आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स करके रख लूँ मैं..
आईये
कुछ बोलिये,
आँखों को मेरी खोलिये,
मुझको खिलौना कीजिए,
हाथों से टोना कीजिए..
पलकों पे साँसें मारिये,
कानों में झांसे मारिये,
मैं टोकूँ तो हँस दीजिए,
जो बोलूँ कि बस कीजिए
तो रूठ के चल दीजिए..
फिर लौट के खुद आईये
और आते हीं भिड़ जाईये...
आईये
आ जाईये,
आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स कर के रख लूँ मैं..
ख्वाब में आती है जो
आपकी हमनाम एक
आप-सी दिखती तो है
पर हैं हुनर उन्नीस हीं..
बीस तो बस आप हैं..
ख्वाब के उस ’आप’ को
आप करने के लिए
आईये
आ जाईये,
आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स कर के रख लूँ मैं..
देखिए,
साँस की खुराक का सवाल है!!
- Vishwa Deepak Lyricist
ज़रा-सी आँख लगी है,
सोने दो
इसे..
तुम अपनी हवाओं की बांसुरी
फूंको
पहाड़ों के कानों में,
रोशनी के छींटे उड़ेल आओ
फूलों पे
गुलमोहर के,
जाकर निहारो एक-टक
रात भर बतियाते
मस्जिद-मंदिर के गुंबदों को,
पाँव चूमो
नीम-नींद में डूबी
गिलहरियों के -
तुम्हारी रचनाएँ तो वे भी है,
जाओ
उन पर नाज़ करो
इस वक़्त..
माँग लो
गौरैये से उसके पंख
और पहली उड़ान की तरह
निकल जाओ क्षितिज नापने..
निश्चिंत रहो-
तुम्हारी यह कविता
कर रही है मेरी डायरी में आराम..
मुझे प्यार पढने दो..
तुम आना कल सुबह
सूरज के साथ
और गुनगुना लेना इसे
गुनगुनी धूप की गिलौरी निगलकर..
तब तक
सोने दो इसे,
ज़रा-सी आँख लगी है!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
सोयी हूरें
नहीं मिलती किताबों में भी..
सबको देखनी होती हैं
उनकी
घूरती आँखें,
घेरती बांहें
और थिरकते पाँव...
वे सारी हूरें
अभिशप्त हैं जागने के लिए
क्योंकि सोयी हैं
उनके मुरीदों की कल्पनाएँ..
मेरी हूर
सोयी है
सामने
और मैं रंगता जा रहा हूँ सफ़हे,
हज़ारों हज़ार सफ़हे -
उसके चेहरे पे,
अपने सीने में...
कविताएँ
उठकर बैठ रही हैं हर पल,
हुस्न जाग रहा है,
हूर सोयी है..
कवि ज़िंदा है!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
ज़िंदगी जुए से है निकल पड़ी,
ज़िंदगी धुएँ से है निकल पड़ी..
ज़िंदगी अब होश में है,
आपकी ज़मीन पर चल रही है,
जोश में है..
फूल के लिबास में,
ओस के कयास में,
खुशबूओं से खेलती
जूही, अमलतास में,
ज़िंदगी
धूप की छुअन से है मचल पड़ी...
ज़िंदगी लिजलिजी धुंध से निकल पड़ी..
ज़िंदगी अशर्फ़ी हुई कारण आपके,
रूह में मिलाकर देह को खिला दूँ,
अनमोल बर्फ़ी हुई कारण आपके...
आपके..
ज़िंदगी आपकी आँख में है ढल पड़ी..
हारे हुए जुए से जीतकर निकल पड़ी,
काले हुए धुएँ से बीतकर निकल पड़ी,
ज़िंदगी आपकी ज़मीन पर जो चल पड़ी...
ज़िंदगी..
- Vishwa Deepak Lyricist
वो तुम्हारे लबों से "हाय, मर जावां" का फूटना
और मेरा मर जाना.. उसी दम...
याद रहेगा मुझे आवाज़ों का दौर गुजर जाने के बाद भी..
तुम बस इन छल्लेदार लबों से चूमती रहना हवाएँ,
मैं तुम्हारी मुहर लगी उन साँसों की बदौलत जीता-मरता रहूँगा...
बस तुम इशारों के उस दौर में मत भूलना
"हाय" कहना आँखों से,
मैं पढ लूँगा तुम्हारी अदाएँ टटोलकर "ब्रेल लिपि" में
और
और
मर जाऊँगा फिर से.......उसी दम
- Vishwa Deepak Lyricist
नाटे कद की ज़िंदगी
फैलती है जा रही..
आसमां से बोल दो
नए रिश्ते ना बाँधा करे,
हाथ की ऊँचाई अब
है देह को छका रही..
नाटे कद की ज़िंदगी..
शाम की ढलान पे
हैं सुर्ख लब सिमट रहे,
ओक भर की आँख में
है रात छलछला रही..
नाटे कद की ज़िंदगी..
वो वहीं से बिन कहे
लौट गए आज भी,
हमने "प्यार" सुन लिया,
अब साँस बड़बड़ा रही..
नाटे कद की ज़िंदगी,
फैलती है जा रही...
