Wednesday, July 11, 2012

खैर छोड़ो


चलो छोड़ो..

शाम यूँ हीं
शरबत-से समुंदर पर
शक्कर-से सूरज-सी
सरकती हुई
बुझ जाएगी..

तुम्हें क्या!

तुम तो
रात की चटाई पे
राई-से तारों को
बिछाकर
चुनने लगोगे
कालिखों के ढेले,
गर कभी चाँद
हाथ आया भी तो
कहकर
उजला कंकड़
फेंक दोगे उसे
उफ़क की नालियों में...

सुबह होते-होते
तारे
समा चुके होंगे
कोल्हू में
और फैल चुका होगा
चंपई तेल
आसमान पर..

सुबह होते-होते
तुम भी
बन चुके होगे
एक कोल्हू...

खैर छोड़ो,
तुम्हें क्या...

- Vishwa Deepak Lyricist

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