Saturday, December 10, 2011

जिस्म हाज़िर है

कभी आँख की शक्ल में आओ 
और 
झाँक लो मेरे अंदर... 


दिन के बारूद से लिपटे 
रात के चिथड़े मिलेंगे.. 


ज़ख्मी दिल वहीं पड़ा मिलेगा 
कोने में 
और 
रूह का कहीं नामो-निशान न होगा.. 


तुम्हें इंसान चाहिए था ना? 
जिस्म हाज़िर है..ले जाओ!! 


 -विश्व दीपक

बस असर मैं कातिलाना चाहता हूँ

इश्क़ मैं कुछ यूँ जताना चाहता हूँ, 
मौत के घर आशियाना चाहता हूँ.. 


कब मिली है, कब मिलेगी ज़िंदगी, 
जानकर भी आजमाना चाहता हूँ.. 


कारगर है तेरी अंखियों का हुनर, 
पर असर मैं कातिलाना चाहता हूँ.. 


प्यार में जन्नत मिले- ऐसा नहीं, 
बस ज़रा-सा आबो-दाना चाहता हूँ 


मैं ’मुकम्मल’ हूँ कि हूँ ’तन्हा’ बता, 
आज ये उलझन मिटाना चाहता हूँ... 


- विश्व दीपक

काहे के संकोची

वो काहे के संकोची हैं... 


वो तो 
नज़र डाल के जिगर चीर दें, 
उधर आह लें , इधर चीर दें, 
ज़रा प्यार दें, बड़ी पीर दें, 
दुआ प्यार दें, जड़ी पीर दें.. 


उफ़्फ़! 
खुले वहीं, दिल खोल रखें, 
कई किस्म-किस्म के बोल रखें.. 
फिर 
राह बना के कदम डाल लें, 
मेरी वहीं फिर कदम-ताल लें.. 


अब 
पाँव खींच कर, आँख मींच कर, 
बरस रहे हैं साँस भींच कर, 
रीत-रिवाज़ सूझी है अब जब, 
आन-अना करती हैं अब-तब.. 


आह! 
मंज़िल तक यूँ मुझे बढा के, 
नाक उठा के, नाज़ चढा के, 
चाह रहें मैं जहां वार दूँ, 
जान मिटाऊँ, हया वार दूँ... 


हाय! 
कहूँ कहे जो, सुनकर, मैं था, 
कहूँ राह का बुनकर मैं था, 
खेंच लाया था उनको मैं हीं, 
पेंच लड़ाई थी मैंने हीं... 


वाह! 
आगे बढ के इश्क़ करे जो, 
संकोची काहे का फिर वो... 
बस 
ग़ज़ब के वो उत्कोची हैं, 
वो काहे के संकोची हैं...


- विश्व दीपक

तन्हा किया

एक मर्तबा.... 


एक मर्तबा, 
बस एक दफ़ा, 
खुद को जभी तन्हा किया, 
खुद को जभी "तन्हा" कहा, 
तन्हाई मुझसे आ जुड़ी बातें बनाते खामखा... 


एक दफ़ा... 


एक दफ़ा एक शर्त थी - 
तुम गर्त लो या श्रृंग लो, 
भर लो लहू से लेखनी 
या फूलों से नर-भृंग लो, 
उस घड़ी फूलों को छूकर 
देखकर खुशबू औ’ रोगन, 
भींच ली मुट्ठी जो मैंने, 
लुट गया तितली का यौवन, 
तब से काहे पास आए कोई खिलता काफ़िला... 
तन्हाई मुझसे आ जुड़ी बातें बनाते खामखा... 


"तन्हा" कहा... 


"तन्हा" कहा, तन्हा रहा, 
जाने कहाँ किसका रहा, 
खुल के मिला सबसे मगर, 
खुद से बड़ा छुपता रहा.. 
वैसे तो मेरी लेखनी में 
रस था फूलों का भरा, 
पर वो भी था तो खून हीं 
फिर जमता कैसे मामला, 
आखिर पड़ा शब्दों से जो गाहे-ब-गाहे वास्ता, 
तन्हाई मुझसे आ जुड़ी बातें बनाते खामखा.. 


खुद को जभी तन्हा किया, 
खुद को जभी "तन्हा" कहा... 
एक मर्तबा...


-विश्व दीपक

सोचूँ कैसे



Male version:

सोचूँ कैसे रखती होगी खुद को मेरी यादों से अलग,
सोचूँ किसको कहती होगी मैं हूँ तुम से महरूम नहीं...

