Thursday, February 25, 2010
मन बता
मुखड़ा
male:
मन जाने ये अनजाने-से अफ़साने जो हैं,
समझाने को बहलाने को बहकाने को हैं..
मन तो है मुस्तफ़ा,
मन का ये फ़लसफ़ा,
मन को है बस पता..
मन होके मनचला,
करने को है चला,
उसपे ये सब फिदा..
female:
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
अंतरा
male:
जाने कब से चाहा लब से कह दूँ,
पूरे दम से जाके थम से कह दूँ,
आके अब कहीं,
माने मन नहीं,
मन का शुक्रिया....
female:
ओठों को मैं सी लूँ या कि खोलूँ, मन बता
आँखों से हीं सारी बातें बोलूँ, मन बता
आगे जाके साँसें उसकी पी लूँ, मन बता
बैठे बैठे मर लूँ या कि जी लूँ, मन बता..
बस कह दे तू तेरा फ़ैसला,
बस भर दे तू जो है फ़ासला..
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
-विश्व दीपक
Monday, February 22, 2010
ज़ीनत
मुखड़ा :
होठों को खोलूँ न खोलूँ, बता,
आँखों से बोलूँ न बोलूँ, बता,
साँसों की भीनी-सी खुशबू को मैं,
बातों में घोलूँ न घोलूँ, बता..
तू बता मैं किस अदा से
ज़ीनत का दूँ हर शै को पता..
तू बता जो इस फ़िज़ा को
ज़ीनत सौंपूँ तो होगी ख़ता?
होठों को खोलूँ न खोलूँ, बता,
आँखों से बोलूँ न बोलूँ, बता,
साँसों की भीनी-सी खुशबू को मैं,
बातों में घोलूँ न घोलूँ, बता..
अंतरा 1:
है ये मेरे तक हीं,
ज़ीनत है ये किसकी
आखिर तेरा है जादू छुपा...
मैं तो मानूँ मन की
ज़ीनत जो है चमकी
आखिर तेरी हीं है ये ज़िया...
तू जाने कि तूने हीं दी है मुझे,
ये ज़ीनत कि जिससे मेरा जी सजे,
तो क्यों ना मेरा जी गुमां से भरे?
तो क्यों ना मैं जी लूँ उड़ा के मज़े?
हाँ तो मैं हँस लूँ न हँस लूँ, बता,
फूलों का मस्स लूँ न मस्स लूँ, बता,
धीरे से छूकर कलियाँ सभी,
बागों से जश लूँ न जश लूँ बता..
अंतरा 2:
यूँ तो फूलों पर भी,
ज़ीनत की लौ सुलगी,
लेकिन जी की सी ज़ीनत कहाँ?
जैसे हीं रूत बदली,
रूठी ज़ीनत उनकी,
लेकिन जी की है ज़ीनत जवाँ..
जो फूलों से बढके मिली है मुझे,
ये ज़ीनत जो आँखों में जी में दिखे,
तो क्यों ना मैं बाँटूँ जुबाँ से इसे?
तो क्यों ना इसी की हवा हीं चले?
हाँ तो मैं हँस लूँ न हँस लूँ, बता,
फूलों का मस्स लूँ न मस्स लूँ, बता,
धीरे से छूकर कलियाँ सभी,
बागों से जश लूँ न जश लूँ बता..
तू बता मैं गुलसितां से
ज़ीनत माँगूँ या कर दूँ अता....
