Sunday, December 30, 2012

उस शायर के नाम


उस शायर के नाम,
जिसने
रदीफ़ और काफ़िया को इतनी दी तवज्जो
कि भूल गया
वज़न दुरूस्त करना...

इंसान तो बना डाला
लेकिन ईमान कसने में कर गया कंजूसी..

शायर,
आज तुम्हारी ग़ज़ल
जगह-जगह से चुभने लगी है,
ज़हरीले नाखून उग आए हैं उसमें..

ज़रा
एक बार तुम भी यह ग़ज़ल गुनगुना कर देखो,
लहुलूहान हो जाओगे..

.
.
.

दुनिया का यह मुशायरा
चाहता है ग़ज़लों की नई खेंप -
तंदुरुस्त, वज़नदार..

अपना पुराना दीवान फेंक दो
और नया लिखो सिरे से..

तुम सुन रहे हो ना शायर?
सुनो तो...

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, December 24, 2012

मेरे सर पे चढो तब हीं


हमारे साथ हो तुम या
हमारे सर पे हो बोलो,
अगर हो साथ तो फिर तुम
कभी ऊँगली थमा भी दो,
या फिर गर सर पे हो तो बस
बरसते हीं हो क्यों हर पल,
कभी आशीष दे भी दो,
कभी पुचकार भी लो तुम,
हमेशा वार करते हो,
कभी तो प्यार कर लो तुम..

मेरे रहबर,
मेरे साथी,
मेरी परछाई बन लो तुम,
मुझे परछाई कर लो तुम..

.
.
.

(सुनो!
हमसे हीं तुम हो और
तुम्हारे होने से हम हैं,
हाँ, इतना ग़म है कि
लाठी
जो भरती थी मेरी मुट्ठी,
जिसे चलना था संग मेरे,
वो हाय मेरे माथे पे
हीं आ के चीख कर टूटी,
वो चीखी कि मैं हट जाऊँ,
इरादे तोड़ बंट जाऊँ..

खैर! अफसोस यह है कि
अगर तुम पत्थर-दिल हो तो
हमारे सर हैं पत्थर के,
हमारे सीने लोहे हैं,
है आँखों में दहकता जल,
भला लाठी करेगी क्या,
जली तब हीं, जलेगी फिर,
जभी हम पे उठेगी फिर..

जलेगी फिर,
जलेगी फिर,
जो भरती थी मेरी मुट्ठी,
अगर मुझपे उठेगी फिर..

मेरे साथी,
मेरी सरकार,
मेरे सर पे चढो तब हीं,
अगर सूरज-सा रहना हो,
मुझे परछाई देनी हो,
मेरे पैरों पे चलना हो..)

.
.
.

रहूँगा मैं तो बस तेरा -
मेरी परछाई बन लो तुम,
मुझे परछाई कर लो तुम..

- Vishwa Deepak Lyricist

Wednesday, December 05, 2012

उस तरह का प्यार


मैं तकरीबन हर उस किसी को प्यारा हूँ
जो मुझे "उस तरह" प्यार नहीं करती..

और जो करती थी बातें मुझे "उस तरह" प्यार करने की,
उसे इस तरह प्यारा हुआ मैं
कि आजकल
मुझसे नहीं करती बात तक;
शायद डरती है
कि कहीं कोई ठेस न लग जाए मुझे...

वह नहीं करती है बात
और यही बात मुझे चुभती है सबसे ज्यादा..

वे करती हैं बातें
जिन्हें मैं बहुत प्यारा हूँ,
लेकिन उनकी बातें मुझे न प्यार देती हैं और न हीं कोई ठेस..

अब सोचता हूँ
कि "प्यारा मानने" और "उस तरह प्यार करने" के बीच
क्यों है यह पुल
जो बदल देता है परिभाषा प्यार और ठेस की?

मैं पेंडुलम की तरह टहलते हुए इस पुल पर
कोसता हूँ उन्हें
जो या तो इस तरफ हैं या उस तरफ
और जो ज़मीन बाँट कर बैठी हुई हैं सौतनों की तरह...

मै ,
जिसे "प्यारा" कहने वाली "उस तरह" का प्यार नहीं करती,
फेरता हूँ निगाहें दोनों तरफों से
और कूद पड़ता हूँ
पुल के नीचे बहती
.
.
नफरत की नदी में...

इस नदी में
यकीन मानिए...... बेहद सुकून है....

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, December 04, 2012

वह ज्यादातर चुप रहता है


उसने अपनी सारी आदतें उतार दीं हैं मेरे कारण...

अब वह बिगड़ने से पहले देख लेता है मेरा "मूड"..

हँसता ज्यादा है आजकल,
ज्यादातर खुद पर...

अकेले में बाँटना चाहता है ग़म मुझ से
और रख देता है दिल खोलकर..

वह अब मेरी "कड़वी" बातें भी सुन लेता है
और झुका लेता है सर...

वह झुका लेता है सर
और चिढ जाता हूँ मैं..

चिढता था मैं पहले भी,
जब वह ऐसा कतई न था..

वह बदल गया है
लेकिन मैं नहीं बदला...

वह जो मेरा "पिता" है,
मुझे आज भी लाजवाब कर जाता है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, December 02, 2012

एरोप्लेन, ज़िंदगी और कविता



एरोप्लेन:

नाक नुकीली लिए फिर रहा
एरोप्लेन क्या सूंघ रहा है?

फाड़ के बादल रस पीएगा?

________________

बड़ी काई है आसमान में,
खुरपी लेकर चलो छील दें..

धार तेज़ है एरोप्लेन की..

________________

ज़िंदगी:

नींद तो दकियानूसी है,
खैर कि बागी है करवट..

प्यार जगाए रस्म तोड़ के...

________________


बचकानी है मेरी हँसी,
मेरा चुप रहना है सयानों-सा..

मेरा रोना... ज्ञान की चाभी है...

________________


खुश रहना बुरी लत है,
फिर कुछ भी बुरा नहीं दिखता....

खुश रहो कि "तुम" भी अच्छे हो..

________________


ज़िंदगी कंपकंपी से ज्यादा है,
मौत ओढूँ भी तो मिलेगा चैन नहीं..

खुदा! मौसम बदल या दे कंबल नया..

_______________

कविता:

चार दिन क़लम न उठाऊँ तो उग आते हैं खर-पतवार,
बड़ी जल्दी रहती है मेरे शब्दों को ऊसर होने की..

कतरता हूँ, छांटता हू, फिर टांकता हूँ कागज़ पर..

- Vishwa Deepak Lyricist