सोचूँ कैसे गिरते होंगे गड्ढे गालों पे अबके बरस,
सोचूँ किसको कहती होगी हद है ये भी मालूम नहीं...

सोचूँ कैसा दिखता होगा शीशे के अंदर उसका असर,
सोचूँ किसको कहती होगी तुम हो इतने मासूम नहीं...

सोचूँ कैसे उठती होगी मुझ बिन उसकी बातों में लचक,
सोचूँ किसको कहती होगी बुद्धू हो तुम मखदूम नहीं..


Female version:

सोचूँ कैसे करता होगा ख्वाबों के बिन नींदों में बसर,
सोचूँ किसको कहता होगा आशिक़ हूँ मैं इंसान नहीं...

सोचूँ कैसे चलता होगा मुझ बिन उसकी बातों का सफ़र,
सोचूँ किसको कहता होगा बचना तुम से आसान नहीं...

सोचूँ कैसे झुकती होगी पल-पल घबरा के उसकी नज़र,
सोचूँ किसको कहता होगा तुम लड़कों से अंजान नहीं...

सोचूँ किसपे रखता होगा हक़ अव्वल आखिर शामो-सहर,
सोचूँ किसको कहता होगा इस दिल का मैं मेहमान नहीं...

- विश्व दीपक

तड़प की रात

तड़प की रात बीतेगी, 
तड़प के साथ बीतेगी...


झड़ेंगे पंख चींटी के, 
सज़ा की बात बीतेगी... 


तवे की नर्म नज़दीकी 
जला के हाथ बीतेगी... 


लगी है आग फूलों में, 
जड़ों की ज़ात बीतेगी... 


कहेंगे यार ’तन्हा’ तो 
कहीं तो मात बीतेगी... 


- विश्व दीपक

Wednesday, June 29, 2011

न मौत आई


male:
न मौत आई, न तू आई, न तेरी कुछ खबर आई,
हकीकत है तेरे दर से मेरी खाली नज़र आई।

female:
न ग़म बीता, न दिल जीता, न शब की हीं सहर आई,
हक़ीकत है तेरे दर से मेरी खाली नज़र आई।

male:
वो कल का दिन सुहाना था,
जो तेरा आना-जाना था,
मोहब्बत के तराने थे,
मिलन के सौ बहाने थे,
जो नदियाँ सुर सजाती थीं,
हवाएँ साथ गाती थीं,
हिलोड़े हम जो भरते थे,
तो दूजे रश्क करते थे,
लो अब हम हैं जुदा ऐसे
कि अश्कों के खुदा जैसे
मेहरबां हो गए हमपे,
कहूँ क्या मैं मेरे ग़म पे?
सितम है ये कि किस्मत में बचा तक़दीर का रोना,
ये मैं जानूँ क्या होता है किसी मनमीत का खोना।

female:
वो कहते थे तू झूठा है,
मुझे तूने तो लूटा है,
पर दिल ने ये गवाही दी,
भले लाखों मनाही थी
कि बस तू है सगा मेरा,
तो तू कैसे दगा देगा,
तू मेरा है तू आएगा,
मुझे अपना बनाएगा,
पर सब सपने टूटे ऐसे,
हों पानी के बने जैसे,
मैं हारी राह तक-तक के,
भुला दूँ मैं तुझे थक के?
सितम है ये कि किस्मत में लिखा तस्वीर को ढोना,
तू क्या जाने क्या होता है किसी मनमीत को खोना।

male:
वो पत्थर की हवेली थी,
जहाँ पर तू अकेली थी,
वहाँ जो राह जाती थी,
गली बनके समाती थी,
यहाँ तक तो मैं आया था,
दिलो-जां साथ लाया था,
तेरी ख्वाहिश सजाई थी,
पर दर पे अंधी खाई थी,
मैं तब भी हौसले में था,
पर रास्ता हीं ना मिला,
तुझे कितना पुकारा था,
तू न आई, मैं क्या करता?
सितम है ये कि किस्मत से मुझे मजबूर था होना,
हाँ मैं जानूँ क्या होता है किसी मनमीत का खोना।

female:
न ग़म बीता, न दिल जीता, न शब की हीं सहर आई,
हक़ीकत है तेरे दर से मेरी खाली नज़र आई।

male:
न मौत आई, न तू आई, न तेरी कुछ खबर आई,
हकीकत है तेरे दर से मेरी खाली नज़र आई।


-विश्व दीपक

-विश्व दीपक

Sunday, May 29, 2011

पी रे


तड़पत है मन पी रे,
तरसत क्षण क्षण जी रे,
भिनसर से आये ना बलमा...

