वो काहे के संकोची हैं...
वो तो
नज़र डाल के जिगर चीर दें,
उधर आह लें , इधर चीर दें,
ज़रा प्यार दें, बड़ी पीर दें,
दुआ प्यार दें, जड़ी पीर दें..
उफ़्फ़!
खुले वहीं, दिल खोल रखें,
कई किस्म-किस्म के बोल रखें..
फिर
राह बना के कदम डाल लें,
मेरी वहीं फिर कदम-ताल लें..
अब
पाँव खींच कर, आँख मींच कर,
बरस रहे हैं साँस भींच कर,
रीत-रिवाज़ सूझी है अब जब,
आन-अना करती हैं अब-तब..
आह!
मंज़िल तक यूँ मुझे बढा के,
नाक उठा के, नाज़ चढा के,
चाह रहें मैं जहां वार दूँ,
जान मिटाऊँ, हया वार दूँ...
हाय!
कहूँ कहे जो, सुनकर, मैं था,
कहूँ राह का बुनकर मैं था,
खेंच लाया था उनको मैं हीं,
पेंच लड़ाई थी मैंने हीं...
वाह!
आगे बढ के इश्क़ करे जो,
संकोची काहे का फिर वो...
बस
ग़ज़ब के वो उत्कोची हैं,
वो काहे के संकोची हैं...
- विश्व दीपक
वो तो
नज़र डाल के जिगर चीर दें,
उधर आह लें , इधर चीर दें,
ज़रा प्यार दें, बड़ी पीर दें,
दुआ प्यार दें, जड़ी पीर दें..
उफ़्फ़!
खुले वहीं, दिल खोल रखें,
कई किस्म-किस्म के बोल रखें..
फिर
राह बना के कदम डाल लें,
मेरी वहीं फिर कदम-ताल लें..
अब
पाँव खींच कर, आँख मींच कर,
बरस रहे हैं साँस भींच कर,
रीत-रिवाज़ सूझी है अब जब,
आन-अना करती हैं अब-तब..
आह!
मंज़िल तक यूँ मुझे बढा के,
नाक उठा के, नाज़ चढा के,
चाह रहें मैं जहां वार दूँ,
जान मिटाऊँ, हया वार दूँ...
हाय!
कहूँ कहे जो, सुनकर, मैं था,
कहूँ राह का बुनकर मैं था,
खेंच लाया था उनको मैं हीं,
पेंच लड़ाई थी मैंने हीं...
वाह!
आगे बढ के इश्क़ करे जो,
संकोची काहे का फिर वो...
बस
ग़ज़ब के वो उत्कोची हैं,
वो काहे के संकोची हैं...
- विश्व दीपक
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