों मानूँगा।
मैं तो ऐसी टिप्पणियाँ पसंद करता हूँ जहाँ लोग इतना खुलकर खामियाँ बताते हैं...और दिल खोलकर सलाह देते हैं। आपने वही किया है, इसलिए बुरा मानने का कोई प्रश्न हीं नहीं उठता।
मैंने सिफ़र का मतलब शून्य (आसमान, खुदा.. ) हीं रखा है.. चाँद तो क़मर का मतलब होता है। मैंने चाँद का प्रयोग "बिंदी" का उपमा देने के लिए किया है.. ज़रा कविता के ऊपर लगे चित्र को तो देखिए :) किसी की आँखें हैं और आँखों के बीच एक बिंदी है... :)
हो सकता है कि मतले के दोनों मिसरे एक साथ मिलकर वह अर्थ न दे पाते हों, जिसकी मैंने कोशिश की है.. लेकिन अलग-अलग भी दोनों मिसरे अपना विशेष अर्थ रखते हैं, ऐसा मेरा मानना है।
चलिए, हम और आप मिलकर मक़ते में सुधार करते हैं। पहले आप बताईये कि इसमें कौन-सा शब्द (या अक्षर) सबसे ज्यादा दोषी है.. वह पता चल जाए तो शायद मैं भी कुछ कर पाऊँ।
आपकी टिप्पणी का इंतज़ार रहेगा।
-विश्व दीपक
hmmm..
Sani ko yun kahiye..
To main kafiya tum behr thaam lena..
So sher kuch yun hua
Jo likhne lagein hum marasim hamare
To main kaafiya tum behr thaam lena.. :)
Sorry.. Shayad maine bhi yahi galati ki hai, jab tak aakhiri sher mein aapka takhallus na ho use maqta nahi kahenge..
दिपाली जी,
"तो मैं काफ़िया, तुम बहर थाम लेना." अब मुझे भी ज्यादा सही लग रहा है। इसलिए आपके कहे अनुसार बदलाव किए देता हूँ।
मक़ता वाली बात तो मेरे भी ध्यान में नहीं थी। बिना "तखल्लुस" के मक़ता तो हो हीं नहीं सकता। लगता है मुझे एक और शेर (मक़ता) कहना हीं होग। कोशिश करता हूँ।
-विश्व दीपक
तनहा जी कविता तो भावों की चित्रकारी है और आप के पास हजारों रंग हैं। बहुत अच्छी गज़ल।
धन्यवाद राजीव जी!
आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मायने रखती है।
-विश्व दीपक
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