निर्मोही रे!
निकसत है दम मोरा,
बरजोरी करजोरी पीऊ
कसहुँ मैं दर्शन लूँ तोरा..

फुरसत में इत आ जा,
मुहुरत में चित आ जा,
अनबन से रोए है जियरा..

मुरझायो अंखियन की तुलसी का बिरवा,
अंसुवन से उबले है निंदिया..

सुमिरूँ मैं तोहे पी,
कुछुहुं ना सोहे जी,
बिंदिया न नथनी न झुमका न कंगना..

पकड़त हूँ पैयां मैं,
बिखरत हूँ सैयां मैं,
जी लूँ जो धरि ले तू बइयां..

तड़पत है मन पी रे,
तरसत क्षण क्षण जी रे,
भिनसर से आये ना बलमा...


-विश्व दीपक

Monday, February 07, 2011

बतियाँ बनाओ न जी


रास न आए मोहे खाली खाली रतियाँ,
बतियाँ बनाओ न जी, आके करो बतियाँ...

साज सुहाए ना हीं, बोल हीं भाए मोहे,
कैसे रचूँ गीत सखी! कैसे लिखूँ पतियाँ..

पतियाँ न भेजे पिया, दरश दिखाए ना हीं,
जाने कैसे धड़के है, दोनों हीं की छतियाँ..

बैठी जाए छाती मोरी, सूजी जाए अखियाँ,
रास न आए मोहे खाली खाली रतियाँ...

बतियाँ बनाओ न जी, आके करो बतियाँ..


-विश्व दीपक

तुम बात करो तो


तुम बात करो तो गुण बरसे,
हम बात करें तो घुन बरसे?

अरे वाह रे मेरे लीलाधर,
यह नई कौन-सी चाल? सखे!
जो खुद को गेहूँ कहते हो,
पर हो गेहुँअन के लाल... सखे!

कई आस्तीनों से गुजरे हो,
हो साथ मेरे फिलहाल, सखे!
है ज्ञात मुझे कि तुम क्या हो,
जो कहूँ, आए भूचाल, सखे!

जो उर्वर को ऊसर कर दे,
तुम ऐसे खर-पतवार, सखे!
हाँ आज गिरा दूँगा तुमको,
हर के जिह्वा की धार, सखे!

सच यही है... ओ वाचाल सखे!!

फिर कहना कहाँ हैं कीड़ें वो,
थे मौन.. मगर तुम्हें सुन, बरसे,
मौनसून-सी जिनकी धुन बरसे!

तुम बात करो तो गुण बरसे?
हम बात करें तो घुन बरसे?


-विश्व दीपक

Wednesday, January 26, 2011

जीत राष्ट्र की


शनै: शनै: बढते जाएँगे,
हम अंबर पर चढ जाएँगे,
यही सोच थी, सही सोच थी,
कि हम जब भी कदम धरेंगे
कण-कण पर अधिकार करेंगे,
गढ जाएँगे मूर्त्ति विजय की,
नाम स्वर्ण में मढ जाएँगे।

होना था सब कुछ ऐसे हीं...
लेकिन विगत एकसठ वर्षों में,
भूल हुई बस एक यही कि
चढने को हमने ठाना जब
दलन किया अपने लोगों का,
बना लिया सोपान उन्हीं को
जो कि पथ में साथ रहे थे,
बनकर हर पल हाथ रहे थे।

कहाँ स्वप्न थे समष्टि के,
और कहाँ व्यष्टि पर अटके,
चढते कब, जब पहले पग पर
हीं हम मूल ध्येय से भटके।

जीत "राष्ट्र" की होती क्यूँकर,
जबकि स्वार्थ में लिप्त हुए हम,
जनना था "सूरज" हमको पर,
चिर-निशा ओढ सुसुप्त हुए हम।

अब भी लुटा सर्वस्व नहीं है,
बहुत कुछ है अब भी शेष,
संभल पड़ें जो इस पल हम तो
सजे लक्ष्य, सँवरे परिवेश।

युग बदला, एक नव-युग आया,
इस युग के बस कुछ दिन गुजरे,
जोश धरें यदि, संभव है कि
भग्नावशेष से अंकुर उभरे।

अत: करें हम दृढ-संकल्प
कि "स्व" ऊपर स्वदेश रखेंगे,
जीत राष्ट्र की करने में हीं
तन-मन-धन अनिमेष रखेंगे।


-विश्व दीपक

Sunday, January 23, 2011

बहुत लड़ता था तुझसे


बहुत लड़ता था तुझसे!

