Wednesday, August 29, 2012

शुक्रिया


सद्यजन्मा भाई को गोद लिए
जब पूछेगी वो
कि
"अब तो खुश ना?
अब तो नहीं कटेंगी ना मेरी परछाईयाँ?",
तो क्या जवाब दोगे तुम?

क्या जवाब दोगे तुम
गर वो कुछ पूछे हीं नहीं,
बस निहारे अपने भाई को एकटक
और दबी ज़बान में कहे -
"बड़ी देर की आने में.... खैर... शुक्रिया!"

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, August 28, 2012

घर से आँगन तक


नन्हीं ऊँगलियों पे वह गिनती है
लिजलिजे घर से उजले आंगन तक की दूरी
और झेंप कर हल्का
करती है
सफर के समय का हिसाब..

थक गई है बेचारी
फिर भी नही भूलती
हाथ हिलाकर खबर देना
अपनी सलामती का
उस "आसमां" वाले अपने रहबर को..

खैर
एकटक
निहार रही है अभी
आँगन की आदमकद मूर्तियों को,
फूँक रही है उनमें जान
और बड़े हीं "दो टूक" लहजे में
कह रही है अपनी "तुलसी" को
कि
"मैं हीं आनी थी गोद भरने तुम्हारी... कोई और नहीं"

कह रही है
वह "दो घंटे" की "भांजी" मेरी..

- Vishwa Deepak Lyricist
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सुबह 6:30 में लिखी यह कविता... उसके जन्म के दो घंटे बाद...

Monday, August 27, 2012

हूँ ज़िंदा या मुर्दा


जो कमबख्त पत्थर थे कल तक मेरे घर,
वो फूलों में तब्दील होने लगे हैं..

इलाही ये क्या माज़रा है बता दो,
बियाबां जो सब झील होने लगे हैं...

हूँ ज़िंदा या मुर्दा कि वो सारे सादिक़
मुखौटों को यूँ छील, होने लगे हैं..

सादिक़ = pure, honest, true

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, August 24, 2012

आ दर्द बन


मुझे छीन ले मेरी ज़ात से,
मुझे छोड़ दे तेरी रूह में...

मुझे तोड़ ले मेरी ज़ीस्त से,
मुझे बाँध ले तेरी साँस से...

मुझे दर्द दे हमदर्द बन,
हमदर्द बन... आ दर्द बन...

मुझे रात दे, मुझे नींद दे,
मुझे ख्वाब दे, मुझे "आप" दे...

मुझे सौंप दे तेरे "आप" को....
मुझे सौंप दे.. मुझे छीन ले....

- Vishwa Deepak Lyricist

Wednesday, August 22, 2012

हे भगवान


माटी के माधो
रंग ले
अब माटी तेरी..

तू हो ले हरा,
या केसरिया
या उजला, पीला,
चितकबरा..

तू रख कोई भी
रंग यहाँ..

बस ना रहना बेरंग,
नहीं तो
फट जाएगी छाती तेरी..

माटी के माधो!!!!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, August 21, 2012

मेरे मस्तिष्क


मेरे मस्तिष्क
कहीं और चल!

ना देह को तेरा ज्ञान है,
ना रूह को तेरी कद्र है,
अस्तित्व तेरा
धुंध है,
है धार भी तो
कुंद है,
इस घर में तेरा मोल क्या,
इस घर में सब हीं तेज़ हैं,
सब जानते हैं सोचना,
क्या सोचते हैं.. जान के
बदनाम होने से भला
मेरे मस्तिष्क
कहीं और चल!

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, August 20, 2012

ईद मुबारक


आज आए तुम,
मेरे कान खींचे,
कुछ फुसफुसाए
और निकल लिए...

मैं अभी तक सोंच में हूँ
कि तुमने समझाया मुझे
या बहका दिया... पिछली बार-सा..

कहीं फिर से मैं
एक-आध हँसी के बाद
सीख न लूँ खुश रहना...

इस ईद भी!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, August 19, 2012

मेरी बात सुनो


नाहक़ तुम घबराती हो,
इत-उत आँख छुपाती हो,
फूलों की बातें करके
धूलों-सी बिखरी जाती हो..

मैं जानता हूँ इस मौसम को,
पर गर तुम जो शर्मिंदा हो,
तो मेरी इतनी बात सुनो -

ये सब्ज़ा बस पल भर का है..

- Vishwa Deepak Lyricist

चूहे खाएगी


आँख उतर रही है सीढियों से,
नींद चढ जाएगी ऊपर..दबे पाँव..बिल्लियों की तरह...

घंटियाँ ख्वाब की बँधी हों तो ज़रा चौंकूं भी...

घंटियाँ ख्वाब की गूंगी हैं, बहरी आँखें हैं,
नींद मखमल है तलवों तक रेशों से..

कौन रोकेगा? चढेगी माथे में.... चूहे खाएगी..

