Tuesday, February 14, 2012

एक साल पहले


एक साल पहले बोया था जिसे, 

आज उस पेड़ की शाखें बउरा गई हैं, 
बिरवे आए हैं उनपे.. 


बियाबान में तुमने जल का सोता डाला था तब, 
उसी की बदौलत 
आज देखो यह पेड़ खींच लाया है बारिशों को.. 


पतझड़ की बुनकरी चलती रहे भले हीं, 
यह बहार जाने न ना पाए, 
यह बहार बनी रहे.... यूँ हीं..  



Thursday, February 09, 2012

अब तुम भी जान लो

तु्म्हें जानते-जानते 
भूल गया हूँ खुद को 
ठीक उसी तरह
जिस तरह 
दरिया सौंप दे अपना होना समंदर को.. 


मैं पत्ते की लकीरों में लेता रहता हूँ साँस, 
तुम जड़ बनके डालती रहती हो 
मेरे सीने में ईंधन.. 


मैं पल-दर-पल धूप बेलता हूँ
और तुम 
चंपई रंग लेकर उतर आती हो उसमें 
अपनी सारी उष्मा-सहित; 
दिन ऐसे हीं तो बुनते हैं हम.. 


मैं लिखता हूँ नज़्म - 
डुबोता हूँ तुम्हारी हँसी में अपनी लेखनी 
और उकेर देता हूँ तुम्हारे होठों पर 
दो-चार अनकहे अल्फ़ाज़; 
तुम्हारे होठों से झड़े ये नज़्म 
खिल जाते हैं क्यारी-क्यारी.. 


तुम अब भी अनबूझ हो 
या शायद बूझ गया हूँ तुम्हें - 
मालूम नहीं 
पर 
रात के इक्के पर 
चढकर 
तुम जब आती हो मेरी आँखों में 
तो 
चाँद के दो चक्के 
मेरे दिल तक बढ आते हैं;
इश्क़ यकीनन यही है - 
इतना तो जान गया हूँ.. 


अब तुम भी जान लो!!!

Wednesday, February 01, 2012

जानम



हिरणों-सा अल्हड़ मौसम,

मखमल पे उतरे छम-छम,
बर्फानी फाहों में फिर फूले-फले..

चिड़ियों-सा मेरा मन भी,
तिर-तिर के अंबर तक की
बर्फानी राहों में कुछ चुनता चले...

राहों फाहों में जो है
क्या है दिल के सिवा..
धड़के फड़के है हर पल
चाहत की बनके दुआ..

हल्की फुल्की
नभ से ढुलकी
ठंढी ठंढी गीली चाँदनी में

तुझको सोचूँ
तुझको खोजूँ
बहकूँ दहकूँ तड़पूँ बावली मैं..

उजले उजले 
पत्तों पर जब दिन बरसे
उलझी सुलझी
शाखों के तब मन हुलसे
चुपके चुपके
ऐसे में एक दिल तरसे
रब हीं समझे
तुझ बिन कितना मन झुलसे..

तभी गर जानम
तू आके
मिल जाए..
उसी पल पूनम
बल खाके
खिल जाए..
उसी पल नीलम
से धरती
सिल जाए..
उसी पल लमसम
ये मेरा 
दिल जाए..

हिरणों-सा अल्हड़ मौसम,
मखमल पे उतरे छम-छम,
बर्फानी फाहों में फिर फूले-फले..

चिड़ियों-सा मेरा मन भी,
तिर-तिर के अंबर तक की
बर्फानी राहों में कुछ चुनता चले...

उड़के देखूँ
मुड़के देखूँ
आती जाती आहट तेरी लगे..

कुहरे का घर
बस दो पग पर
झीनी झीनी चौखट तेरी लगे..

मेरे ओ हमदम
ये सारी
रूत पूछे
भींगी ये शबनम
रातों को
उठ पूछे
कैसा तू जालिम
ना तुझको 
कुछ सूझे
तुझे माँगे मन
काहे ना
तू बूझे..

हिरणों-सा अल्हड़ मौसम,
मखमल पे उतरे छम-छम,
बर्फानी फाहों में फिर फूले-फले..

चिड़ियों-सा मेरा मन भी,
तिर-तिर के अंबर तक की
बर्फानी राहों में कुछ चुनता चले...


इस गाने को मीरा मनोहर की आवाज़ में यहाँ सुन सकते हैं, संगीत है किच्चा का...

भीनी शब



भीनी शब, भीने दिन 
साँसों साँसों बहते गुंचे.. 
झीनी शब, झीने दिन 
साँसों के दो परदे.. 


भीनी शब, भीने दिन 
साँसों साँसों बहते गुंचे.. 
झीनी शब, झीने दिन 
साँसों के दो परदे.. 


ऐसे में मैं जानूँ 
दिल हो ले दो-जानू 
शब की जो गर मानूँ 
सब परदे उधड़े.. 


पलकें तू हीं कह री!
सीधी इतनी ठहरी, 
उनके लब जा उतरी, 
फिर कैसे... किस रस्ते.. 


हाँ री हाँ मैं जानूँ 
दिल हो ले दो-जानू 
शब की जो गर मानूँ 
सब सजदे सुधरे.. 


लट से लिपटी बाहें, 
बाहों में सौ आहें, 
आहों में दस राहें 
जिनपे उनसे उनतक मैं.. 


मुझपे उनका कुहरा, 
चेहरे पे उनका चेहरा, 
सीने में कुछ गहरा 
धंस ले, बिखरूँ जुड़कर मैं.. 


भीनी शब, भीने दिन 
साँसों साँसों बहते गुंचे.. 
झीनी शब, झीने दिन 
साँसों के दो परदे.. 


छूटा बचपन, 
रूठा बचपन, 
अपना बनके उनने रग-रग 
लूटा बचपन.. 


लफ़्ज़ों के कुछ 
दे के जेवर सिक्के, 
तिल से तह तक 
पैठे ठग के छिप के.. 


एक से दो जब हो लें तो फिर बरसूँ उनपे.. 


उलझे 
हुए थे मुझसे वो 
बेलें पीपल पे सिकुड़ी हों ज्यों.. 


उभरे 
हुए थे अरमां यों 
झीलें बादल पे उमड़ी हों ज्यों.. 


आना-कानी 
उफ़्फ़ खींचा-तानी 
बूंदा-बांदी में उनींदे थे हम दोनों.. 


बेदम बेहिस थे हम, 
ऐसे में ले अनबन, 
सुबह बनके सौतन 
आ बैठी फिर से.. 


भीनी शब, भीने दिन 
साँसों साँसों बहते गुंचे.. 
झीनी शब, झीने दिन 
साँसों के दो परदे..