पतीले भर दूध का बड़ा टुकड़ा
किसे मिले,
सेवैय्यों की बड़ी लड़ी
किसके हिस्से जाए,
राशन के साथ मुफ़्त में नसीब हुए
कुछ नेमचुस (लेमनचुस)
बँटे तो कैसे,
"घुरा" पर आग तापते वक़्त
पापा के लिए "पीढा"
कौन लाने जाए?

तेरी जिद्द से हारकर
मैं हीं ले आता था,
लेकिन लड़ता ज़रूर था
और हाँ, डाँटता भी था,
"बड़ा जो हूँ,
इतना हक़ तो बनता है,"
बस यही सोचता था हर बार
और डपट देता था तुझे।

तू गुस्साती थी,
"सोणे" चाँद जैसे मुखरे को
फुलाकर "सूरज" बन जाती थी.. लाल-लाल.. सुनहरा
और सिमट जाती थी खुद में हीं..
मैं "डरपोक"
कभी भी मना न पाया तुझे,
हर बार माँ से कहकर
तुझे तेरे "कवच" से निकलवाकर बाहर मंगाता था
और फिर से
लड़ बैठता था।

सब कहते थे-
"एक पीठ पर के बच्चे हैं"
तो नोंक-झोंक होगी हीं,
लेकिन हमारे लिए यह
कुछ और हीं था,
मेरा खाना नहीं पचता था
तेरी हर बात को काटे बिना
शायद!
और तू?
तू अपने मन की मुराद
कह नहीं पाती थी खुल के
और मैं या शायद सभी
तुझे घमंडी मान बैठे थे,
इसलिए तू गुस्सा होती थी और बाकी सब
नाराज!

यही चलता रहा
और फिर एक दिन
तेरी डोली सज गई।
तू बन-सँवरके बैठी थी
गोटीदार लहँगे में,
शर्माई-सी, सकुचाई-सी
और चुटकी भर परेशान..
मैं कमरे में जाता,
तुझे मुझ पर तकता पाता
और "अवाक" रह जाता।
क्या बोलूँ मैं?
कैसे बोलूँ मैं?
कैसे लड़ूँ मैं?
यही सोचता हुआ
निकल आता मैं बाहर।
सच्ची
मैं पूरे दो दिन तक
चुप हीं रहा... सच्ची!

भैया!

जब मैं पूरी ताकत से
तुझे ठेल रहा था
किसी और की हथेली में
और खुलने हीं वाला था अपना रिश्ता
नोंक-झोंक वाला..
तूने पूरे ज़ोर से यही पुकार लगाई थी
"नहीं भैया"
और मैं "काठ"-सा हो गया था पल भर को..
सबकी आँखें नम थीं,
लेकिन मैं "निर्मोही" तब भी
एक बूँद न ठेल पाया आँखों से..
मैं "कसाई"!

तेरे जाने के बाद
मैं ढूँढता रहा "उसे"
जिसकी हर बात पर मैं
कसता था फिकरे,
लेकिन आह!
मुझे कोई न मिला
और तब सच्ची
मेरी आँखों से "गंगा" निकल आई।
तब जाना मैंने
तू क्या थी,
पूरे बाईस-तेईस साल
मैंने क्या खोया था
और अब क्या खो दिया है
किसी "खास" के हाथों!

तब से आज तक
प्रायश्चित हीं करता रहा हूँ,
उस "ऊपर वाले" से हर पल
माँगता था.. वो बीते हुए दिन!
और आज
"नए पैकेट" में मुझे पुराने लम्हे
अता कर दिए उसने!

आज एक पीढी ऊपर हो गया मैं!

सुबह-सुबह ढलते चाँद
और जगते सूरज ने मुझे ख़बर दी
कि
मेरी "मुँह फुलाने वाली" भगिनी (संस्कृत की)
ने मुझे भगिनी (भांजी) का तोहफ़ा दिया है..

इस बार गलती नहीं करूँगा..
इस बार जी भरकर लड़ूँगा अपनी भगिनी से
लेकिन हर बार हारूँगा
जान-बूझकर
सच्ची!

बहुत लड़ा था तुझसे,
अब इसकी बारी है.. हाहा!


-विश्व दीपक

चार-पाँच मील के सपने


चार-पाँच मील के सपने!
नींद थक गई उन् पर चलते-चलते..
उतर आई बीच में हीं
आँखों के कच्चे रस्ते पे..
और फिसल गई आह!