चूहे खाएगी,
सोंच खाएगी,
नोंच खाएगी,
रोज़ खाएगी,
आँख उतरते-उतरते... उतर जाएगी...

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, August 17, 2012

शुतुरमुर्ग रेत में


तालीम के सरमायेदार!
बेरोज़गार फिर रहे
हैं लफ़्ज़ बेमानी हज़ार...

सूखे की मार!!

आँखों में दरिया काट के
जब से दिया सहरा उतार..
तालीम क्या, तहरीर क्या,
तहज़ीब... नाउम्मीदवार..

जा रे सुखनवर
अबकी बार,
बनके शुतुरमुर्ग रेत में
सर डालना जो ज़ार-ज़ार,
एक बूंद भर हीं थूक में
हो जाना गर्क बेइख्तियार...

ईमां के पार..

हैं कूच कर गए सभी
दानिश्वर क़ुव्वत उजाड़..

तालीम के सरमायेदार,
तारीक़ के सरमायेदार..

- Vishwa Deepak Lyricist

Thursday, August 16, 2012

भोली चाँदनी


शाम की खिड़कियाँ खोल के,
साज़ में मुरकियाँ घोल के,
आ उतर जा गोरी चाँदनी,
आँख की झिड़कियाँ तोल के...

बेहिसी में पड़ी
ख्वाहिशें बावरी
दो पलक मोड़ के
ताकती हैं हर घड़ी -
पूछती हैं कब मिले
रोशनी के काफिले,
खोजती हैं कब दिखे
ज़िंदगी के सिलसिले -
ज़र्द इनकी देह पर
रख दे दो-इक अंगुली
ओ री भोली चाँदनी,
नर्म-सी कुछ बोलियाँ बोल के...

साज़ में मुरकियाँ घोल के..

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, August 14, 2012

मैं, तू, खला, खालीपन और मौत


मुझमें ढूँढे तू खालीपन?

मैं तुझसे तुझतक फैला हूँ!

मैं हूँ तो तू खाली कैसे?
तू है तो मैं खाली कैसे?

ना खला कहीं... हरसू हम हैं..

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तुझसे होकर मैं यूँ गुजर जाऊँ,
तेरी बाहों में सोऊँ, मर जाऊँ...

इक सिरा मेरी रूह का
अटका हो मेरे सहरे से
दूसरा सिरा लेके मैं
तेरे साहिलों से उतर जाऊँ..

तेरी बाहों में सोऊँ.. मर जाऊँ..

तू काँटें दे या फूल हीं
या बंद कर ले पंखुड़ी
मैं ओस बनके आज तो
तेरी क्यारियों में बिखर जाऊँ..

तेरी बाहों में सोऊँ.. मर जाऊँ..

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, August 13, 2012

तुम और मैं.. दो क्षणिकाएँ


गर
मालूम हो कि
दो कदम पर मौत हो
और
कदम दर कदम
तुम चल रही हो साथ मेरे...

तो
किस तरह
उतार दूँ ज़िंदगी?

तुम्हारा रहना
कचोटता रहेगा मुझे
और
तुम्हारा जाना
भी तो
मौत से कम नहीं....

____________________


तुम्हें छोड़ आया हूँ वहीं
जहाँ तुमने कभी छोड़ा था मुझे...

अबकी बार
चलो
साथ चलें दोनों
और लौट आएँ अपने-अपने रास्ते..

फिर
न तुम पर कोई इल्जाम,
न मुझ पर कोई इल्जाम...

- Vishwa Deepak Lyricist

Saturday, August 11, 2012

उचक सको तो मानूँ


सड़क तो अब भी है,
पर तुम सरक सको तो मानूँ!!!

तुम चलने हीं वाले थे
कि मैंने
तोड़ दी रीढ की हड्डी..

बस इन माँस के लोथड़ों से
तुम उचक सको तो मानूँ...

सड़क तो अब भी है...

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, August 10, 2012

सौ चेहरे


मैंने सौ चेहरे रखे,
एक-दो गहरे रखे..

बोलती बाज़ी रही,
बेज़ुबां मोहरे रखे..

लफ़्ज़ बेमानी रहे,
मायने दुहरे रखे..

डूबती आँखें रहीं,
ख्वाब पर ठहरे रखे..

भागती "तन्हा"ई थी,
दर्द पर पहरे रखे..

- Vishwa Deepak Lyricist

Thursday, August 09, 2012

अच्छा-खराब


मैं कैसे लिखूँगा कुछ अच्छा-खराब,
मुझे इस अदब की समझ हीं नहीं है..
मुझे ज़िद्द पड़ी है समझ लूँ उसे मैं,
उसे इस तलब की समझ हीं नहीं है..

मैं बे-ज़ौक़ हूँ गर तो ये क्या है कम कि
मुझे शौक है कुछ नया कहता जाऊँ,
वो बे-कैफ़ कहके हीं सुन लें तो वल्लाह!
मैं तारीफ़ मानूँ, बयां करता जाऊँ..