- Vishwa Deepak Lyricist
तेरी आँखें कारखाना हैं क्या,
अहसास कारीगर हैं जिनमें..
फिर रोज़-रोज़ का रोना क्यों?
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कभी शिकवों पे हँसते थे,
अभी हँस दें तो शिकवे हों..
गिरा है औंधे मुँह रिश्ता..
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कल पर निकल आएँगे कानों के भी,
आज सुन लो मुझे गर सुनना हो..
मैं बोल के उड़ जाऊँगा यूँ भी...
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उसे ग़म है कि उसकी खुशियों का कद छोटा है,
मुझे खुशी है कि ग़म की पकड़ कमज़ोर हुई..
मैं ज़िंदा हूँ और वो मरता है खुशी रखकर भी..
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कुछ झांकता है अंदर, कुछ भागता है बाहर,
मैं खुद से अजनबी-सा यह खेल देखता हूँ..
सीने में जंग छिड़ी है ईमां और बुज़्दिली में...
- Vishwa Deepak Lyricist
तुम्हारी विचारधारा
सर कटे मुर्गे की तरह है,
जो चार लम्हों के लिए चलता तो है
लेकिन
न दिशा जानता है, न हीं दशा..
तुम
जाल में फँसे उस तोते की तरह मुखर हो
जो
पिंजड़े में सिमटने के बाद भी
रटता रहता है एक हीं मंत्र-
"बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा ,
दाना डालेगा , हमें बुलाएगा,
हम नहीं जायेंगे, हम नहीं फँसेगे !"
तुम्हें चुभती है
लिखाई किसी पन्ने की
तो जला डालते हो
पूरी की पूरी किताब
और ताले चढवा देते हो पुस्तकालयों पे
ताकि "म्युटेट" न हो जाए फिर कोई "सेल्फ",
लेकिन नहीं झांकते
अपने घर के तहखानों में
जहाँ सदियों से शोर कर रहे हैं हज़ार छापाखाने....
मैं
तुम्हारे शब्दों को
जोड़ता हूँ जब
चाल-चलन से तुम्हारी,
तो खड़ा हो जाता है एक पिरामिड,
जिसमें लेप डालकर लिटाई मिलती है
सच्चाई, जिम्मेदारी और इंसानियत
"मिश्र की ममी" के लिबास में...
मैं
घूरता हूँ तुम्हारी जिह्वा पर लदे पिरामिड को
और सुनता हूँ उसकी बदौलत
तुम्हें पढते मर्सिया...
शायद यह सच न हो
या मेरी कोरी कल्पना हो मात्र,
लेकिन अगले हीं पल,
अगले हर पल
तुम्हारे छापाखाने दागते हैं सवाल
तुम्हारे उस्तरों पर
और
पन्नों का रंग लौट आता है तुम्हारी रगों की ओर...
फिर नहीं कटता कोई मुर्गा
और खोल में समा जाती है
तुम्हारी विचारधारा
नमक लगे घोंघे की तरह...
वैसे
नमक ज्यादा हो तो
मर भी जाते हैं घोंघे....
- Vishwa Deepak Lyricist
पोरों में बर्फ जम जाए
तो टूट जाता है पत्थर भी,
कट-कटा उठते हैं दाँत लोहे के
जब सर पर काबिज़ होता है कुहासा...
फिर वह तो एक सौ-साला इमारत थी..
हाय!
छत उठ गई पोते-पोतियों के सर से,
भगवान घर की आत्मा को शांति दे...
- Vishwa Deepak Lyricist
कैलेण्डर बदल लिया है,
अब दिन-रात भी बदल लें..
पिरोयें रोशनी सुबह में
और सांझ के डूबते सूरज से
रात की अंधी-खुरदरी पगडंडियों के लिए
माँग लें धूप की टॉर्च,
परछाईं की चप्पलें...
सड़ती और सड़ी-गली सोच को
न सिर्फ हटाएँ शब्दों से,
बल्कि माथे में थमे हुए तालाब को भी
कर दें हरी काई और शैवालों से मुक्त,
उगाएँ सिंघाड़ें या फिर कमल
ताकि धमनियाँ और शिरे
ज़िंदा रहें, जागरूक रहें
और धड़कता-महकता रहे शरीर
आपादमस्तक...
सजाएँ जीने के ख्याल
और पलट दें
"मैरियाना ट्रेंच" तक धँसे हौसलों को
ताकि हर आह में खड़ा हो
एक नया एवरेस्ट;
तान दें अपनी आँखों के सामने
दो हथेलियाँ
और चढकर उनपे
बढा लें अपना कद
पौने दो या दो गुणा...
बदल दें रात और दिन,
क्षण, पक्ष, महीने
लेकिन सबसे पहले
बदलें खुद को -
अंदर की पलकें खोल
खंगालें हृदय ,
हटाकर हाड़-माँस
गूँथ लें फूल, पत्तियाँ,
सागर, आसमान, पड़ाड़
और आस-पास के
करोड़ों चेहरें, लाखों बुत, एक इंसानियत...
कैलेण्डर बदल लिया है,
अब बदल लें
कागज़, रोशनाई, आँसू, मुस्कान,
नज़र, नज़रिया
और सबसे बढकर
परिभाषा........बदलाव की...
- Vishwa Deepak Lyricist