-विश्व दीपक
Saturday, February 20, 2010
रिश्तों का पनीर
कल तक जिसे सँवारने की फ़िक्र थी मुझे,
उधड़ी वो इस कदर कि मुझे रास आ गई।
शायद इसी को कहते हैं, ऐ यार, ज़िंदगी,
जब-जब किया जुदा, ये मेरे पास आ गई।
जाने ये कौन आए हैं मुझको तराशने,
कातिल की आँखों में है चमक खास आ गई।
बंजर था दिल जभी तो बेकार था अगर,
बदतर है अब जो जंगली ये घास आ गई।
मुद्दत से तूने ’तन्हा’ यूँ सहेजा था जिसे,
रिश्तों के उस पनीर में अब बास आ गई।
-विश्व दीपक
Thursday, February 18, 2010
चाहत की चरस
यही है अहद तुझे तकके मैं आहें न भरूँगा,
मालूम है कि मुझसे तो निभती नहीं कसमें।
एक शौक है दिल ज़ार-ज़ार होने पर हँसना,
इसी शौक से तो आज भी है ज़िंदगी नस में।
इस बार भी किसी माहरू ने ओढा है चेहरा,
बस देखिए उल्काएँ कब जलती हैं हवस में।
तुझे जानता ऐन वक्त तो बनता न दीवाना,
ज़ाहिर है बेवफ़ाई प’ अब दिल नहीं बस में।
लुट जाएगा ’तन्हा’ अगर सुधरेगा नहीं तो,
माना कि नशा है बड़ा चाहत की चरस में।
-विश्व दीपक
Friday, February 12, 2010
इन लबों के इर्द-गिर्द
मैं तुम्हारे इन लबों के इर्द-गिर्द
एक तिल भर आशियाना चाहता हूँ..
देखने को सुर्खियाँ गीले लबों की
उम्र भर का ये ठिकाना चाहता हूँ...
जब सजे इनपे तबस्सुम की लड़ी
गिरते मनकों को उठाना चाहता हूँ..
ना लगे इनकी शुआओं को नज़र,
पास में काजल चढाना चाहता हूँ...
लफ़्ज़ बरसें जो लरजते बादलों से
छानकर गज़लें बनाना चाहता हूँ...
काट ले तू झेंपकर जब भी इन्हें,
थोड़ा-सा गुस्सा चबाना चाहता हूँ...
या कि खींचे इनको तू अंगुलियों से,
मैं तभी नखरे दिखाना चाहता हूँ...
सच कहूँ तो इन लबों के हुस्न में
चार चाँद मैं लगाना चाहता हूँ...
-विश्व दीपक
Wednesday, February 10, 2010
जोगिया
मुखड़ा
ओ री पगली,
दीवानी बातों से ठगती है आते-जाते तू,
थोड़ी पगली,
नूरानी रातों में जगती है गाते-गाते तू।
बेशक जिसने कहा है,
बेशक शायरनुमा है,
बेशक मुझपे फिदा है..... बेशक हीं।
बेशक कुछ तो हुआ है,
बेशक उसको पता है,
बेशक रब की दुआ है... बेशक हीं।
ओ री पगली,
दीवानी बातों से ठगती है आते-जाते तू,
थोड़ी पगली,
नूरानी रातों में जगती है गाते-गाते तू।
अंतरा 1
वो जो है, रवाँ-रवाँ-सा,
दिखता है, जवाँ जवाँ-सा,
दिलकश है, समां- समां-सा,
आशिक है मेरा...
चाहत से भरा-भरा-सा,
आँखों में धरा-धरा-सा,
नटखट है, ज़रा-ज़रा-सा,
नाजुक है बड़ा...
बोले तो गज़ल-गज़ल बरसे,
होठों से उतर,
छूने को अधर-अधर तरसे,
होके बे-खबर...
बेशक ये एक नशा है,
बेशक मैने चखा है,
बेशक मुझपे चढा है... बेशक हीं।
बेशक जो भी हुआ है,
बेशक मेरी रज़ा है,
बेशक इसमें मज़ा है... बेशक हीं।
अंतरा 2
दिल घड़ी-घड़ी उसी पे आए,
मन मचल-मचल मति लुटाए,
जो सजन कभी नज़र चुभाए,
तो प्रेम-फ़ाग बलखाए.....
दम कदम-कदम दबा हीं जाए,
तन तड़प-तड़प टीस उठाए,
रूत बहक-बहक मुझे सताए,
जो विरह-आग सुलगाए...
