Saturday, September 25, 2010

जी का जंजाल


ज़िंदगी जी का जंजाल हो चली है,
मौत भी ससुरी मुहाल हो चली है..

न राशन रसद में,
न ईंधन रसद में,
न महफ़िल हीं जद में,
न मंज़िल हीं जद में,

ना पग ना पगडंडी,
सौ ठग हैं सौ मंडी,
दिल ठंढा, जां ठंढी,
शक्ति की सौं... चंडी
भी अब तो बेबस बेहाल हो चली है..
ज़िंदगी जी का जंजाल हो चली है..

न चेहरा हीं सच्चा,
न सीसा हीं सच्चा,
या किस्मत दे गच्चा,
या हिम्मत दे गच्चा..

जो थम लूँ तो अनबन,
जो बढ लूँ तो अनशन,
जो दम लूँ तो मंथन,
गंवा के सब अनधन
ये धरती तो अब पाताल हो चली है...
ज़िंदगी जी का जंजाल हो चली है..


-विश्व दीपक

4 comments:

Shanno Aggarwal said...

वाह ! फिर से बह निकला है कविताओं का प्रवाह.
बधाई !अच्छी कविता है..हास्य और मार्मिकता है.

SKT said...

क्या करें जी, जी भी जाल में ही जीता है! जी को जाल ही भाता है, उसी में इसे मज़ा आता है!!

विश्व दीपक said...

शन्नो जी और अंकल जी,
हौसला-आफ़ज़ाई करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद..

Shanno Aggarwal said...

विश्वा जी, आपकी रचनाओं में इस्तेमाल किये गये शब्दों में नवीनता है और भावों में दिखावा नहीं..उन भावों को अपने शब्दों में जिस स्वाभाविकता से गूंथकर रचना को प्रस्तुत करते हैं वह अपने में एक ख़ूबसूरती लिये होती है...इसी तरह लिखते रहें..धन्यबाद..और मेरी शुभ कामनाये !