मेरे वास्ते तो ये रांझे की बातें
मेरे रूबरू हीं बनी हैं, चली हैं..
ना मालूम उसे क्यों लगे कुछ अजब-सा,
कि हीरें जहां की सभी बावली हैं...

मैं चाहूँ कि हम दोनों चाहें यही पर,
उसे इस कसक की समझ हीं नहीं है..
मुझे ज़िद्द पड़ी है समझ लूँ उसे मैं,
उसे इस तलब की समझ हीं नहीं है...

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, August 07, 2012

तुम्हारे पन्नों पे


ना, तुम्हारे पन्नों पे नहीं बसता मैं...

तुम्हारे पन्नों पे
या तो हैं राजप्रासाद
किन्हीं किन्नर-किन्नरियों के,
या हैं स्नानागर
ऋषि-मुनियों के
जो परखते रहते हैं
कमल का कौमार्य
या फिर
हैं दूतावास
सुर-असुरों के
जिनके कबूतर
छोड़ जाते हैं पंख
बहेलियों की लेखनी के लिए...

तुम्हारे पन्नों पे
नहीं बसता.... मुझ-सा कोई मनुष्य
जिसे चुभता है
पेंसिल का ग्रेफाइट भी
और जिसे स्याही की कालिख
मंहगी है
दो जून के कोयले से...

तुम्हारे पन्नों पे
नहीं बसता... वह हर कोई
जो राजसूय के घोड़े की
नाल से बंधा है
या पिसा जा रहा है
घास की टूटती तलवारों के बीच...

ना, तुम्हारे पन्नों पे नहीं बसता मैं...

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, August 06, 2012

क्षणभंगुर


तथास्तु!

और तभी
क्षणभंगुर हो गया
क्षण..

मैं तब से
ढूँढ रहा हूँ उस सुख को
जिसके दंभ ने
तोड़ दी थी
दु:ख की सहनशक्ति
और
तप उठा था दु:ख
समय के तपोवन में...

एक तथास्तु
और
क्षणभंगुर हो गए थे
क्षण,
सुख,
दु:ख.... सभी....

मैं तभी से व्यथित हूँ
उस सुख से
जिसने न छोड़ा
दु:ख को भी
क्षण से अधिक का...

दु:ख-
ऋणी हूँ जिसका मैं
सदियों से
वह एक क्षण का मात्र?
क्या प्रयोजन,
वृथा है..

उससे श्रेयस्कर तो है
सुखकर मृत्यु...

और क्या!!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, August 05, 2012

सिल्क वर्म्स की लाशें


मैं उस वक़्त
बरगद के उसी तने में
धँसा जा रहा था
जिसकी चौहद्दी में
बाँधती आई हो तुम
उम्मीदों के अनगिनत धागे...
उन धागों से
छिल-छिलकर
बरगद की छालें
समाती जा रही थीं
मेरे सीने में
और काटती जा रही थीं
साँसों के बेहया फंदों को,
फिर भी साँसें मुँह तक आकर
लौट जाती थीं सीने में
और रेंगने लगती थीं
आहिस्ता-आहिस्ता..
मैं या तो पत्तों के रास्ते
हो जाना चाहता था धुँआ
या पानी-पानी होकर
बह जाना चाहता था
जड़ की बेबस गलियों में
लेकिन मुझे न तो
ज़मीन नसीब थी
न हीं आसमान..

वे
जिस वक़्त नोंच रहे थे
तुम्हारे कपड़े
और उनके इरादे
पहुँच चुके थे
रात की अंदरूनी ग्रंथियों तक,
उस वक़्त मैं
नीरो-सा
शहतूत की उसी डाल पर
बैठकर बजा रहा था बांसुरी
जिसपे अगली सुबह
तब्दील होने थे
कुछ लार्वे प्युपाओं में...

उन नामुरादों ने
न सिर्फ
धज्जियाँ की
तुमसे लिपटे
सूत के कुछ रेशों की
बल्कि उनने तो
शहतूत की शाख हीं काट डाली
और
अगले हीं पल
मेरे हीं पैरों से दबकर
मर गए वे लार्वे,
मर गए वे सिल्क-वर्म्स
बालिग होने से पहले हीं...

कुछ लम्हात बाद
तुमने जब
ओढी थी चुप्पी की चादर
और लौट रही थी
घर
अपनी चीखों की
लावारिस लाशों के साथ
तो वहीं तुम्हारी परछाई से
दो गज ज़मीन नीचे
मैं उन रेशम के कीड़ों को दफना रहा था...

रेशम के कीड़े
जो हर पल बता रहे थे मुझे
कि मेरी औकात
ज़मीन के कीड़ों से बढकर
कुछ भी नहीं..
रेशम के कीड़े
जो हर साल
तुम्हारी ऊँगलियाँ छूकर
आ जाते थे
मेरी कलाई की कमर कसने...

रेशम के कीड़े
जिन्हें इस बार
राखी बनना गंवारा न था...

- Vishwa Deepak Lyricist