बनके बदली,
गश खाती साँसों पे गिर जाए साँसों वाली लू।
अंतरा 3
जोगिया का ठिकाना मैं जो बनी,
मस्तियाँ आशिकाना होने लगीं।
जोगिया का ठिकाना मैं जो बनी,
मस्तियाँ आशिकाना होने लगीं.. सारी हीं।
बेशक वो जो खड़ा है,
बेशक जां से जुड़ा है,
बेशक मेरा पिया है.. बेशक हीं
बेशक यह जो सदा है,
बेशक ग़म की दवा है,
बेशक खुद में खुदा है... बेशक हीं
-विश्व दीपक
जांनशीं
मुखड़ा
ना थी दिन में रोशनी,
ना थी शब हीं शबनमी,
आकर तूने हमनशी,
मेरी बदल दी ज़िंदगी।
तू है कि जैसे धूप है,
तू है कि मय का रूप है,
तु है कि बहती एक नदी,
तू है कि पल में एक सदी।
सुलझी है अब आस भी,
बहकी है अब प्यास भी,
सीने में है तू बसी,
लब पे बस तेरी हँसी।
अंतरा 1
तू है मेरी बेखुदी, तू है मेरा होश भी,
तू है मेरा जहां।
तुझसे है आशिक़ी , तुझमें है सादगी,
तू है मेरा खुदा॥
मुझसे मिली तू बनके दुआ , ओ बावरी,
मुझमें बसी तू बरसों पुरानी कोई याद-सी।
तू है तो दिल को है सुकूं,
तू है तो मुझमें है जुनूं,
तू है तभी ये बोल हैं,
तू है तो हम अनमोल हैं।
अब गुम है हर बेबसी,
मंजर भी है दिलकशी,
तू है तो है क्या कमी,
जां है, जां में, जांनशीं।
अंतरा 2
पन्नों में डाल के, रख लूँ संभाल के,
तू है मीठी जबां।
सौंधी-सी रैन में, पिघले है नैन में,
तू है कच्ची हया ।।
पहली सबा तू, अल्हड़ हवा तू आखिरी,
पगली घटा ने, छेड़ी हो जैसे कोई बांसुरी।
तू है कि खुशबू की छुअन,
तू है कि फूलों में शिकन,
तू है कि रेशम की लड़ी,
तू है कि अंबर अंबरी।
पाकर तुझसे मयकशी,
धुन में है अब चाँदनी,
सब हैं यहाँ तेरे दम से हीं,
तू हीं , तू है, हर कहीं।
-विश्व दीपक
Monday, February 08, 2010
मैं अब भी
मैं अब भी उसे बुरा नहीं कहता...
वो जो
आँखों के सामने रहके तड़पाती है,
बारहा आँखों के पीछे भी उतर आती है
ख्वाबों के झरोखे से
और उड़ा जाती है नींद.......
मैं नींद में भी उससे कुछ कह नहीं पाता...
बस सुनता रहता हूँ उसकी जबां..
जो
चुटखी भर हिन्दी,
नाखून भर पंजाबी
और हथेली भर अंग्रेजी
का पुट लिए रहती है....
क्या कुछ कह जाती है वो...
मुझे उसकी बातें सुनाई नहीं पड़ती,
हाँ
इतना होता है कि
उसके लबों की जुंबिश,
लबों की लरजिश
जम जाती है सीने में .....
और मेरी धड़कन
मेरा साथ छोड़ने लगती है...
ठीक वैसे हीं
जैसे
उसे देखते वक्त होता है........
मैं तब भी कोई शिकायत नहीं करता..
मैं तब भी उसे बुरा नहीं कहता..
-विश्व दीपक
Monday, February 01, 2010
उठाईये जब भी चिलमन को
संभालिए दिल की धड़कन को,
उठाईये जब भी चिलमन को...
तराशिए अपनी बातों को,
संवारिये पगली उलझन को....
बताईये अपनी आँखों से,
दबाईये यूँ ना तड़पन को....
मनाईये रूठी साँसों को,
भुलाईये सारी अनबन को....
निभाईये वादे चाहत के,
लगाईये मन से तन-मन को...
पुकारिए खुल के ख़ाबों को,
बुहारिये बिखरी कतरन को...
सजाईये खुद को कुरबत से,
हटाईये ग़म की उतरन को...
-विश्व दीपक
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