ग़मों ने पिछले पहर
बड़ी मूसलाधार बारिश की थी
सो रस्ते के किनारों पर
अब भी कीच के नामो-निशान शेष थे
धपाक से गिरी अधमरी नींद
और "धुक" से बैठ गया दिल!

नींद ने आखिरी साँसें लीं!

करवट बदलकर मैंने
वही सपना जोड़ना चाहा फिर से,
लेकिन रास्ते का पता
न तो पुरानी नींद की आत्मा को था
(लेकिन आत्मा तो अमर है,
नई नींद क्या, पुरानी नींद क्या!)
और न हीं नई नींद के जिस्म को।

नई नींद पुरानी नींद की कब्र पर खड़ी थी
और पुकार रही थी अपने सपने को।
और वे सपने वहीं पड़े थे
"चार-पाँच मील तक",
लेकिन उन पर कोई चलने वाला न था।

रात भर मैं ढूँढता रहा
अपनी नींद और अपने सपनों को
और देता रहा आवाज़ दोनो को।
नींद मिलती तो सपने न होते
और सपने दिखते तो नींद की कोई ख़बर न होती।

तब से यह कहानी हर रात की है!
हर रात मैं जगता हूँ कशमकश में
और उतारता रहता हूँ सपनों को पन्नों पर।

जाने खता किसकी थी,
मेरी कि मैंने लंबे सपने बुनें,
ग़म की जो तोड़ गया आँखों को
या फिर "उस" नींद की जो थक गई रस्ते में हीं?

खता चाहे जिसकी हो,
भुगत तो मैं हीं रहा हूँ
और लोग कहते हैं कि
"सोता नहीं रात भर,
पागल हो जाएगा।"

पागल? अब कब?


-विश्व दीपक

Saturday, January 15, 2011

तुम लिखते तो


तेरे परमभक्त हैं पड़े हुए कविता के गलियारों में,
पर मेरे चाहने वाले रहते सड़कों में, बाज़ारों में..

तुम लिखते तो समझ-बूझ की सारी सीमा उड़ जाती,
मेरे लिखने से तो सब की बेवकूफ़ी भी जुड़ जाती,
तुम लिखते तो शब्द-शब्द के लाखों मायने होते हैं,
मैं लिखता तो एक अर्थ पे हीं सब हँसते-रोते हैं..

तुम लिखते तो सब को अपनी अक्ल पे नाज़ हो आता है,
मेरे लिखने पे मस्तिष्क भी मन हीं मन मुस्काता है,
तुम लिखते तो सब कहते कि "वाह कही क्या, वाह कही",
मैं लिखता तो मन कहता कि "आह कही क्या, आह कही"..

तुम लिखते तो यूँ लगता कि लिखना भारी काम है जी,
मैं लिखता तो "लिख देता बस", कविता तो एक नाम है जी..

तुम लिखते तो वो कहते कि "आज पढा कुछ मतलब का",
मैं लिखता तो कहते हैं कि "लिखता है कुछ अब-तब का"..
तुम लिखते तो जोर-शोर से तुमपर "शान" चढाते हैं,
मैं लिखता तो आँख चुराते, "कान" और "जान" छुड़ाते हैं..

फिर भी देखो कि मैं खुश हूँ और लिखता हूँ हँसते-गाते,
और तुम हो कि जलते हर पल, ग़म में हीं हो गिरते जाते..

क्या हासिल है ऐसे जीकर, जबकि "जी" भी परेशान रहे,
क्या हासिल है शायर बनकर, जबकि "गुरबत" में जान रहे,
क्या हासिल है चढकर ऊपर, जब अपना ना कोई साथ दिखे,
क्या हासिल है लिखकर इतना, जब अक्लमंद हीं समझ सके..

लिक्खो तो दिल से "भाव" रखो ना कि अपना हीं "भाव" रखो,
गौरव है तुमको खुद पे तो औरों में भी कुछ चाव रखो,
बेचो न खुद को ऐसे तुम, या बेचो तो मुझसे न कहो,
मैं पैसे लेकर लिखता नहीं, तुम लिखते हो.. तुम लिखते रहो...

पर काश कि तुम वो होते जो तुम पहले थे सीधे-सादे,
"तुम लिखते या मैं लिखता तो" "मन" बाँटते हम आधे-आधे..

पर काश कि यूँ तुम लिखते तो...


-विश्व दीपक