Wednesday, February 10, 2010

जांनशीं


मुखड़ा

ना थी दिन में रोशनी,
ना थी शब हीं शबनमी,
आकर तूने हमनशी,
मेरी बदल दी ज़िंदगी।

तू है कि जैसे धूप है,
तू है कि मय का रूप है,
तु है कि बहती एक नदी,
तू है कि पल में एक सदी।

सुलझी है अब आस भी,
बहकी है अब प्यास भी,
सीने में है तू बसी,
लब पे बस तेरी हँसी।

अंतरा 1

तू है मेरी बेखुदी, तू है मेरा होश भी,
तू है मेरा जहां।
तुझसे है आशिक़ी , तुझमें है सादगी,
तू है मेरा खुदा॥

मुझसे मिली तू बनके दुआ , ओ बावरी,
मुझमें बसी तू बरसों पुरानी कोई याद-सी।

तू है तो दिल को है सुकूं,
तू है तो मुझमें है जुनूं,
तू है तभी ये बोल हैं,
तू है तो हम अनमोल हैं।

अब गुम है हर बेबसी,
मंजर भी है दिलकशी,
तू है तो है क्या कमी,
जां है, जां में, जांनशीं।

अंतरा 2

पन्नों में डाल के, रख लूँ संभाल के,
तू है मीठी जबां।
सौंधी-सी रैन में, पिघले है नैन में,
तू है कच्ची हया ।।

पहली सबा तू, अल्हड़ हवा तू आखिरी,
पगली घटा ने, छेड़ी हो जैसे कोई बांसुरी।

तू है कि खुशबू की छुअन,
तू है कि फूलों में शिकन,
तू है कि रेशम की लड़ी,
तू है कि अंबर अंबरी।

पाकर तुझसे मयकशी,
धुन में है अब चाँदनी,
सब हैं यहाँ तेरे दम से हीं,
तू हीं , तू है, हर कहीं।


-विश्व दीपक

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